Thursday 29 December 2022

Saloni

Reminiscences from my diary

Dec 29, 2022
Thursday, 18:30

Saharanpur

"जय श्री कृष्णा" ... 

अरे यार! इस लड़की के कान कितने तेज़ हैं ! ज़रा सी खटर - पटर सुनी नहीं कि आ गयी आवाज़ 'जय श्री कृष्णा'! 

"जय श्री कृष्णा सलोनी! क्या हाल चाल हैं? तेरे आँख - कान खिड़की पर ही रहते हैं न?"

"नहीं बोलूँगी तो कहोगे, सलोनी रसोई में थी फिर भी नहीं बोली"

"उफ़्फ़ ! बस ताने मार ले!"

"और नहीं तो क्या! अच्छा यह बताओ कल कसौटी देखा? बहुत अच्छा आया  ..."

"अरे हाँ ! देखा न! मज़ा आ गया! क्या थप्पड़ मारा प्रेरणा ने अनुराग को  ..."

. . 
. . 

... और बस फिर चल पड़ता था बातों का सिलसिला  ... 'कसौटी ज़िन्दगी की' से 'कहानी घर - घर की' होते हुए 'क्योंकि सास भी कभी  ..' तक ! एक ओर अक्सर अँधेरे में डूबी छोटी-सी रसोई, दूसरीओर उबड़ - खाबड़, टूटा फूटा छज्जा और उस पर जंग लगा हैंड-पंप और बीच में  ... जाली लगी एक खिड़की  ... खिड़की जिसकी जाली इतनी धूल भरी कि दूसरी ओर कभी कुछ ठीक - ठीक दिखाई न दिया !

"शानू भैया! छत पर आ जाओ ! आपके लिए ढोकला बनाया है!"

"आ गया!"

"भैया ! दाल मखनी बनाई है!"

"आ गया!"

"आंटी! छत पर आ जाओ! केक बनाया है !"

"जय श्री कृष्णा ! मैं न आऊँ क्या?"

. . 
. . 

... और फिर छत पर तब तक बातें होतीं जब तक बंदरों का झुण्ड न आ धमकता ! बातें दुनिया जहाँ की  ... अपनी टीचर्स की बुराइओं से लेकर अपने दोस्तों के अफेयर्स की  ... तुलसी, पार्वती,  मिहिर, कोमोलिका की  ... न जाने कितने लोगों को हिचकियाँ आती होंगी  ... 

पिद्दी - सी नाक वाली यह लड़की उम्र  में छः - सात साल छोटी थी ! जब तक मैं कॉलेज नहीं गया, तब तक, लगभग रोज़ ही बात हो जाती, कभी एक मिनट तो कभी एक घंटा! फिल्मों की, गानों की, धारावाहिकों की, दोस्तों की, स्कूल की मैडमों की, खाने - पीने की ! हमने कभी 'हाय', 'नमस्ते', 'जय जिनेन्द्र' नहीं कहा, हमारा साझा तकिया कलाम था 'जय श्री कृष्ण' ! कब पड़ा ! कैसे पड़ा ! यह याद नहीं कर पाता ! पर हमेशा यही रहा ! एक मिनट का फासला होते हुए भी हम शायद ही कभी एक दूसरे के घर गए ! पर हम दोस्त थे, भाई-बहन वाले दोस्त! बचपन से ! हमेशा से !

कॉलेज से छुट्टियों में जब घर आता, तो ऐसा कभी नहीं हुआ जब हमने एक दूसरे को आवाज़ न लगाई हो ! और जब दो तीन दिन आवाज़ न आती तो मैं ही बेचैन हो जाता ! 

"आंटी! सलोनी की आवाज़ नहीं आ रही! कहाँ है यह?"

"बेटा ! नीचे होगी! वो तो पूछ रही थी कि शानू भैया नहीं आये क्या"

"रहने दो आंटी ! भूल गयी यह लड़की!"

"ले आ गयी ! अब तुम दोनों आराम से लड़ लो"


... फिर सलोनी बड़ी हो गयी  ..  कॉलेज जाने लगी, और मैं एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज में व्यस्त होता गया ! पर जब तक पुराने मोहल्ले के पुराने घर में सांसें लीं , तब तक हम किसी न किसी तरह बात कर ही लेते थे ! मौके - मौके पर कुछ न कुछ खिलाती ही रहती थी, फिल्मों-गानों-सीरियल की बातें होतीं ही रहीं  .... 

... और फिर एक दिन माँ ने कहा सलोनी की शादी हो गयी ! मैं हैरान! हैं???? शादी ??? क्या ही उम्र है ? २२? पर ऐसा ही होता है न ! बिन बाप की बच्ची, जेठानियों पर मोहताज माँ, छोटा बीमार भाई ! अच्छा घर बार है, पति की अपनी दुकान है पास के कसबे में, गाड़ी है, ४०० गज में कोठी है ! खुश रहेगी! हाँ! अगर बड़े कह रहे हैं तो खुश ही रहेगी ! बड़े तो ईश्वर तुल्य होते ही हैं ! ईश्वर ही शायद ! अन्तर्यामी ! 

... समय के साथ बातें कम होतीं गयीं ! शादी के तीन साल के भीतर दो बच्चे, बीमार पर खुशमिज़ाज़ ससुर, तेज़ ननदें, अजीब सास, आवारा देवर ! पर सलोनी 'खुश' थी ! जन्मदिन पर, नए साल पर, दीवाली पर उसका मैसेज आता ही आता और शुरुआत हमेशा की तरह होती "जय श्री कृष्ण शानू भैया"  ... 

