Friday 19 April 2013

THE UBIQUITOUS YOU.....     for you, bhai..


 
REMINISCENCES FROM MY DIARY.....
November 23, 2012
11:15 P.M.
750, IISc
 
 
वह खुली आँखों से बुनी कल्पना है ,
वह काल का यथार्थ भी !
वह  'मेघदूत' का बादल है ,
वह शिवानी की 'कृष्णकली ' भी !
वह पन्नों में दबा अनकहा इतिहास है ,
वह सपनों से सजता भविष्य भी !
वह चंद्रशेखर का सौंदर्य है ,
वही शिव का तांडव भी !
कभी मस्जिद से आती अजान की आवाज़ है वह ,
वही मंदिर का शंख भी !
वह माँ की लोरी में छिपा वात्सल्य है ,
वही अल्हड़ उन्स भी !
मिलन की मुस्कान है वह ,
वही विरह का आंसू भी !
वह पहली बरखा की खुशबू है ,
वह चटकती कलि का सौरभ भी !
वह बचपन की नाव है कागज़ की ,
वह झुर्रियों की लाठी भी !
वह कृष्ण है , वह स्वाति भी ,
वह इन्द्रधनुष को सजाती तूलिका भी !
वह मेघ - मल्हार पुरवाई सावन की ,
वह पतझड़ का ठूंठ भी !
वह बेरहम दुआ है , अनसुनी सदा है ,
वही अधूरी कविता भी !
वह सुर है , राग है , स्पंदन है, जीवन है ,
वह सत्य , शिव , और सुन्दर भी !
वह अग्नि का ताप है ,
वह पृथ्वी का धीर भी !
वह हवा , वही आकाश ,
वह शांत - विकराल सलिल भी ..!
 रश्मियों से बुनी धूप है वह ,
वह अलसाई - सी शाम भी !
 
जितना सोचता हूँ -
उतना पाता हूँ -
"वह" - न पास, न साथ -
"वह" तो मुझ में ही है कहीं -
श्वास की तरह ...
संज्ञा की तरह ...
अस्तित्व की तरह ....!!!
 
 
 
 
 
 
 
 

Sunday 14 April 2013

 THE MYSTIC PANORAMA...



Reminiscences from my diary

December 3, 2012
 11:15 p.m.
750, IISc


काफ़ी वक़्त बीत गया था ...
पर , वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था कि -
- उस पिटारे को खोलूँ -
टटोलूं -
धूल चढ़ती जा रही थी , वक़्त की ही -
उस पर ...!
पर ... आज ...
वक़्त ने मौका दे ही दिया ,
अनजाने में ही सही ...
और ,
मेरे हाथ से वह पिटारा छूट गया ,
और ,
उस पिटारे का सभी सामान -
बिखर गया छन से !
झीनी - सी रोशनी -
- छिपी हुई थी उस में -
भोर की रोशनी -
कुछ पीली ... कुछ लाल ...
पेड़ों से छनकर आती ,
और आँखों में समां जाती !
बीच में बिखरे हुए थे ,
कुछ अल्फ़ाज़ ...
शायद किसी बेतक़ल्लुफ़ नज़्म से टूटे थे ,
या फिर -
किसी मुक्तक छंद में पिरने की राह देख रहे थे !
दो - तीन अम्बियाँ भी थीं ,
शायद कच्ची , या ,
अधपकी -
जो कभी ,
निदाघ की दोपहरी में -
आम की कोटर में छिपाई थीं !
साथ ही बंद पिटारे से ,
आज़ाद हो गयी -
- संदली - सी महक़ !
 शायद सुर्ख़ - से , सूखे - से फूलों की थी ,
कौन -से फूल थे , याद नहीं ,
पर थी बहुत जानी - पहचानी - सी !
महक के साथ ही -
रु -ब- रु हो गया उस बेचैनी से -
जो कई ज़मानों से कैद थी -
इस सुन्दर पिटारे में !
पर कैसी बेचैनी थी , किस के लिए थी ,
न तब पता था , न ही आज पता है !
कुछ कागज़ के टुकड़े भी थे -
शायद चिट्ठियों के फटे लिफ़ाफ़े थे -
हवा के साथ इधर उधर उड़ रहे थे !
एक - दो पर कुछ निशान से दिखे !
एक टुकड़ा उठाकर कुछ टटोलना चाहा ,
पर , समय की नदी में वह स्याही बह गयी थी !
एक साया भी छिपा हुआ था उसमें मुद्दत से ,
आज वह भी सामने आ गया ,
लम्बा , पतला , चिर - परिचित - सा ...
उसके बाहर आते ही ,
साया साया - सा ये समां हो गया ,
और फिर,
धीरे - धीरे ,
वह साया ही मेरा आसमाँ हो गया ...!!!