Thursday, 23 January 2020

अमृता की डायरी 'रसीदी टिकट' से ~


(1)
लोग कहते हैं, रेत  रेत है, पानी नहीं बन सकती ! और कुछ सयाने लोग उस रेत को पानी समझने की गलती नहीं करते ! वे लोग सयाने होंगे, पर मैं कहती हूँ - जो लोग रेत को पानी समझने की ग़लती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कमी रही होगी  ...

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(2)
सूरज के डूबने से मेरा कुछ रोज़ डूब जाता है, और उसके फिर आकाश पर चढ़ने के साथ ही मेरा कुछ रोज़ आकाश पर चढ़ जाता है।  रात मेरे लिए सदा अँधेरे की एक चिनाब - सी रही है, जिसे रोज़ इसलिए तैरकर पार करना होता है कि उसके दूसरे पार सूरज है  ...

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(3)
मेरा सूरज बादलों के महल में सोया हुआ है
वहाँ कोई खिड़की नहीं, दरवाज़ा नहीं, सीढ़ी भी नहीं
और सदियों के हाथों ने जो पगडण्डी बनाई है
वह मेरे पैरों के लिए बहुत संकरी है  ...

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(4)
इस दास्ताँ की इब्तदा भी ख़ामोश थी, और सारी उम्र उसकी इन्तेहाँ भी ख़ामोश रही।  आज से चालीस बरस पहले जब लाहौर से साहिर मुझसे मिलने आता था, आकर चुपचाप सिगरेट पीता रहता था।  राखदानी जब सिगरेटों के टुकड़ों से भर जाती थी, वह चला जाता था, और उसके जाने के बाद मैं अकेली सिगरेट के उन टुकड़ों को जलाकर पीती थी।  मेरा और उसके सिगरेट का धुआँ सिर्फ़ हवा में मिलता था, साँस भी हवा में मिलते रहे, और नज़्मों के लफ़्ज़ भी हवा में  ...

सोच रही हूँ, हवा कोई भी फ़ासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फ़ासला तय किया करती थी, अब इस दुनिया और उस दुनिया का फ़ासला भी ज़रूर तय कर लेगी  ....

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