Friday 17 December 2021

Not a pole star

Reminiscences from my diary

Dec 17, 2021
Friday 07:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore


तारों को टूटता देखने पर 
मन्नतों का जंगल रोपना 

मन्नतों के टूटने पर 
आप सितारा बन जाना 

फिर आप टूटकर 
किसी और की मन्नत में पिर जाना 


सैयारगी 
दीवानगी का 
आखिरी पड़ाव है !

Friday 10 December 2021

Un-knitted!

Reminiscences from my diary

Dec 10, 2021
Friday 02:00 pm
ORRB, GS, Bangalore

कभी कभी कुछ यूँ होता है कि मज़बूत, कसी हुई गिरहों का एक छोर किसी ऐसे के हाथ लग जाता है कि धीरे धीरे - धीरे धीरे आप खुलने लगते हैं। पुल के उस पार से धागा खिंचता है और इधर ... इधर गिरहें ढीली पड़ने लगती हैं।  गाहे - बगाहे किसी की निजता आपकी निजता तक पहुँचने का सेतु पा जाती है और शुरू हो जाता है पग - पग नपता सफ़र। आपको लगता है आप खुल रहे हैं, परत दर परत सुलझ रहे हैं, आपकी रूह को, आपकी मुश्क़ को आख़िरकार बंद पिटारे से निजात मिलती जा रही है और आप बसंत में घुल रहे हैं।  

और यहीं  ... बस यहीं आप धोख़ा खा जाते हैं। आप जिसे खुलना समझते हैं, वह हमेशा ही खुलना नहीं होता। 

आप असल में उधड़ रहे होते हैं ...

धागा - धागा  ..
रेशा - रेशा  ..
लम्हा - लम्हा  .. 

उधड़न की कसक आपको चकमा दे जाती है। आपको पतझड़ की घुटन भी वसंत की बयार लगती है। मुझे कई बार लगता है कि खुलने और उधड़ने का अंतर उतना ही महीन है जितना एक साँस का होने और न होने तक का फ़ासला। 

ख़ैर  .. एक वक़्त, एक उम्र के बाद इस अंतर का, इसके होने का फ़र्क़ नहीं पड़ता। खुलें या उधड़ें  - दोनों में ही वापसी की कोई सम्भावना नहीं। छूटी हुई ख़ुशबू वापिस बसेरा कभी नहीं पाती ! और उधड़ी ऊन से बुने स्वेटर में भी पहले जैसा निवाच रहता है भला ?



Friday 15 October 2021

Chaos! 

Reminiscences from my diary

Oct 14, 2021
Thursday, 2345
Zostel, Ooty


मैं कई बार 
अजीब - से 
अनमनेपन से
बेचैन हो उठता हूँ ! 
मैं नहीं जानता खुद को 
यहाँ तक कि
नहीं पहचानता अपना शरीर 
जैसे, अभी अभी
कुछ पढ़ते हुए 
मेरी उँगली, बिना वजह
गर्दन पर चलने लगी 
पर मैं 
नहीं पहचान पाया 
अपना नाखून या 
अपनी त्वचा या
अपना स्पर्श ! 

हैरानियत है ! 

ऐसी हैरत मुझे
तब भी होती है
जब मैं अपनी ही
किसी तस्वीर से 
रु ब रु हो उठता हूँ ! 
तस्वीर के अंदर का मैं
और तस्वीर के बाहर का मैं
एक होने चाहिए
एक नहीं तो
कमसकम एक - से तो
होने ही चाहिए 
हालाँकि उन्हें जोड़ता
कोई पुल 
नहीं दिखता मुझे ! 
मेरी आँखें शायद
पहचान जाती हैं
तस्वीर के किरदार को
पर बूझती रहती हैं
अपना ही ठौर
मानो अभी जहाँ हैं
वह हो बस एक सराय ! 
और आँखें जानती हैं कि
सराय नहीं होते घर ! 

कभी कभी
यह कश्मकश
हावी हो जाती है
मेरी ही साँस पर
पर जब बेवजह बेठौर
किसी पगडंडी को नापते
गौर करता हूँ
अपनी साँस पर
तो बस कश्मकश पाता हूँ
साँस नहीं ! 

यह जो मैं
लिख रहा हूँ
क्या यह मैं
लिख रहा हूँ ? 

