Strings, transformed!
Reminiscences from my diary
December 27, 2013
Friday, 2:30 pm
Crystal Downs, Bangalore
मैंने अक्सर महसूस किया है -
जिस भी शब -
तू -
और तुझसे जुड़े बंधन -
शिथिल - से-
मालूम होते हैं …
जिस भी रात -
वक़्त के कांच से -
तेरे अस्तित्व से जुड़े धागे -
तड़पते -
बिलखते -
टूटते - से -
तार - तार होने लगते हैं …
तब,
अगली सुबह -
कायनाती हो जाती है !
अगले दिन -
एक अलग ही सूरज उगता है -
जिसकी -
कतरा भर रोशनी -
इस मरते बंधन में -
जान - सी फूँक जाती है …
तड़पते - बिलखते धागों पर -
मुस्कराहट - सी छोड़ जाती है !
और तब -
तब लगता है , मानो -
तू है !
इस नए सूरज में -
इस नए सूरज की नयी रोशनी में -
इस नयी रोशनी से झिलमिलाते सलिल में -
इस सलिल से सीली हवा में -
इस हवा में सिमटी खुशबू में -
हर दिशा में -
हर गुंजन में -
हर अलंकार में -
उस रूह से इस रूह तक आती हर रूह में-
तू है !
तू यहीं है!
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