Wednesday 26 September 2012

 The Eternal Quest...

 

REMINISCENCES FROM MY DIARY....

July 7, 2012

12:15 A.M., 750, IISc

 

अक्सर ,
उस अनजान शख्सियत का ,
चेहरा 
खोजने की कोशिश करता हूँ ,
जो ,
मन और मानस में फैली-
धुंध में ,
गुम - सा रहता है -
कभी गुनगुनाते लब्ज़ों में ,
किसी अधलिखी कविता में ,
खुद और खुदा से होती गुफ़्तगू में ,
या फिर ,
इस पार से उस पार को जोड़ती ,
किसी कहानी में ।

कभी - कभी 
पलंग पर लेटे - लेटे ,
आकृति में ढालने की कोशिश करता हूँ , उसे ,
दीवार पर पड़ी -
आड़ी - तिरछी दरारों में ,
या फिर, 
हवा के साथ मचलते - इठलाते -
नीले - काले बादल के टुकड़ों में ।

कभी लगता है , वह 
शायद शिवानी के किसी उपन्यास के -
- नायक - सा है ;
या फिर -
मुंशीजी के किसी -
- बेबस किरदार - सा ।

यूँ ही सहसा कभी लग जाता है ,
मानो उसने पुकारा हो -
मन मचलने लग जाता है -
क्या पता -
आवाज़ पहचान कर ,
चेहरा भी पहचान पाऊँ !
इसलिए ,
चेहरे के साथ - साथ -
आवाज़ खोजना शुरू कर देता हूँ । 

कभी लगता है ,
नवजात शिशु की किलकारी - सी है 
या फिर ,
कलकत्ते की किसी व्यस्त सड़क के -
- कोलाहल में दबी कोई एक ।
हो सकता है,
गुरद्वारे की गुरबानी में छिपी हो ;
या,
किसी घने गीले जंगल में जुगनुओं की -
-झंकार में ।

पर अंत में ,
हताश - निराश हो जाता हूँ ,
जब ढूँढते  - ढूंढते विफल हो जाता हूँ।
न आँखें कुछ खोज पाती हैं , न कान !
न चेहरा मिल पाता  है, न ही आवाज़ !
और इस तरह ,
उस मूक निराकार के साथ -
आँख मिचौनी खेलता रहता हूँ ।
कभी तो ऐसा होगा ,
जब ऐसी ही धुंध होगी ,
और, 
ढूँढने की बारी -
- " उसकी " होगी ।

  Mist...Fog....Enigma....!!

 

REMINISCENCES FROM MY DIARY....

October 17, 2010 

9 P.M., A 118, Thapar, Patiala              


(Its Dussehra today. I, Gaurav babu, Geeta, Khushboo, Alisha, Manasvi and astonishingly Sharan went on a small evening temple trip and captured some of the wonderful moments for the lifetime...)

 

समझ नहीं पा रहा हूँ ,
क्यों आज ,
चारु चन्द्र की दूधिया चांदनी 
मटमैली - सी लग रही है ...!
आज शायद बिन मौसम की धुंध चारों ओर -
- पसरी पड़ी है ....

क्या वहाँ दूर ...
दूर , ' मामा ' के आगे,
किसी काले मेघ का पहरा है ?
या फिर ,
आज शायद ,
निशा की कालिमा जीत गयी ...
.... और, हार गयीं वे उज्ज्वल रश्मियाँ !
या फिर ,
शायद मैं ही ...
...मेरी आँखें ही धुंधली - सी पड़  गयी हैं ...
क्योंकि, 
आज शायद बिन मौसम की धुंध चारों ओर -
- पसरी पड़ी है ....

हाँ ! धुंध , कुछ मटमैली - सी ...

याद आ गया अनायास ही ,
घर के बाहर ,
चबूतरे पर बैठी ,
उस  बूढ़ी पापड़ वाली का-
- फटा मटमैला आँचल ।
और,
मटमैली ओढ़नी उस नन्ही बच्ची की ,
जो मिली थी एक सफ़र में ....
हमसफ़र - सी बनी ।

सोच ही रहा था ...
कि साथ ही दस्तक दे गया ,
एक धुंधला  चेहरा ,
चेहरा उस अजनबी - से दोस्त  का ,
जो कभी अपना - सा बना गया था ,
एक पराये मुल्क में ....!