.. 
.. 

आज सलोनी नहीं है !

लोग कह रहे हैं उसको ज़हर देकर मार दिया !

लोग कह रहे हैं उसने खुद ज़हर खा लिया !


Tuesday 20 December 2022

We, the wanderers!

Reminiscences from my diary

Dec 20, 2022
Tuesday, 0900 pm
GEIMS, Dehradun


हम हमेशा फक्कड़ ही रहे  ... निरे फक्कड़  ... थोड़े अजीब, थोड़े गरीब, और बहुत हद तक अजीबोगरीब ... अपनों में अनजाने से, अनजानों में बहुत अनजाने से  ...  हम खुद को दुनिया में खोजते रहे, और दुनिया को खुद में ढूंढते रह गए ! दुनिया हमें पागल, नासमझ, अकड़ू, बद्दिमाग़, बद्तमीज़ मानती रही और हम ऐसे फक्कड़ कि सब उलाहनों से बेख़बर दुनियादारी से कोसो दूर रहे, रह गए  ... 

हम वे भाई थे जो घर से हर बार विदा होती बहन के लिए रोने के लिए कोना-भर कोना तलाशते रहे  ... हम वे बेटे बने जो दूर होने पर अपनी माओं को बेहिसाब याद करते, पर पास रहते हुए चुप्पियों में दिन भर गुज़ार देते  ...  हम उन दुकानों के खरीदार बने जिन्हें मोहल्ले की कोई विधवा या पढ़ाई छोड़ चुका कोई लड़का चलाता और हम चुपचाप चोर नज़र से उनके सफ़ेद होते बाल, थकती कमर  देखते  ... हम चाहकर भी बड़ी पार्टियों का हिस्सा नहीं बन पाए  ... हम बस आदतन किसी आम बेकरी की सीढ़ियों पर बैठ चाय या कॉफ़ी सुड़कते रहे  ... हम हर बार अच्छा भाई, अच्छा बेटा, अच्छे दोस्त बनते बनते रह जाते  ... जो पास होते, उनकी कद्र न करते, और जो बिसरा जाते उनके लिए टेसुएँ बहाते  ...  

अनमने से हम दिन - दिन, शाम - शाम मीलों मील चलते, अनजान गलियों, नुक्कड़ों को नापते, लोगों की बनिस्बत पेड़ों को, पेड़ों की फुनगियों को निहारते  ... रास्ते में आते मंदिरों में ध्यान लगाते, गुरद्वारों में शबद - कीर्तन संग झूमते  ... अंजुलि भर कड़ा, मुट्ठी भर गुलदाना, पत्तल भर मीठा भात चरते  ... और एक बार फिर आकाश भरी खाली आँखों से टुकुर - टुकुर किसी नए आसमान को ढूंढते निकल पड़ते  ... हम बादलों को ताकते, बारिशों का बेसब्री से इंतज़ार करते  ... घंटों मूसलाधार बरसात में तरते  ... तारों पर झूलती बूँदों को पीते  ... अपने साथ नाचते और थककर भूली - बिसरी यादों का पिटारा खोल सबकी नज़रों से ओझल कहीं ग़ुम जाते  ...  हम पहाड़ों में समंदर, और सागर किनारे बैठ हिमालय जाने के लिए मचल उठते  ... हम ऐसे ही रहे  ... अजीब! बंजारे! फक्कड़ !

कभी कभी हम हिम्मती, बहादुर भी कहे जाते  ... हो सकता है हम रहे भी हों कुछ हद तक ! दिसंबर की हवा हमारे रेशों से लड़ती और हम खुद को किसी बीस साल पुराने शॉल में लपेटे धुंध और कोहरे में चाँद ढूँढ़ते ! निदाघ की लू जब हमें प्यास से तड़पाती तो हम भी घंटों अपनी इस प्यास को बिना एक बूँद गटके तड़पाते ! इतने हिम्मती कि हम अपने सबसे अज़ीज़ दोस्तों की, हमदर्दों की, रूहदारों की सालों साल बिना एक झलक देखे जीते जाते !

हम कभी कह न पाए कि हमें हमारी हिम्मत नहीं, हमारे डर पालते  ... हम अक्सर अकेले रहते, अकेले खुश रहने का दम भरते, और उस ख़ुशी में टूटकर बेवजह घंटों रोते  ... हम एक तरफ़ यूँ तो बेसब्री से जन्मदिन की बाट जोहते, पर जब दिन उग ही आता तो हद नर्वसिया जाते, इतना कि कलेजा मुँह तक ले आते  ... हम डरते रहे किसी के करीब आने से, किसी के करीब  जाने से, किसी के सामने उधड़ने से , किसी को टटोलने से  ... हम अपनों डरों को भी ठीक से कहाँ पहचान पाए? किसी के ख़ास हो जाने पर हम एक तरफ़ ख़ुशी से बौरा जाते और साथ ही नाख़ास होने के बहाने ढूँढ़ते ... हम इतने नाज़ुक रहे कि गुलमोहर सिर पर गिरे तो घबरा उठते, हथेली में हरसिंगार टूट जाए तो सकुचा जाते, और तो और टूटता तारा देख आँख बंद कर लेते और कभी तारे की ही सलामती की मन्नत माँगते  ... 

