The balloon - seller
Reminiscences from my diary
July 22, 2016
Wednesday
Chandigarh Airport
रिक्शा से स्टेशन जा रहा था ...
भोर अभी पूरी तरह से -
- खिली नहीं थी, शायद,
या फिर -
खिल गयी थी और खिलकर भी -
- घने घने गहराए बादलों से -
- हार मान गई थी !
मन में , मस्तिष्क में -
कुछ गणित सा ,
कुछ जोड़ - घटा -
कुछ हिसाब - किताब चल रहा था !
यूँ तो तनख्वाह बहुत ज़्यादा कम नहीं -
पर फिर भी -
कितने खर्च -
ये हिसाब , वो हिसाब -
कैसे बचाऊँ -
कैसे बढ़ाऊँ -
भविष्य मुँह बाए खड़ा है -
और समय -
न जाने कब से पंख लगाकर -
- उड़ रहा है !
उड़ा ही जा रहा है !
निवेश भी करना है -
कहाँ करूँ -
कैसे करूँ -
कितना करूँ !
करोड़ों सवाल !
बिन जवाब के सवाल !
सवाल ही सवाल !
तभी, रिक्शा - वाले ने -
बचाते - बचाते भी -
एक गड्ढे से -
क्रूर साक्षात्कार करा ही दिया !
ध्यान टूटा !
सवाल इधर - उधर बिखरे !
भविष्य भी भविष्य में लीन हुआ -
-और नज़र पड़ गई दाईं ओर -
- बंद पड़ी उस लकड़ी की दुकान की -
- मुंडेर पर बैठे -
उस गुब्बारे वाले पर !
कितनी तन्मयता से गुब्बारे फुला रहा था !
एक, फिर दो, फिर तीन ...
कितनी फुर्ती !
फुला - फुलाकर अपनी लकड़ी पर टांग रहा था !
होठों पर मुस्कान - सी थी -
- और शायद कोई गीत !
एक ओर यह गुब्बारे वाला था -
जो शायद तीन वक़्त का खाना भी -
खा पाएगा या नहीं -
पता नहीं !
कितने गुब्बारे बिक पाएंगे आज -
पता नहीं !
कौन से नुक्कड़ पर ज़्यादा बच्चे मिलेंगे -
पता नहीं !
सवाल तो इसके ज़हन में भी होंगे ...
कई होंगे -
शायद मेरे सवालों से कम -
या फिर ज़्यादा !
पर ...
कितना अंतर था हमारे सवालों में -
सिर झुक गया मेरा -
और मेरे सवालों का भी !
और जवाब नहीं चाहियें अब ,
या यूँ कहूँ -
सवालों को मेरे , शायद ,
सभी जवाब मिल गए !
कुछ देर बाद गौर किया -
तो मैं -
मुस्कुरा रहा था, और -
बिसरा - सा कोई गीत -
गुनगुना रहा था !
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