और फिर ...
पीछे - पीछे आ गयी ...
एक और परछाई ,
श्याम -  श्वेत - सी ...
श्याम ज़्यादा ,  श्वेत कम ...
परछाई उस बूढ़े की ,
जो शैशव से मेरा मित्र था,
मेरा सर्वस्व ...!

और फिर ...
कुछ ही पलों में ,
न जाने कहाँ से ,
आँखों के आगे छा गया ,
संगम की गंगा का धुंधला पानी ,
और,
पानी में तैरती एक धुंधली - सी नाव ।
न जाने कब वह नाव ले गयी मुझे ,
उसी पसरी धुंध में खोये देवदार के जंगलों में ,
जहाँ दिखाई तो दे रहा था ,
पर फिर से ,
धुंधला धुंधला - सा ...!
धुंधले - से पत्ते ...
धुंधले - से जुगनू ...
और,
धुंधली - सी उनकी जगमगाहट ....!

न,
कुछ तो है ...
कुछ तो ज़रूर ...
शायद,
मानस पटल किसी की दस्तक की 
राह देख रहा है ...
या फिर,
मन यूँ ही ,
किंकर्तव्यव विमूढ़ - सा,
अन्यमनस्क - सा होकर ,
खोना चाहता है ,
किसी ऐसे ही धुंधलके में ....

और,
शायद इसीलिए 
लग रही है आज,
शुभ्र चन्द्रिका भी ,
मटमैली - सी ...
क्योंकि, 
आज शायद बिन मौसम की धुंध चारों ओर -
- पसरी पड़ी है ....!!



Saturday 1 September 2012

THE DECEPTIONS, EXQUISITE...!

REMINISCENCES FROM MY DIARY.....

July 06, 2009
Monday, 11:05 p.m.
Hostel H, Thapar
Patiala


कुछ ताने-बाने ....कभी-कभी ,
अनसुलझे से ही रह जाते हैं!
क्यों कभी- कभी,
तारों की महफ़िल में भी
चाँद
यूँ ही तन्हा - सा रह जाता है।

सुलझते-सुलझते ही
क्यों कुछ ताने-बाने ,
बीच में ही -
उलझ से जाते हैं !
तभी तो,
झिंगुरों की झंकार में -
खुद झिंगुर ही
उलझकर रह जाता है।

तार - तार होने पर भी
क्यों कभी कभी -
एक ताना - बाना
दुसरे - से
और
दूसरा
तीसरे-से
अनायास ही जुड़ जाता है।
हाँ!
शायद  इसीलिए
आसमान में उडती
पतंगें
और,
उनकी डोर
यूँ ही -
बिना वजह -
उलझ सी जाती हैं।

और,
कभी - कभी ..
कहीं - कहीं ..
दहकती आग के बीच
कहीं-
कोई पतंगा
उड़कर भी नहीं उड़ पाता है।

वहीँ दूसरी ओर
जानकर भी -
अनजान बनता
भंवरा -
खिले - अधखिले कमलों के जाल में
खुद को
उलझा - सा जाता है।

वाकई ,
कितने अजीब होते हैं -               
कुछ जाल ..
कुछ ताने - बाने ..
कभी सुलझे - से 
और,
कभी - कभी ,
कुछ उलझे - उलझे से .....!!!














                                                           

Friday 31 August 2012

Truly, God's Own Country...!!

With Love to Kerala....!!



REMINISCENCES FROM MY DIARY.....

August 07, 2006..Thursday
11:55 P.M.

कोचीन से लौटे हुए सात दिन बीत गए हैं। रोज़ सोचता हूँ, कुछ लिखूं .....पर सोच में पड़ जाता हूँ कि कहाँ से शुरू करूँ ....