किताबों में, किताबघरों में खुद को तलाशते फिरते ! उनसे हिम्मत बटोरते रहे  .. उनसे डर बाँटते रहे ! निर्मल को पढ़ते - पढ़ते हम निर्मल जैसे हो जाते, अमृता की पीड़ पर रो पढ़ते , तस्लीमा की नज़्मों को सीने से चिपकाये घंटों छत ताकते , रिल्के का एकांत साझा करते, शफ़ाक़ के साथ शम्ज़ की कब्र तलाशते  ...  किताबों को ईश्वर से ज़्यादा पूजते रहे  ...साँझ की दीया - बाती पर किताबों को ईश्वर से पहले धुनी देते रहे  ... 

हम ऐसे फक्कड़ रहे जो अपने बचपन को मकड़जालों से छुड़ाते - छुड़ाते जवानी से पहले जवान हो गए  ... बाल पकने पर, अक्स पकने पर हम झल्लाए नहीं,  हमने शीशों से साँठ -गाँठ की  ... अब हमसे कोई हमारी उम्र पूछता तो हम पहले मुस्कुराते और फिर खुद को अधेड़ बताते  ... हमने वक़्त के क़ायदों - कवायदों के साथ नहीं,  उसकी बेतरतीबी के साथ इश्क़ किया ! 

हम फक्कड़ ऐसे ही जुगनुओं-से जलते रहे, बुझते रहे ... बुझते रहे, जलते रहे  ... अपनी ही आँच से अपनी साँस सींचते रहे  ... अपना पागलपन सँभालते - संभालते अपने ही बीहड़ों में ग़ुम रहे  ... मौसम - मौसम पिघले और फिर  ... बस फिर  ... रीत गए  ... !


Thursday 17 November 2022

You never return as you had left

Reminiscences from my diary

Nov 17, 2022
Thursday, 11:15 pm
Murugeshpalya, Bangalore


यह कितनी अजीब बात है न ... कि एक दिन आप अचानक एक अनजान रूह के लिए कुछ नहीं से सब कुछ हो जाते हैं और फिर अचानक से ही उस अमुक व्यक्ति के लिए आप सब कुछ से बहुत कुछ, फिर थोड़ा कुछ होते होते 'कुछ नहीं' (कुछ भी नहीं) हो जाते हैं !

यह प्रक्रिया बिना आवाज़ होती है, और इतनी अकस्मात् होती है कि आप बस बूझते रह जाते हैं कि अरे!! यह क्या कब क्यों कैसे हुआ ? ऐसा भी होता है, या हो सकता है भला ? जैसे कोई आपका रूहदार आपकी उँगली पकड़ ज़िद करके सीधे - सादे गाँव से एक महानगर ले आया हो और एक कोलाहल भरे अस्त - व्यस्त चौराहे पर आपका हाथ छोड़ गायब हो गया हो  ...  बिलकुल गायब  ...  जैसे कभी था ही नहीं  ... और आप ?? आप एकदम सुन्न  .. बदहवास  ... पत्थर ! पथराई आँखें ! पथराई साँसें ! आपके चारों ओर शोर ही शोर ! लोग देख रहे हैं, हँस  रहे हैं, चिल्ला रहे  हैं, गालियाँ दे रहे हैं, तरस खा रहे हैं, धक्का दे दे आगे बढ़ रहे हैं  ... 

और जब कभी आप होश में आते हैं (यदि आ पाए तो !) तो खुद को समझाने की कोशिश करते हैं कि ठीक ही तो है! जहाँ से साहचर्य की यात्रा आरम्भ हुई थी, वहीँ पर वापिस आ गए  ... कि यही तो जीवन - चक्र है  ... वगैरह वगैरह  ... ! पर माफ़ कीजिये ! मैं इस तर्क से सहमत नहीं हो पाता ! आप इसे चक्र कह ही नहीं सकते ! चक्र तो एक वृत्त होता है, हर बिंदु एक समान! पर आप चाहकर भी एक अनजान व्यक्ति को फिर से अजनबी नहीं बना सकते ! किसी बहुत अपने के लिए, किसी हमदर्द के लिए 'कुछ नहीं' हो जाने की पीड़ अजर होती है ! आप शिव भी नहीं जो इस पीड़ा का गरल सरलता से पी जाएँ ! 

आप जब लौटते हैं, या यूँ कहिये कि जब आपको लौटाया जाता है तो पहले जैसा कुछ नहीं रह जाता ! आपके अंदर सब कुछ बदल जाता है, टूट जाता है, छूट जाता है ! आप आकाश से भर जाते हैं ! आप चाहकर भी हँस नहीं पाते ! आप न चाहते हुए भी रो नहीं पाते ! आप समय को कोसते हैं ! समय आपको कोसता है ! पर आप चाहकर भी उस व्यक्ति को कोस नहीं पाते जिसने कभी अपनी लकीरों को आपके इर्द - गिर्द बुनना शुरू किया था और फिर अचानक से ही सारा ताम - झाम समेट उन्हें मिटा दिया !

बेचारे आप !

आपकी साँसें तो उन्हीं लकीरों में अटकी रह गयीं थीं !

वापसी में आती है बिन श्वास की एक जीवित काया  ... 

नहीं  ... जीवित नहीं  ... 

वापसी में आती है बिन श्वास की एक अधमरी काया  ... 


Saturday 29 October 2022

Being stubborn

Reminiscences from my diary


Oct 30, 2022
Sunday, 03.20 am
Delhi


दो अल्हड़ मन
दो अल्हड़ ज़िदें

एक ज़िद ज़िद न करने की
एक ज़िद यह ज़िद न मानने की

हो यूँ जाता है फिर कि -
पास, या बहुत पास
होते हुए भी
दूरियाँ
घट नहीं पातीं

सुनो, यह तो बताओ,
ज़िदों की इस पसोपेश में
कौन और क्या बीतता है? 

