O, You Beloved Siesta!
Reminiscences from my diary
Monday, Feb 1, 2016
EGL, Bangalore
9 AM
मुख - मंडल पर कोहरा घन कर -
चक्षु में तुम छा जाती।
खेकर तरणी नील - सलिल में -
तट पर किसी आश्रय पा जाती।
इठलाकर और मुस्काकर तुम -
संज्ञा में हो समा जाती।
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।
स्वप्न - लोक में हृदय नहीं रमता -
पर तुम ब्रह्माण्ड तरा जाती।
तुम अभिरामि , तुमको मैं निहारूँ -
ऐसा सम्मोहित कर जाती।
यूँ तो तुम भगिनी रश्मि की -
पर क्यों उस पर तुम झुंझलाती ?
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।
कुहासों को , अवसादों को तुम -
झट से छू - मंतर कर जाती।
स्पर्श मात्र से मधुरस भरता -
ऐसा कुछ जादू कर जाती।
स्मृतियों पर कसकर अंकुश तुम -
क्षितिज पार मुझे ले जाती।
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।
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