25 जुलाई ...सुबह 11:25 पर दिल्ली स्टेशन पर नयी दिल्ली- त्रिवेंद्रम केरल एक्सप्रेस आई। पहला कदम रखते ही एक सुखद रोमांच का अनुभव हुआ था .....और उस एक नए एहसास को आज भी महसूस करता हूँ तो स्पंदन की एक नवतरंग सी दौड़ जाती है मस्तिष्क से पादप तक।

दिल्ली ...फरीदाबाद ...मथुरा ...आगरा ... झाँसी ...भोपाल ...चम्बल ...घाटी ... दक्किन क्षेत्र ... नागपुर ... बल्लारशाह ...सरपुर कागज़ नगर ...वारंगल ...विजयवाडा ...बीना ...त्रिचूर ... नेल्लोर ...वेल्लोर ... ओत्तायम ... रामागुंडम ... कोएम्बतूर ... और न जाने कौन कौन से बड़े स्टेशन ....छोटे स्टेशन पड़े थे बीच में उस दो दिन के सफ़र में। 

न जाने कितने पहाड़ों के दर्शनों से मन अभीभूत हुआ था। धरित्री को शस्य-श्यामला बनती हुई पुण्यतोया यमुना , कृष्णा , गोदावरी , कावेरी आदि के नयनाभिराम दृश्यों से मन उमंगों की तरंगों में डूबने सा लगा था।

जिन भौगोलिक तत्वों को अब तक कागज़ के पन्नो पर देखा था ... पढ़ा था .... आज वे मेरे सामने हैं .... अहा ! अप्रतिम है ये एहसास ....

केरल में प्रवेश करते ही बारिश की बूंदों में भीगी शीतल पवन में फैली मदमस्त महक को नासिका ने ही नहीं ...अपितु उस द्वार के माध्यम से तन- मन ने भी सहर्ष ग्रहण किया। 

पूरे केरल में मानो हरीतिमा को अपने हरे वर्ण को विस्तृत करने का आधिपत्य मिला हुआ था। पूरे राज्य में पेरियार नदी रेल की पटरियों के साथ साथ बह रही थी ...मानो रेलगाड़ी को चुनौती देते हुए कह रही हो कि मैं भी तुमसे कम नहीं .... जलकलशों से भरे काले - सफ़ेद -नीले मेघों के अपूर्व तारतम्य को इतनी नैसर्गिकता के साथ पहले कभी नहीं देखा .......समझ नहीं आया .....मैंने पहाड़ों के बीच में बादलों को देखा था या फिर ....बादलों के बीच में स्वर्णमुकुट से पहाड़ों को परखा था .....

क्या सौंदर्य , अद्भुत  नैसर्गिक लावण्य की परिभाषा केरल की धरती को देखे बिना दी जा सकती है ? न ....... नहीं .... मैंने पहली बार प्रकृति के विभिन्न आयामों को एक साथ एकजुट होकर एक ही स्थान का श्रृंगार करते हुए देखा था। फिर चाहे वे कमल के पत्तों पर पड़ी बारिश की छमाछम बूंदों में सूर्य की रश्मियों से बन रहे इन्द्रधनुष हों .....या फिर .....एक ही कतार में खड़े साक्षात अनुशासन का अनुपम दृष्टांत बने नारियल और केले के पेड़ हों ......प्रदूषण मुक्त शीतल हवा हो ....या फिर .... मिलनसार सहायक निवासी हों ......ढलान वाली छतों से सान्ध्य-वर्षा की टपकती बूँदें हों .....या फिर ... टीन की छत पर बजता जलतरंग ......हवा और सुगंधि का मेल हो ....ये फिर ... पहाड़ियों और मेघों का पारस्परिक सामंजस्य ..... हरे भरे पेड़ों और झुरमुटों के बीच छिपे सुन्दर घर हों ... या फिर घर घर में रोपे हुए केले नारियल व अन्य वनस्पतियाँ हों ... पहाड़ों पर बने घर हों .... ढलान वाली सड़कें हों .... या फिर .... सड़क के किनारे नीचे के तले पर बने प्यारे छोटे छोटे घर। 

सपनो में आने वालों सा दृश्य साक्षात अवलोकित हो रहा था ....और ....मेरे मन को आलोकित कर रहा था।

क्या उन पलों की तुलना की जा सकती है कभी ? 