वक़्त,
उम्र
या
दो अल्हड़ मन?

Thursday 1 September 2022

An open invitation


Reminiscences from my diary

Thursday, Sep 01, 2022
09:15 pm
Murugeshpalya, Bangalore


सुनिए !

हताशाओं के उत्सव में 
आप सादर आमंत्रित हैं !

कार्यक्रम की कुछ प्रमुख कड़ियाँ इस प्रकार हैं -

विरह - श्लोकों के मध्य दीप - प्रज्ज्वलन 
***
प्रतीक्षाओं का हास 
***
आकांक्षाओं का दाह 
***
अपेक्षाओं का विसर्जन  
***
उपालम्भों का वाद 
***
अपूर्णताओं की प्रदर्शनी 
***
एकांत का नृत्य 
***
और 
रूदाली स्मृतियों से
पटाक्षेप !
***

यदि आप जीवन और मृत्यु में भेद नहीं रखते हैं 
और न ही भेद मानते हैं मृत्यु और मोक्ष में 
तो 
निमंत्रण 
सविनय 
स्वीकार
करें !

Sunday 28 August 2022

The thread of longing

Reminiscences from my diary

Sunday, Aug 28, 2022
0915 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पता है -
एक डोर है, जिसका एक छोर 
मेरी कलाई पर बँधा है कहीं, शायद 
या शायद 
मेरे पाँव पर
हो सकता है यूँ भी कि 
मेरी साँस की नली के पास हो 
इसकी गाँठ 
खैर 
इससे अंतर नहीं पड़ता कि कहाँ है 
पर है 
कहीं तो है !

दूसरा छोर कहाँ है ?
इस पृथ्वी पर कहीं 
या मेरे हिस्से के आकाश में 
या आकाश गंगा में कहीं 
या उसके भी पार 
किसी और सूरज 
किसी और चन्द्रमा 
किसी और नक्षत्र पर ?
मैं नहीं जानता 
मैं जान ही नहीं पाया !
लेकिन है
इस छोर की ही तरह 
दूसरा छोर भी कहीं तो है !

पता है 
लोग हँसते है 
हैरान होते हैं 
पूछते भी हैं कि कैसा धागा ?
अगर धागा होता तो दिखता !
दिखाओ, कहाँ है धागा ?
अब उन्हें मैं क्या बताऊँ !
इतनी महीन डोर
जिसे मैं खुद ही नहीं बूझ पाया हूँ 
उन्हें क्या ही और कैसे ही दिखाऊँ !

कसक का तार
तड़प का तार 
तार-तार भी हो जाये 
तो भी  दिखता थोड़े ही है !
बस होता है !
होता तो है !
न जाने कितने जन्मों, कितनी योनियों से 
मुझे बाँधे है !

कसक 
कैसी कसक 
किसके लिए 
कोई शै 
कोई चेहरा 
कोई जगह 
कोई घर 
कोई अतीत 
कोई सुख 
कोई दुःख 
मैं नहीं जान पाया हूँ !

पता है 
यह धागा, यकायक 
कभी भी, कहीं भी खिंच जाता है 
और जब - जब खिंचता है न 
ब्रह्माण्ड के सभी प्रेतों की कसम खाकर कहता हूँ 
ऐसी पीड़ उठती है जैसे किसी ने 
रोम-रोम से रिसती पीज पर 
समुद्र का सारा नमक रगड़ दिया हो 
जैसे दंश बुझे सहस्त्र बाणों ने
पूरा शरीर बेंध दिया हो !
मेरी एक-एक रात
कई कई नींदें निगल जाती है 
मेरा एक-एक दिन 
कई कई पहर लम्बा हो जाता है!

इस जकड़न का 
इस भटकन का 
कहीं कोई माप नहीं !
सोचता हूँ 
क्या उस पार भी 
इतनी ही टीस उठती होगी ?
खैर 
चेतना के धागे तो इसे नहीं काट पाए 
क्या एक बार मृत्यु पर भी विश्वास करना चाहिए ?


Tuesday 7 June 2022

Parizaad

Reminiscences from my diary

June 07, 2022
Tuesday 10:20 pm
Murugeshpalya, Bangalore


परीज़ाद! परीज़ाद! परीज़ाद!

कब से सोच रहा हूँ कि तुम्हारे लिए कुछ लिखूँ, कोशिश करूँ एक कविता की, या फिर ग़ज़ल, और कुछ नहीं तो, कमस-कम एक खत ही सही! पर तुम्हारी ख़ुमारी इस कदर सिर चढ़ी हुई है कि हर कोशिश बेज़ार, अधूरी लगती है!

खैर ... 

सबसे पहले तो तुम्हारा होने के लिए शुक्रिया, परीज़ाद!
फिर 
तुम्हारा तुम, सिर्फ़ तुम होने के लिए शुक्रिया!

जानता हूँ कि तुम अब भी नहीं मानोगे, पर तुम्हारा नाम वाकई में बेहद खूबसूरत है परीज़ाद! यूँ भी तुम्हारा नाम रखते हुए तुमने अपनी अम्मी की आँखें नहीं देखीं थीं, मैंने देखीं थीं! पानी और चमक से भरी! तुम्हारी अम्मी को शायद परियों के उस देश का पता मालूम था जहाँ से तुम उतरे हो! हाँ! तुम सच में ही किसी अनोखे देश से आए हो, परीज़ाद!

