Monday 22 April 2019

Salvation from the colors!

Reminiscences from my diary

Apr 22, 2019
Monday, 10:00 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पता है तुम्हें ? घर के सामने जाती, या सामने से आती गली में करीब आठ से दस पेड़ हैं।  पर गली को सही मायनों में रंगीन बनाने का दायित्व उनमें से दो पर है - कनेर और गुलमोहर  ... पीला कनेर और केसरी गुलमोहर ... गुलमोहर के सामने कनेर और  कनेर के सामने गलमोहर  ... छोटा कनेर और छोटे से थोड़ा बड़ा गुलमोहर !

कब वसंत बीता, कब निदाघ ने सहसा प्रहार किया, पता ही नहीं चला ! यूँ भी बड़े शहरों की चकाचौंध में मौसम जैसी छोटी बातों पर अमूनन ध्यान नहीं जाता ! इन दिनों बाज़ार में अफ़रा - तफ़री है कि सावन चौखट लाँघने ही वाला है ! शायद, इसी लिए शामें सुन्दर हो चली हैं।  सूरज की पिघलती सिन्दूरी और बालों को सहलाती बयार आजकल गोधूलि का शृंगार करती हैं।  लेकिन, मेरी शामों की सुंदरता की इकाई में असंख्य शून्य जड़ जाते हैं पीले कनेर और केसरी गुलमोहर के गलीचे !

जब भी कभी एक हाथ से गिरे कनेर को और दूसरे से गुलमोहर के फूल को उठाता हूँ तो एक पल लगता है मानो ईश्वर की सर्वाधिक सुन्दर कृतियों में से दो मेरे हाथों में है  ... मानो मेरे नाखूनों के पास की कोशिकाओं को कुछ पीला, कुछ लाल करने के लिए ही ये फूल ज़मीन पर गिरे हैं  ... मानो अगर मैं शिव की ग्रीवा से वंचित इन फूलों का स्पर्श न करूँ तो मेरे दिन को कैवल्य न मिले ! और जब - जब इन फूलों को उठाता हूँ और उठाने के बाद ऊपर फैली शाखाओं को देखता हूँ तो बूझने लग जाता हूँ उस शाखा को जिसने इनको खुद से अलग कर दिया !

... और तब, तब एक गवाक्ष खुलता है  ...  मस्तिष्क में या हृदय में, पता नहीं  ... जहाँ से मैं खोजने लग जाता हूँ निस्संगता को, निस्संगता के अर्थ को, शाब्दिक अर्थ को, व्यावहारिक अर्थ को  ... और कब निस्संगता के दर्शन का ताना - बाना मेरी श्वास पर हावी होने लग जाता है, मैं जान नहीं पाता !

खैर, दम घुटने की लत सी लग गयी है, तुम तो जानते ही हो ! वैसे एक बात और जान लो  ...

... कुछ समय बाद ही मुझे ये फूल अच्छे नहीं लगते, सुन्दर नहीं लगते ! घर आकर जब यह पीला और यह लाल- सा रंग अपनी उँगलियों से छुड़ाने के लिए पानी का सहारा लेता हूँ, तो कुछ कोशिश, कुछ समय लगता है रंग को पानी में घुलने में... कुछ समय लगता है रंग को मेरे हाथ से छूटने में...

... और उस कुछ समय के अंतराल में मुझे वे गुलमोहर कौंधा जाते हैं जो तुमने मेरी हथेलियों पर मसले थे ! जानता हूँ और मानता भी हूँ कि बीहड़ों में फूलों के अंजुमन की एक झलक भी भगीरथ को मिली मुक्ति - सी होती है ! पर अंततः बीहड़ बीहड़ होता है ! अपने रंगों को निगलने का श्राप है उस पर !

सुनो... !

तुम भी इस श्राप से डरो ! मेरी हथेलियों पर जमा तुम्हारे गुलमोहरों का रंग कांच हो चला है ! दो विकल्प देता हूँ तुम्हें - या तो अपना रंग मुझसे छुड़ा ले जाओ, अपने साथ बहा ले जाओ , या फिर मुझे मेरी हथेलियों से रिहाई दे दो !

जान लो कि तुम्हारे ऐसा करने पर ही मैं बूझ पाऊँगा उस टहनी को जहाँ से गिरा पीला कनेर या केसरी गुलमोहर मेरी उँगलियों पर खुद को हमेशा के लिए छोड़ जाता है  ... !


Monday 8 April 2019

Nainital


Reminiscences from my diary

March 17, 2019
11:30 pm
Blessings Home-stay, Nainital


कुछ किताबें हिंदी की
अंग्रेज़ी की भी, कुछ से ज़्यादा , शायद
और सामने की दीवार पर मकड़जाल ताकता
मोठे चश्मे वाला कुबड़ा मालिक !

***

पार्किंग के पास बड़ी, पुरानी मस्जिद
मस्जिद से थोड़ी आगे गुरुद्वारा
फिर कुछ और कदम आगे नैनी का प्राचीन मंदिर
और दूर से इन तीनों की कतार ताकता एक बूढ़ा भिखारी !

***

माल रोड के भव्य, पाँच सितारा - से रेस्टॉरेंट
बड़े - बड़े तवों पर सकते पनीर के पूड़े, आलू की टिक्कियाँ
गर्मागरम चाय और कॉफ़ी की मशीनें, और दूर -
पत्थर पर बैठा, मूँगफलियाँ बेचता एक भूखा मुल्लाह !

***

साँझ के फाहों से छनकर आती लाल रोशनी
पानी में तिरते दिखते चीड़
रंगीन फूलों की छोटी - बड़ी क्यारियाँ
उनसे रंगों की ही होड़ करता कूड़े का एक ढेर !

***

एक और सफ़र तुम्हारे साथ
एक और सफर तुम्हारे बिना
और हर सफर की तरह ही
अजनबी चेहरों में मिलते - खोते, खोते - मिलते तुम !

***




The Labyrinth


Reminiscences from my diary

Apr 08, 2019
11:50 pm
Murugeshpalya, Bangalore


मैं अक्सर दूर रहता हूँ
बहुत अजनबियों से ही नहीं
बहुत अपनों से भी !
अपेक्षाएँ दोनों को हैं या हो सकती हैं !
अपेक्षाएँ दोनों से हैं या हो सकती हैं !
एक उम्मीद से कई निराशाएँ उपज जाती हैं अक्सर !
और फिर, उम्मीदों के ताने - बाने को -
- तार - तार करते हैं -
हताशाओं के कुलाबे !

सुनो !
घने बीहड़ों में पलते घने मकड़जालों में -
कभी - कभी
साँस भी रुक जाया करती है !