Eclipsed!
Reminiscences from my diary
June 05, 2020
Friday, 11:30 pm
Murugeshpalya, Bangalore
सुनो !
तुम आज सुन्दर दिख रहे हो
बहुत ही ज़्यादा सुन्दर
शांत, श्वेत, उज्जवल
प्रकार से खींचा एक अचूक वृत्त !
तुम्हारे ऐसे रूप पर
मेरा रोम - रोम बलिहारी
मेरा पल - पल न्योछावर
मैं ही नहीं -
छितरी - बिखरी - मचली -
घटाएँ
खुशबुएँ
हवाएँ
सभी बौराये हुए हैं -
तुम्हारे सलोनेपन पर !
कोई जादू, कोई मन्त्र फूँका है क्या आज ?
है न ?
सच कहो तो ज़रा !
आज अभी कुछ ही देर में
तुम्हें
मेरी धरती, अपनी छाया से -
ढक देगी !
ऐसा लोग कह रहे हैं !
जानते हो तुम ?
मुझे यह ख़्याल कई बार कौंधा जाता है -
कैसा लगता होगा तुम्हें
जब - जब
तुम्हें
ग्रहण लगता है !
चिंता - आक्रोश - भय - शोक - ग्लानि - पीड़ा - कसक ?
क्या ?
और क्यों ?
तुम्हारा क्या दोष ?
अगर कुछ महसूस होना ही है तो
पृथ्वी को हो !
किंवदंती चंद्र - ग्रहण की नहीं
पृथ्वी - ग्रहण की होनी चाहिए !
है न ?
मुझे पता है, तुम -
आज का कल होने की
राह तक रहे हो !
कल तुम मुक्त हो जाओगे
फिर से
शापित से श्रापहीन !
फिर से
शांत, श्वेत, उज्जवल
अपने में ही डूबे हुए !
जानते हो ?
ऐसे ही, एक बार -
मुझे भी
ग्रहण लगा था !
जानते हो ?
मैं, आज तक भी -
नहीं बूझ पाया
अपनी मुक्ति का कोई उपाय !
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