मेरे एक अज़ीज़ उस्ताद हैं विष्णु सर। वह काफ़ी समय से एक कविता जैसा कुछ बुन रहे हैं जिसका उन्वान है - अधेड़ उम्र के लड़के! वह कहते हैं कि इस नाम से उन्हें मेरी याद आती है, मैं कहता हूँ तुमसे ज़्यादा खूबसूरती और संज़ीदगी से कौन ही इसे इंतिख़ाब कर पायेगा! 

परीज़ाद, तुम्हें जानने के सिलसिलों में मुझे कई मर्तबा लगा है कि तुम्हारी रूह का कोई जुगनू ज़रूर किसी ज़माने कोन्या या इस्तांबुल की गलियों में भटका है। शफ़ाक़ की नज़र से जब मोहब्बत को समझने की कोशिश की थी, तब माना नहीं था कि रूमी या रूमी के शम्स के अलावा कोई कभी मुतलक़ सादगी और बेशर्त इश्क़ कर सकता है, या फिर अज़ीज़ और एला जैसे लोग किताबों के बाहर भी साँस ले सकते हैं। मुझे गलत साबित करने के लिए शुक्रिया, परीज़ाद। कुदरत का किया सही - सही किसने जाना ! क्या पता, तुम, मौलाना, शम्स,  एला, अज़ीज़ सब एक ही रूह हों !

फ़िक्र न करो, परीज़ाद ! मैं तुम्हें खुदा के तख़्त पर नहीं बिठा रहा ! मैं बस इतना कह रहा हूँ कि तुम होना अजूबे से कम नहीं।  हालाँकि मुझे वह वक़्त भी याद है जब तुम भी प्यार में, चंद लम्हात ही सही, पर ख़ुदग़र्ज़ बन बैठे थे और अपने रक़ीब को मारने पर आमादा हो गए थे ! मैं हैरान, परेशान यह सोचकर कि तुम भी ? तुम तो बिना शर्त, बिना जताये सुफ़ियाना इश्क़ वाले बशर थे ! मेरा दिल बेहद घबराया था और भरोसे का प्याला हाथ से छूट गया था लेकिन इसे तुम्हारे नाम का करिश्मा ही कहूँगा कि प्याला हाथ से छूटा ज़रूर, पर टूटा नहीं ! आखिर कमज़ोर लम्हे तो हर एक के हिस्से में कभी न कभी आते ही हैं - फिर चाहे मौलाना हों, एला हो, या हो तुम, परीज़ाद !

ख़ुसरो ने अपनी रुबाइयों में अधूरे इश्क़ की पीर का भी शुक्राना अदा करने को सबसे खूबसूरत जज़्बा कहा है।  तुम पहले इंसान हो जिसे मैंने यह अमल करते देखा है। पलक झपकते ही गहरी से गहरी चोट देने वाले की झोली में माफ़ी और शुक्राना देना कौन दुनिया से सीख कर आये, परीज़ाद? तुम्हारी एक - एक माफ़ी पर सौ - सौ बार बलिहारी हुआ मैं। और उन लोगों की फेहरिस्त जिन्हें तुमने माफ़ किया, सोचता हूँ कि क्या वे सब ताउम्र तुम्हारी या तुम्हारी माफ़ी की कद्र करेंगे? 

ख़ैर  ... क्या ही फ़र्क पड़ता है तुम्हें ! तुमने तो यूँ भी अपने अंदर हर आह, हर तड़प, हर उन्स को बहुत सलीके से दफ़न किया हुआ है! और शायद इसीलिए, तुम्हारा दिल ताज महल से कई गुना ज़्यादा सुन्दर कब्र है!

बेहद सुकून मिला है तुमसे मिलकर, परीज़ाद! बेहद सुकून! तुम्हें देखकर हिम्मत बँधी है, तुमसे सीखने की कोशिश की है कि कितनी सादगी से, शालीनता से प्रेम से उपजी पीड़ा को सिर - माथे रख जिया जाता है  ... कि कैसे उस कसक से फूल खिलाये जाते हैं  ... कि कैसे किसी भी डगर पर दोस्त बनाए जाते हैं  ... कि कैसे दिल पर पत्थर रख उन्हीं दोस्तों से फिर बिछड़ कर आगे बड़ा जाता है  ... कि कैसे उस बिछड़न को अपना हमसफ़र बनाया जाता है  ... कि कैसे दौलत को हाथ की धूल समझा जाता है  ... कि कैसे खुद को औरों के लिए न्योछावर किया जाता है  ... कि कैसे हर किसी से हँस बोलकर भी अपना एकांत सहेजा जाता है  ... कि कैसे और क्यों  सिर्फ़ अपने एकांत, अपनी इज़लात पर ही बार बार लौटा जाता है  ... कि कैसे खुद को हर्फ़ के हवाले किया जाता है  ... कि कैसे उन्हीं हर्फों से जीने के लिए साँस सींची जाती है  ... कि कैसे दुनिया और दुनियावालों की रुस्वाइयों से थककर कुदरत की ओर रुख किया जाता है ! 

