अमृता के कुछ खत, इमरोज़ के नाम ~
(1)
इमा,
इस बार
ब्रश में
होली का रंग
भरकर लाना ...
तुम्हारे सफ़ेद हाथों की कसम ...
आशी [09.02. 1968]
***
(2)
जीती,
तुम जितनी सब्ज़ी लेकर दे गए थे, वे ख़तम हो गयी हैं।
जितने फल लेकर दे गए थे, वे भी ख़तम हो गए हैं !
फ्रिज खाली पड़ा है !
मेरी ज़िन्दगी भी खाली होती हुई लग रही है। तुम जितनी साँस छोड़ गए थे, वे ख़तम हो रही हैं।
जीता, मेरे इस ऊपर लिखे ख़त को लेकर दुःखी मत होना। रात के गहरे अँधेरे में लिखा था।
मैं उदास हूँ, लेकिन तुम्हारे काम का ख़्याल आता है, तो अपने अकेलेपन को बहला लेती हूँ। वैसे नहीं मालूम यह उम्र का तकाज़ा है या ज़िन्दगी के बाकी रहते थोड़े दिनों का एहसास।
जीती, अगर वहाँ काम का कोई भविष्य दिखाई देता है तो ज़रूर स्ट्रगल करना, वरना व्यर्थ में मत भटकना। यहाँ घर बैठे हमें सूखी दाल - रोटी भी बहुत है। आज मैं अस्सी बरस की या पिछले ज़माने की औरत की तरह बातें कर रही हूँ।
शायद शाश्वत यही होती है।
वही शाश्वत
माजा [26.09.1968]
***
(3)
इमा,
कल तुम्हारा कमरा बंद रखा था।
आज बहुत दिल घबराया, तो कमरा खोल दिया ...
पर सारे फ़र्श पर फैली हुई और छत तक पसरी हुई चुप नहीं टूटती !
तुम्हारी
एमी [12.07.1975]
***
(4)
.... ,
यहाँ मैं इस तरह अकेली पड़ी हूँ जैसे अंधे की माँ उसे मस्जिद में अकेला छोड़ आए !
टूट जाएँ रेलगाड़ियाँ, जो तुम्हें लौटाकर नहीं लातीं !
कल गुलज़ार आया था, "सुना , आपकी तबीयत ठीक नहीं है। ख़बर लेने आ गया। क्या बात है ?"
मैंने जवाब दिया, "वैसे तो ठीक हूँ, पर शाम को दर्द शुरू हो जाता है, जैसे ही सूरज डूबता है।"
गुलज़ार हँसने लगा, "पुराने समय में किसी ने 'काल' को पाये से बाँधा था, आप सूरज को पाये से बाँध लीजिये। इसे मत डूबने दीजिये।"
मैंने उसे बताया, "वह तो मैंने बाँध रखा है, शाम को जब जीती का ख़त आता है, तो वह सूरज ही तो होता है।"
सच जीती, तुम्हारा ख़त शाम का सूरज ही तो होता है।
क्या मैं कम करामाती हूँ ! मैं भी सूरज कोण पाये से बाँध सकती हूँ ...
साँस साँस से तुम्हारा इंतज़ार हूँ ...
तुम्हारी अपनी
.... [03.01. 1969]
***
(1)
इमा,
इस बार
ब्रश में
होली का रंग
भरकर लाना ...
तुम्हारे सफ़ेद हाथों की कसम ...
आशी [09.02. 1968]
***
(2)
जीती,
तुम जितनी सब्ज़ी लेकर दे गए थे, वे ख़तम हो गयी हैं।
जितने फल लेकर दे गए थे, वे भी ख़तम हो गए हैं !
फ्रिज खाली पड़ा है !
मेरी ज़िन्दगी भी खाली होती हुई लग रही है। तुम जितनी साँस छोड़ गए थे, वे ख़तम हो रही हैं।
जीता, मेरे इस ऊपर लिखे ख़त को लेकर दुःखी मत होना। रात के गहरे अँधेरे में लिखा था।
मैं उदास हूँ, लेकिन तुम्हारे काम का ख़्याल आता है, तो अपने अकेलेपन को बहला लेती हूँ। वैसे नहीं मालूम यह उम्र का तकाज़ा है या ज़िन्दगी के बाकी रहते थोड़े दिनों का एहसास।
जीती, अगर वहाँ काम का कोई भविष्य दिखाई देता है तो ज़रूर स्ट्रगल करना, वरना व्यर्थ में मत भटकना। यहाँ घर बैठे हमें सूखी दाल - रोटी भी बहुत है। आज मैं अस्सी बरस की या पिछले ज़माने की औरत की तरह बातें कर रही हूँ।
शायद शाश्वत यही होती है।
वही शाश्वत
माजा [26.09.1968]
***
(3)
इमा,
कल तुम्हारा कमरा बंद रखा था।
आज बहुत दिल घबराया, तो कमरा खोल दिया ...
पर सारे फ़र्श पर फैली हुई और छत तक पसरी हुई चुप नहीं टूटती !
तुम्हारी
एमी [12.07.1975]
***
(4)
.... ,
यहाँ मैं इस तरह अकेली पड़ी हूँ जैसे अंधे की माँ उसे मस्जिद में अकेला छोड़ आए !
टूट जाएँ रेलगाड़ियाँ, जो तुम्हें लौटाकर नहीं लातीं !
कल गुलज़ार आया था, "सुना , आपकी तबीयत ठीक नहीं है। ख़बर लेने आ गया। क्या बात है ?"
मैंने जवाब दिया, "वैसे तो ठीक हूँ, पर शाम को दर्द शुरू हो जाता है, जैसे ही सूरज डूबता है।"
गुलज़ार हँसने लगा, "पुराने समय में किसी ने 'काल' को पाये से बाँधा था, आप सूरज को पाये से बाँध लीजिये। इसे मत डूबने दीजिये।"
मैंने उसे बताया, "वह तो मैंने बाँध रखा है, शाम को जब जीती का ख़त आता है, तो वह सूरज ही तो होता है।"
सच जीती, तुम्हारा ख़त शाम का सूरज ही तो होता है।
क्या मैं कम करामाती हूँ ! मैं भी सूरज कोण पाये से बाँध सकती हूँ ...
साँस साँस से तुम्हारा इंतज़ार हूँ ...
तुम्हारी अपनी
.... [03.01. 1969]
***
No comments:
Post a Comment