अवधि छोटी ही सही ...पर इन सुन्दर पलों की तुलना की जा सकती है कभी .....????

Thursday 30 August 2012

REMINISCENCES FROM MY DIARY.....

 August 2, 2011
5 p.M.
GFC Bungalow, IISc
Bangalore



अधमुंदी आँखें अचानक ही पहुँच गयी बरामदे में। शाम हो आई थी पर लग रहा था मानो आज शाम को इतराने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा हो, मानो आज दिवस और रात्रि ने आपस में सांठ- गांठ कर ली हो कि आज संध्या को अपनी छटा बिखेरने का मौका नहीं देंगे। आसमान में गहरे काले बदरा छाए थे- नीर भरे बदरा। दूर कहीं से आती घंटियो की ध्वनि सांध्य-बेला को गुंजायमान कर रही थी। पहले लगा घाट के पास शिवलिंग से आती आवाज़ है, पर फिर लगा कि न, यह तो इस सुन्दर गोधूलि में अपने अपने घरों को जाती गायों और बैलों के गले में बंधी घंटियो का स्वर है। अहा! मन आह्लादित हो रहा था,  क्यों आह्लादित हो रहा था-  सोच ही रहा था कि ऊपर वही नीर भरे बदरा अपना नीर बरसाने लगे चहुँ ओर। और बरखा का ये जल अकेला ही स्वातंत्र्य का आनंद नहीं ले रहा था, इसके साथ खेल रही थी पूरब से आती मदमस्त बयार। भीगने का मन कर रहा था। आँगन पार कर के नंगे पाँव ही हरी घास पर चलने लगा। प्रतीत हो रहा था मानो समस्त संसार झूम रहा हो। नहीं जानता था, कहाँ जा रहा हूँ ; बस आँखें हर दिशा में घूम रही थी और पाँव चले जा रहे थे। होंठों पर एक हल्की- सी मुस्कान भी थी और सबसे अच्छी बात यह थी कि आज मानस- पटल पर, मन में , हृदय पर कोई स्मृति दस्तक नहीं दे रही थी या हो सकता है, दस्तक दे रही हो , पर आज द्वार खुल न पा रहे हों। मन बौराया जा रहा था। बौराए वृक्ष, बौराई शाखाएं , बौराई पत्तियां , बौराई वल्लरियाँ एक अलग ही दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। ईश्वर की यह सृष्टि , यह प्रकृति ...लग रहा था मानो अपने नैसर्गिक लावण्य को पूर्णतया प्रस्तुत करने के लिए आकुल हो रही हो। कीट- पतंगे, फूल , भँवरे ...सब मस्त थे। हरी घास, सूखी घास , कटी घास , उगी- अधउगी घास , घास से  झांकते जंगली फूल, छोटे मेंढक , बड़े मेंढक , अपनी डगर जाते बैल , गाय, उनकी घंटियाँ, ऊपर कहीं छिपा हुआ इन्द्रधनुष , मिटती- घटती लालिमा , गीली मिट्टी और यह मन - हर कोई बावरा हुआ जा रहा था। तभी देखा, कबूतरों का एक जोड़ा गीली ठण्ड से कंपकपा रहा था पर फिर भी प्रणय- कलह में मग्न था। ईश्वर की यह सृष्टि कितनी सुन्दर हो सकती है, यह इन दोनों को देखकर पुष्ट हो रहा था। पाँव के नीचे बीच बीच में  कंकण एक मीठी चुभन पैदा कर रहे थे। बावरा मन चाह रहा था कि काश! यह बावरा समय अपनी गति मद्धम कर दे। हर एक क्षण दीप्तिमान हो उठा था। रात्रि की कालिमा धीरे धीरे अपना आधिपत्य गहन करती जा रही थी जो इस गोधूलि के सौंदर्य की इकाई में असंख्य शून्य जोड़ रही थी। और पाँव ..... पाँव तो दिशाहीन- से,  बस चले जा रहे थे ....