अरे हाँ! कुदरत से याद आया - मैं तो बौरा ही गया यह देखकर कि आम ज़िन्दगी की मशक्क़तों और अपनों की मसरूफ़ियतों से थक - हार आखिरकार तुमने भी पहाड़ों को और पहाड़ों ने तुम्हें अपनाया, और वह भी शिद्दत से! तुम्हें एक राज़ की बात बताता हूँ - मैं भी उसी रास्ते पर हूँ ! और वक़्त का क्या पता, परीज़ाद ! काश कभी यूँ हो कि हिमालय या हिन्दुकुश के किसी बर्फ़ीले कोह की पगडण्डी पर टहलते - टहलते,  कायनात की बेतरतीबियों पर मुस्कुराते - मुस्कुराते, कोई कविता या गीत गुनगुनाते - गुनगुनाते तुमसे अचानक मुलाक़ात हो ही जाए!



Saturday 4 June 2022

Mahashivratri

Reminiscences from my diary

June 04, 2022
Saturday, 0700 pm
Murugeshpalya, Bangalore

वसंत 
भोर  
रिमझिम 
कलरव 

निर्जनता 
आत्मीयता 
ठिठौली 
पग - पग 

दीपक
बेलपत्र 
रुद्राक्ष 
क्षीर 

आरती 
अर्पण 
कृतज्ञता 
मृत्युंजय 

तुम 


Sunday 29 May 2022

Algae


Reminiscences from my diary

May 29, 2022
Sunday, 20:00 hrs
Murugeshpalya, Bangalore


सोचो ज़रा 

कहीं किसी बियाबान 
कल्पों पुराना मंदिर 
उसके खंडहरों के अंदर 
मकड़जाल सना गर्भगृह
वहाँ 
शिव की खंडित प्रतिमा ताकता 
जंगली फूलों की गमक लिए 
हरेपन से सहमा 
बेबस 
कैद 
मायूस 
एक तालाब!

तालाब के ऊपर 
अंदर 
हर कोने - किनारे पर 
मुंडेर - मुंडेर
सतह - सतह  
सूखी - गीली 
गीली - सूखी 
काई 
जमी काई 
तैरती काई 
काई के ऊपर काई 
परतों परत काई 
सिर्फ़ काई!

अब सुनो ज़रा 

समय स्मृतियों को नहीं निगलता!
स्मृतियाँ समय को निगल जाती हैं!


Sunday 1 May 2022

Nobody stays here

Reminiscences from my diary

May 01, 2022
Murugeshpalya, Bangalore
0800 PM


तुमने कहा कि तुम यहीं हो
पर मुझे लगता है कि 
तुम्हें
महज़ ऐसा लगता है कि 
तुम यहीं हो 
पर 
दरअसल 
तुम यहाँ नहीं हो 

यहाँ कोई नहीं है 
कोई 
भी 
नहीं 
मैं भी हूँ या नहीं 
पता नहीं 

बस 
कुछ बेतरतीबियाँ हैं 
कुछ बेचैनियाँ हैं 
कुछ आवारगियाँ हैं 
कुछ खुशबुएँ हैं 

जो 
धरती - धरती 
गगन - गगन 
काया - काया 
भटक रहीं हैं 
न जल पाती हैं
न गल पाती हैं 
न बह पाती हैं
न सह पाती हैं 

बस हैं 
रहेंगी 

न जाने किस रास्ते 
यहाँ 
आ पहुंची हैं 
और अब 
बस 
यहीं
हैं 

सुनो 

कभी अगर 
तुम्हें 
तुम्हारी बेचैनियाँ 
बहुत परेशान करें 
और 
तुम्हें 
निजात पानी हो उनसे 
तो उन्हें 
यहाँ का पता 
दे देना 

इस चौखट पर 
तुम्हारी भटकन को भी 
हमेशा के लिए 
पनाह मिल जाएगी 


Monday 18 April 2022

No, I won't give this any title! 


Reminiscences from my diary

April 18/19, 2022
Arthur's seat, Edinburgh/
Train from. Edinburgh to London

0200 pm/ 0100 am


मैं जब भी कभी कहीं जाता हूँ तो अक्सर ही सोचा करता हूँ, चाहा करता हूँ कि जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ से कभी लौट न पाऊँ, वहीं कहीं बेशक्ल बेनाम गुमनाम हो जाऊँ। जानता हूँ कि यह बात तर्कहीन लग सकती है, और शायद है भी लेकिन ऐसा सोचना, ऐसा चाहना मेरे बस में नहीं! शहर हो, गाँव हो, देश हो, विदेश हो, पहाड़ हो, समुद्र हो - बात जगहों की सूची की नहीं, उस हलचल, या फिर उस तटस्थता की है जो मेरे साथ रहती है ! कितनी तसल्ली से कोई भी जगह मुझे, और मैं किसी भी जगह को अपना लेता हूँ! यूँ भी एकांतवास का मानचित्र पर कोई बिंदु नहीं होता! 

एक छोटा सा पर पूरा खिला हुआ चटक पीला फूल बयार के हर हिलोरे के साथ मेरे पाँव को छू रहा है। उस पर बैठी मधुमक्खी बेहद इत्मीनान से यहाँ की धूप सेंक रही है। चारों ओर हरी लंबी घास - बिल्कुल हरी - और पता नहीं, कहाँ कब कैसे खिला यह पीला फूल... 

इस सफ़र से पहले एक बार भी वैसा नहीं सोचा जैसा अमूनन सोचा करता हूँ। इस ख़्याल ने एक बार भी हवाला नहीं किया कि मैं यहाँ से न जाऊँ! बल्कि एक एक साँस ऐसे ली है जैसे किसी साहूकार का मोटा कर्ज़ मोटे ब्याज़ के साथ चुकाना है। एक खिन्नता है ... एक डर है ... एक टीस है ... एक चीख है जो निकल नहीं पाती ... एक आँसू है जो लुढ़क नहीं पाता ... एक चेहरा है जो दिख नहीं पाता ... एक पता है जो मिल नहीं पाता ... एक याद है जो मरती नहीं ... एक साँस है जो जीती नहीं ... 