मैं मोक्ष की नई परिभाषा
लिखना चाहता था
मृत्यु की नहीं ! 

Tuesday 12 October 2021

The bones of memories

Reminiscences from my diary

Oct 12, 2021
Tuesday 2310
Zostel, Ooty


सुनो !
मैं चाहता हूँ कि
वे सभी बचे - कुचे लोग -
- जिनकी बची - कुची यादों में 
मैं कहीं - न - कहीं अब भी हूँ -
मुझे भुला दें !

क्यों तुम मुझे 
ऐसी समीधा नहीं देते 
जो 
अपार्थिव हो चुकी स्मृतियों को, 
स्मृतियों की अस्थियों को -
- चटका दें 
और 
ऐसे भस्म करें कि -
न जल 
न वायु 
न अग्नि 
न पृथ्वी 
न आकाश 
कोई भी न बूझ पाए राख का ठौर !

सुनो !
ऐसा हो पाने पर ही 
मैं रच पाऊँगा 
मोक्ष की एक नई परिभाषा !
 

Saturday 9 October 2021

The first evening in Ooty

Reminiscences from my diary

Saturday, Oct 09, 2021
0630 pm
Zostel, Ooty


हवा इतनी सर्द है कि शरीर की सिरहन भी सिहर रही है। मैं हालाँकि जस-का-तस खड़ा हूँ। जैकेट नहीं, टोपी नहीं, मफ़लर नहीं  ..  बस वही मैरून चैक की पूरी आस्तीन की हल्की गर्म शर्ट,  जो पिछले आठ सालों से मेरे साथ - साथ चल रही है, मुझे ओढ़े हुए है।  कुछ चीज़ें ऐसे ही, बिलकुल ऐसे ही अचानक आपसे टकराती हैं और बस आपकी हो जाती हैं मानो इनका होना सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके लिए ही है। यह चुभती शर्ट भी मुझे हमेशा ऐसी ही लगी। खैर ... डूब चुके सूरज को तलाशती - सी उसकी महीन लाली में रंगी यह कँपकँपाती हवा भी मुझे फिलहाल ऐसी ही लग रही है - अपनी ! सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी मानो मेरी ही राह तक रही थी अब तक और आज जाकर इसे चैन आएगा। 

आस - पास के लैंप-पोस्ट जल चुके हैं। लैंप-पोस्ट चाहे कितने भी सुन्दर हों, मुझे कभी अपने नहीं लगे।  जिसे भोर नहीं गोधूलि पसंद हो, रश्मियाँ नहीं जुगनू पसंद हों, पसंद हो काले-गहरे बादलों से घिरा आसमान, पसंद हों दिन को दिन में ही रात बनाती घटाएँ, उसे यह कृत्रिम रोशनी पसारते लैंप-पोस्ट कैसे पसंद आएँगे ! इनका जलना, इनका होना मुझे सुकून नहीं देता। सुकून तो मिलता है उस ऊपर टंगे - टंके चाँद से। आज का चाँद बहुत बारीक है, जैसे ईद का चाँद हुआ करता है।  और उस पर भी हल्के कोहरे, हल्के फाहों की हल्की चादर।  ठिठुरता चाँद, ठिठुरता मैं  ... ठिठुरते हम ! चाँद को कह सकता हूँ अपना ! कहता ही हूँ हमेशा ! इसकी तासीर ही ऐसी है कुछ ! कितनों का अपना बना बैठा है यह चाँद, गिनती करने बैठूँ तो तारे कम पड़ जाएँ ! उस पर चाँद पहाड़ों का हो तो चार चाँद लग जाते हैं चाँद में - फिर पहाड़ चाहे हिमालय हों या नीलगिरि !

आसमान में इस समय तीन रंग आपस में खेल रहे हैं - नीला, काला, लाल। पता नहीं कब कौन किस पर हावी हो रहा है ! अभी - अभी तो पिछले पन्ना लिखते समय काला ज़्यादा, नीला कम था, और अब देखो ! बाईं तरफ़ लाल ज़्यादा और दाईं तरफ़ नीला, बीच में काला ठिठोली करता शायद सोच रहा है कि दाएँ जाऊँ या बाएँ या फिर पसरा रहूँ वहाँ जहाँ हूँ !

