Saturday 18 February 2017

Spinner of yarns



Reminiscences from my diary

Feb 15, 2017
04:00 pm
GS, CD, Bangalore


सुनो ! सुन रहे हो ?
तुमने तो कहा था -
- कभी नहीं भूलोगे  ...
- कभी नहीं भुलाओगे। ...
झूठ कहा था क्या ?

तुमने कहा था कि -
- जब भी तुम्हें पास न पाऊँ, तो बस -
- चाँद के कान में फुसफुसा दूँ  ...
तुम तक मेरा दिल पहुँच जाएगा !
पर सुनो !
मुद्दत बीत गयी है -
मैं रोज़, कभी पूरे , तो कभी आधे - अधूरे चाँद को ढूंढकर -
- उससे पहरों बातें करता हूँ !
पर, वह तो बस बेबस - सा -
- मुझे एकटक देखता रहता है ,
कहता कुछ भी नहीं  ... !

तुमने चाँद से साँठ - गाँठ कर ली है -
- झूठ कहा था क्या ?

तुमने कहा था कि -
- मैं तुम्हारे सामने न भी रहूँ -
- आँख - मिचौनी खेलूँ -
बिना बताये कहीं छिप जाऊँ -
- तो तुम मुझे ढूंढ निकलोगे !
पर सुनो !
एक उम्र गुज़र गयी है -
मैं तुम्हारे सामने नहीं हूँ -
मीलों दूर कहीं अलग - थलग पड़ा हूँ -
भीड़ में गुम हुआ जा रहा हूँ  ...
पर तुम तो मुझे एक बार भी नहीं ढूंढ पाए !

तुम मुझे मेरी खुशबू से पहचान लोगे -
- झूठ कहा था क्या ?

तुमने तो यह भी कहा था, कई बार -
- मैं कहीं भी आऊँ, कहीं भी जाऊँ -
- तुम मेरे साथ - साथ साये से चलोगे,
 और जब भी नज़र घुमाऊंगा -
- तुम्हे पाऊंगा !
पर सुनो !
मैं कई सफ़र तय कर चुका हूँ -
कई दरिया, कई पहाड़ लाँघ चुका हूँ -
और अपने हर कदम के साथ -
- चारों ओर बिखरे चेहरों में -
- शून्य में, विस्तार में -
- चल में, अचल में -
मैंने तुम्हारा चेहरा खोजा है -
- पर तुम तो कहीं नज़र नहीं आये !

आँखों में कैद सलिल से साथ रहोगे हमेशा -
- झूठ कहा था क्या ?

चलो, अब बहुत झूठ हुआ !
कह दो, हर याद झूठ है !
चाँद से साझेदारी झूठ है !
मेरी खुशबू झूठ है !
आँखों में पलता नीर झूठ है !

सुनो,
अब एक बार तो सच कह ही डालो !