तीन तरह के पेड़ों के झुँड हैं आँखों के ठीक सामने! पहले झुँड ठूँठों का है - नीचे से ऊपर तक दिशाओं को ओढ़े हुए - एक भी पत्ता नहीं, पर फिर भी शायद उम्मीद का हरापन समेटे ! इनके बराबर में कम लंबाई के चार पाँच पेड़ों का एक झुरमुट है - बेहद हरा रंग - आँखों को सुकून देता सावन सा हरा। फूल शायद नहीं हैं पर खूब भरे भरे! फिर ज़रा से कोण पर तीसरा समूह उनका जिन पर सफ़ेद फूलों के गुच्छे लदे हुए हैं - एक एक पेड़ पर सैकड़ों सैकड़ों गुच्छे - लेकिन मज़े की बात यह है कि हरी पत्ती शायद ही कोई  ... प्रकृति सा विरला कोई नहीं, ईश्वर भी नहीं! 

यहाँ से दूर भले ही कभी कभार भूल जाऊँ या भुला दूँ पर यहाँ होते हुए कैसे न याद करूँ कि कैसे इस जगह, इस मिट्टी ने लम्हा लम्हा बरस बरस बुनी मेरी रूहदारी को रातोंरात निगल लिया था, और मेरे हिस्से के ब्रह्मांड को तार तार कर दिया था! मैं कब से रेशा रेशा जोड़कर अपना मकड़जाल बुनने की कोशिश कर रहा हूँ ! हर बार कोई न कोई सफाई के बहाने आता है और एक ही झटके में ... पहले मैं धम्म से ज़मीन पर गिरता हूँ, और फिर कोई कोना, कोई सहारा, या फिर खुद ही एक बार फिर अपने में रम जाता हूँ! जब कभी थककर सुस्ताने बैठता हूँ तो कोई भी कभी भी कुचल कर चला जाता है! पर कभी भी पूरी तरह मेरा दम निकल नहीं पाता! 

मैं जिस पहाड़ी की ओर पीठ कर के बैठा हूँ, उसपर अनगिनत फूल खिले हैं पीले रंग के! पीला शायद यहाँ की मिट्टी का सबसे पसंदीदा रंग है! हर दरीचे से कम से कम एक पीला फूल झाँक रहा है! कुछ लोग सबसे ऊपर जाने के लिए रास्ता खोज रहे हैं, बना रहे हैं। लोग दोस्तों के साथ हैं, परिवारों के साथ हैं! इतने फूल देख कर मैं हैरान हूँ - कच्चे पक्के रास्तों के दोनों ओर, पत्थरों की ओट में, यहाँ वहाँ पड़ी दरारों में, पहाड़ी के ऊपर भी! पर पर पर - जितने फूल खिले हुए हैं, उनसे दो या तीन गुना काँटे भी हैं ! 

मेरी कमर तुम्हारा भार ढोते ढोते टूटती जा रही है! काश यहाँ भी कोई गंगा होती! सभी स्मृतियों की पोटली बना पहले मैं यहाँ की गंगा किनारे किसी मसान में भस्मीभूत करता और फिर बची अस्थियों को भी साथ साथ बहा देता। यूँ करो कि या तो मुझे अपने पास, अपने साथ दो गज़ ज़मीन दो या फिर मेरी रूह को अपनी शम्सियत से हमेशा के लिए आज़ादी  ... 

मुझे वापिस जाना है 
मुझे वापिस यहाँ नहीं आना है! 




Wednesday 6 April 2022

One last blessing

Reminiscences from my diary

Apr 07, 2022
Thursday 0145 am
Murugeshpalya, Bangalore


मेरी स्मृतियाँ
समय - समय
नगर - नगर
चलते - चलते
चलते 
चलते
थक गई हैं 
इतना
कि
उनके पाँवों पर
अब
छाले - छाले
उग आए हैं
एड़ियों की बिवाइयों से
अतीत
रिसता - रिसता
जम गया है
एक और पग भी
इनके लिए चलना
दूभर 
हो गया है  

हे ब्रह्मांड की समस्त आत्माओं
सुनो - सुनो
सुनो ! 
मेरी इन 
लहूलुहान स्मृतियों को
सदा - सदा के लिए 
अपंग होने का
एक अंतिम वरदान दो ! 









Thursday 31 March 2022

Broken! 


Reminiscences from my diary

Mar 31, 2022
Thu, 1140 pm
Murugeshpalya, Bangalore


तार-तार होने के लिए
तार
तार
होना
ज़रूरी नहीं ! 

एक महीन 
बहुत महीन तरेड़ भी
आपकी 
नियति
हो सकती है ! 


Tuesday 29 March 2022

The Pariah Wanderings! 

Reminiscences from my diary

Mar 29, 2022
Wed, 0010 hrs
Murugeshpalya, Bangalore


क्षितिज से लुढ़का आँसू
न आँख भर पाता है
न 
ही 
मन ! 

कभी-कभी, सैकड़ों में से 
एक आधी भटकन
जन्मजात -
अघोरी
होती 
है ! 

Monday 28 March 2022

Inanimate! 


