Thursday, 23 January 2020

अमृता कविताएँ  (3/8)

मैं

आसमान जब भी रात का
और रोशनी का रिश्ता जोड़ता  ...
सितारे मुबारकबात देते हैं
क्यों सोचती हूँ मैं
अगर कहीं  ...
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती  ...

जिस रात के होठों ने कभी
सपने का माथा चूमा था
सोच के पैरों में उस रात से
इक पायल - सी बज रही है  ...

इक बिजली जब आसमान में
बादलों के वर्क़ उलटती है
मेरी कहानी भटकती है -
आदि ढूंढती है, अंत ढूंढती है  ...

तेरे दिल की एक खिड़की
जब कहीं बज उठती है
सोचती हूँ, मेरे सवाल की
यह कैसी जुर्रत है !

हथेलियों पर
इश्क़ की मेहँदी का कोई दावा नहीं
हिज्र का एक रंग है
और तेरे ज़िक्र की एक खुशबू  ...

मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती  ...

***

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