Friday, 27 November 2015


Whispers of the lost!


Reminiscences from my diary
October 7, 2012
11:45 PM
#750, IISc


आहटों के चेहरे -
छितरे - छितरे से -
बिखरे - बिखरे से -
यत्र तत्र सर्वत्र !








कुछ चेहरे  ... कई चेहरे ,
उदासी भरे -
फड़फड़ाते होंठ ,
भरी आँखें -
गालों पर सूखी पड़ती -
-  गीली रेखाएँ  ...
शिकायत करते -
तड़पते -
विलाप करते -
और फिर -
शून्य में खो जाते !



अगली आहट पर दिखाई दिए -
'खुश' चेहरे -
पर बहुत कम ,
बहुत धुंधले -
चमकते - से नयन थे शायद -
शायद मुस्कुराते अधर -
खिले कपोल -
गुनगुनाते -
खिलखिलाते -
इठलाते -
और फिर अचानक ही -
शून्य में खो जाते !



फिर, सामने आये -
आहटों के कुछ और चेहरे ,
छिपे हुए -
मौन नेत्र -
मौन ही होठों का युग्म भी -
भावहीन -
संज्ञाहीन -
न कोई शिकायत -
न ही कोई सुकून -
बस आम के ठूंठ से ,
और फिर ,
वे भी -
अगले ही क्षण -
शून्य में खो जाते !

काश !
कुछ यूँ सा होता -
शून्य में -
चेहरों  के साथ - साथ -
आहटें भी खो पातीं !











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