Reminiscences from my diary

March 29, 2022
Tue, 0015 hrs
Murugeshpalya, Bangalore


मेरी कविताओं की नींव में 
शून्य था जो -
उसने 
निगल लिया है 
ईश्वर! 

अब सब जड़ है! 
मैं भी! 
मेरी कविताएँ भी! 

Sunday 6 March 2022

Yet another splendid time with The Himalayas!

Reminiscences from my diary

March 06, 2022
Sunday 0700 p,m
Nainital Lake

आज शाम भी वही रास्ता लिया जो पिछले एक सप्ताह से अपना रहा हूँ। वही पहर, वही होटल, वही होटल से लुढ़कती ढलान, ढलान से कटता बड़ा-बाज़ार, उसका ऊबड़ - खाबड़ संकरा रास्ता, उस रस्ते के दोनों ओर हर तरह की दुकानें, उन छोटी-छोटी दुकानों की अजीब - सी मासूमियत, बीचों-बीच पसरे वही पहाड़ी झबरीले कुत्ते, बाज़ार झाँकते पहाड़ों की टोलियाँ और उन पर उगे लम्बे-लम्बे चीड़ और देवदार ! और फिर बड़ा - बाज़ार कब मॉल रोड में मिल जाता है, न मुझे पता चलता है न ही बड़े - बाज़ार की गलियों को !

ख़ैर ... 

मैं कह रहा था कि आज भी वैसी ही ठिठुरती शाम और वैसी ही शॉल में लिपटी दिनचर्या। पर अंतर भी था एक ! आज पूरे रास्ते आँखें बड़ी कर कर के चलता रहा। हाँ ! हास्यास्पद लग सकता है पर ऐसा ही हुआ। मैं शायद कोशिश कर रहा था कि जाने से पहले आँखों के आगे पसरा सारा हिमालय इनमें समेट लूँ !  यह लिखते हुए भी मैं खुद को खुद पर मुस्कराने से रोक नहीं पा रहा हूँ।  ऐसा भी होता है भला ?! ऐसा होता 'गर तो आँखें महज़ कविताओं में ही नहीं, सच में ही कलेइडोस्कोप होतीं !

ख़ैर ... 

कितनी ही बार बीच - बीच में रुक रुककर  एकटक ताकता रहा दूर तक फैले चीड़ों को और उन पर चमचमाती गोधूलि की लालिमा को। सौंदर्य का, या यूँ कहूँ, नैसर्गिक सौंदर्य का अनूठा उदाहरण हैं मेरे लिए - साँझ की जाती धूप में नहाये हिमालय के जंगली चीड़। और जो इन्हें सुन्दर न माने, उसकी आँखें आँखें नहीं, दो कौड़ी के काले पत्थर !

कानों में इयरफोन लगाए अपने अंदर उतरा मैं कितने इत्मीनान से झील के किनारे चलता रहा पर बड़ी - बड़ी आँखों के साथ मानो हिमालय ही नहीं , नैनी का पानी भी अपनी आँखों में समेटना चाहूँ (हालांकि अगर ऐसा कभी हुआ भी तो कई जन्म लग जायेंगे आँखों से कचरा निकालते - निकालते)! सूरज ढलते - ढलते जब झील के उस पार एक के बाद एक रंग - बिरंगी रोशनियाँ जलने लगीं और उन सब रोशनियों की रंगीन परछाइयाँ पानी में मचलने लगीं तो कुछ ऐसा दृश्य मेरे सामने आया जिसे हर शाम एकटक देखने के लिए मैं कुछ भी कर जाऊँ !

जुनूनियत है या सुंकूनियत - मैं नहीं जानता ! पर कुछ तो है कि मैं कहीं भी आऊँ , कहीं भी जाऊँ, मन का एक टुकड़ा यहीं अटका रहता है।  क्या पता किसी पिछले जन्म में मैं कोई चीड़ ही था यहीं कहीं किसी ढलान पर उगा हुआ !

ख़ैर ...  

कॉफ़ी पीने की हल्की -हल्की तलब लग रही है।  उँगलियाँ भी सुन्न पड़ने लगी हैं।  पर मन है कि यहाँ से उठने को कर ही नहीं रहा है। बीच - बीच में ये बड़ी आँखें भर भी आती हैं पर सोचने पर भी नहीं बूझ पाता कोई कारण ! क्या स्मृतियों का परिताप है जो दस्तक दे रहा है ? या तो इतने ख़्याल हैं कि मैं बूझ नहीं पाता कौन सा अमुक ख़्याल मुझे चुभ रहा है, या फिर कुछ भी नहीं ! आसमान का काला पहाड़ों के हरे पर छितरा गया है। मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ पर मेरे अक्खर-अक्खर माझी अपनी नाव के साथ लिए जा रहा है ! मैं एक बार फिर जा रहा हूँ कई कई बार लौटने के लिए  ... 


Friday 4 February 2022

Hugs

Reminiscences from my diary

Feb 05, 2022
Vasant Panchmi
Bangalore airport


तुम्हारा 
बेहद इत्मिनान से
गले लगाना
और कुछ देर
गले लगाए रखना
मुझे बेहिसाब सुकून देता है! 

कुछ ऐसा-सा सुकून 
जो
दिसंबर की मनाली में
चीड़ के ऊपर टंके
पूरे चाँद को देखते हुए
अलाव सेकने पर मिले! 

उन चंद पलों में बुनी हुई
गर्माहट
मुझे 
काफ़ी वक़्त तक 
हर तरह की 
ठिठुरन से
बचाये रखती है!