एक शब्द है अंग्रेज़ी का 'सिल्हूट' जो मुझे हमेशा से ही बहुत पसंद है, तब से जब मुझे इसका मतलब भी ठीक से नहीं पता था ! हिंदी में शायद 'छाया चित्र' कहेंगे। इस समय जहाँ से जहाँ तक भी नज़र दौड़ा रहा हूँ, सिल्हूट ही सिल्हूट हैं - पहाड़ों के, पेड़ों के, झाड़ियों के, घरों के, घरों की छतों के, बिजली के खम्बों के, टॉवरों के, लोगों के - सिर्फ़ सिल्हूट ! मैं सोच रहा हूँ कि जो स्मृतियाँ गाहे - बगाहे आपके मन मानस पर दस्तक देती हैं, देती ही चली जाती हैं, एक शांत पल में उफ़ान ले आती हैं - वे असल में स्मृतियाँ होती हैं या स्मृतियों के सिल्हूट ! अगर सिल्हूट हैं तो क्या उनमें इतना सामर्थ्य है कि वे पूरे के पूरे चेहरे आँखों में उतार पाएँ ; एक पूरा गुज़रा पल, समय, अतीत वैसा का वैसा ही आपके सामने खड़ा कर दें और आप सच में मानने लगें कि आप समय के किसी दूसरे ही आयाम में हैं ? और अगर स्मृतियाँ हैं तो फिर धुँधली क्यों पड़ जाती हैं ? क्यों बीता समय, बीते चेहरे हवा के साथ हवा, धुंध के साथ धुंध, बादल के साथ बादल बन जाते हैं ?

खैर  ... बस सोच रहा हूँ ! जवाब नहीं ढूँढ रहा हूँ ! शायद एक उम्र के बाद आप कुछ सवालों को वैसा ही रहने देना चाहते हैं ! नीचे घाटी में रोशनियाँ झिलमिला रही हैं शायद कुछ देर तक इन्हें ही देखता रहूँगा बिना कुछ सोचे, बिना कुछ कहे... 











Thursday 12 August 2021

Consciousness? 

Reminiscences from my diary
Thursday, 11.30 pm
Saharanpur

मेरी चेतना 
समाधि है
एक औघड़ 
सूफ़ी की

जिसकी
अधमुंदी आँखों में
बिखरा है एक
खुला आकाश

जिसने
कतरा कतरा होकर
भरी है
एक सुरंग

सुनो! 
उस सुरंग के ओर छोर
किसी शम्स की
आँखों में खुलते हैं! 

Sunday 1 August 2021

Ashes to words

Reminiscences from my diary

Aug 01, 2021
Sunday, 0900 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पता नहीं कब कहाँ 
कौन सा तारा टूटा कि 
एक ख्वाहिश मन में पिर गई !
पिरती ही चली गई !

यूँ तो मैंने अमरपक्षी होना कभी नहीं चाहा पर 
यह ज़रूर चाहने लगा हूँ कि 
अग्निदाह के बाद एक चमत्कार हो
और मेरी राख़ से उपजें 
शब्द!
शब्द जो बनते बनते बन जाएँ 
एक किताब!
कविता! कहानी! कहकहा! कुछ भी!
बस एक किताब!

ऐसा होने से एक उम्मीद तो रहेगी कि 
अगली बार ही सही 
क्या पता 
कभी कहीं 
किसी अमलतास के नीचे 
किसी सफ़र में
किसी खिड़की पर गर्दन टिकाये 
किसी आँसू की सीलन में 
पढ़ा जाऊँ
गढ़ा जाऊँ!


Friday 2 July 2021

The cobweb of memories

Reminiscences from my diary

July 02, 2021
Friday, 11:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore

मैं कई बार अनमनी-सी टीस से बेचैन हो उठता हूँ।  बहुत बेचैन ! कभी भी  .. किसी भी पहर  .. किसी भी जगह  .. काम करते वक़्त  .. चलते वक़्त  .. पढ़ते वक़्त  .. कुछ न करते वक़्त  .. कभी भी ! पर इस बेचैनी, इस कसक की वजह ढूँढने में मुझे ज़्यादा वक़्त नहीं लगता।  हालाँकि मैं कभी भी बिलकुल सटीक कारण नहीं ढूँढ पाया हूँ। महज़ इतना समझा हूँ कि बात स्मृतियों से जुड़ी है। सहस्र दंश लिए फिरता हूँ इनका ! पर क्यों ? नीलकंठ तो बस एक हो ही होना था ! ऐसे अंतरालों में मैं सोचा करता हूँ कि स्मृतियों के जंजाल का कौन सा तार मेरी छाती पर हिमालय खड़ा करता है; क्या उम्र के साथ ये तार तार-तार हो जाते हैं; क्या मैं वाकई चाहता हूँ कि ये हवा हो जाएँ; हो गयीं `गर ये हवा तो क्या मैं इनसे उपजी टीस के बिना अपनी जिजीविषा सींच पाऊँगा; कहीं ये मात्र भ्रम तो नहीं मानों हो बस मरीचिका; और छलावा ही हैं तो इतनी बार छलने क्यों आती हैं; तो क्या मैं इतने समय से किसी थार को नाप रहा हूँ  ... कितने ही सवाल .. कितने ही ऊबड़ - खाबड़ - अनगढ़ सवाल बुन जाते हैं अपने आप ही  .. उधड़न हो कभी कोई तो साँस में साँस आए !

छटपटाहट के पशमीने में लिपटा मैं यह भी सोचता हूँ कि इतने भरे मन और मस्तिष्क के साथ क्या हम अपना आज आज की तरह जी पाते हैं या जी सकते हैं ? मैं नहीं मानता क्योंकि मैं अपना आज आज की तरह नहीं जी पाता। ऐसा नहीं कि कोशिश नहीं करता ! प्रयास शुरू ही करता हूँ कि झपट पड़ता है स्मृतियों का झुण्ड मुझपर मानो कब से घात में हो और धकेल देता है मुझे आज से बहुत परे ! और आज ? आज बेचारा मायूस होकर बीत जाता है और मुझे ठीक से पता भी नहीं चल पाता। कभी-कभी ध्यान जाता है किसी-किसी आज पर पर तब जब वह कल बन चुका होता है। कौंधा जाती है एक नयी स्मृति जो तब बनी थी जब बाकी स्मृतियाँ मुझे भूत में ले गयीं थीं। खेल है  .. अजीब-सा खेल .. जो बस चले जा रहा है, और मैं हारे जा रहा हूँ   .. 

लगता है धुँधली सीमाओं वाले चौकोरों की एक बिसात बिछी हुई है,  या यूँ कहूँ कि फैली हुई है भूत के आयाम में। सपने कौड़ी हो जाते हैं किसी-किसी नींद ! जब-तब जो सपना बिसात के जिस वर्ग में गिर जाता है, वही स्मृति स्वप्न बन लौट आती है मानो, स्वप्न स्वप्न न हो, बस प्रतिबिम्ब हो स्मृति का !

एक नई कश्मकश दस्तक देती है मेरे ज़हन में। भोर होते-होते या फिर रात के ही किसी पहर की किसी इकाई में सपने अक्सर टूट ही जाया करते हैं। जब कोई गहरा सपना टूटता है तो शायद उतने ही टुकड़ों में बिखर जाता है जितने छिटके हों तारे किसी स्याह रात में ! 

नींद बाँझ हो जाया करती है तब !
रतजगे झाँकने लगते हैं दरीचों से !
स्मृतियाँ बन जाती हैं दत्तक !


Saturday 26 June 2021

The white shirt

Reminiscences from my diary
June 27, 2021
Sunday, 00:30
Murugeshpalya, Bangalore


इंसोम्निया आम रातों की तरह -
पसरा हुआ है !
बाहर,  हल्की बौछार!
रेडियो पर अल्का का गाना चल रहा है  -
"तुम साथ हो या न हो, क्या फ़र्क है  .."
बेतरतीब हुई अपनी अलमारी को -
थोड़ा सँवारने की कोशिश कर रहा था -
बहुत दिन हो गए यूँ भी !

दायीं ओर का सबसे ऊपर वाला खाना -
ठीक करते - करते 
मेरे हाथ में आ गई -
एक शर्ट 
वही शर्ट 
वही सफ़ेद शर्ट 
सफ़ेद शर्ट जिस पर चारकोल जैसे रंग से -
धारियाँ पड़ी हुई हैं 
काली नहीं, काली - सी ही !

उँगलियाँ रुक गईं -
आँखें भी, मन भी, पल भी !
मुस्कान आई, चली गई -
फिर आई है, पर आधी सी !
पानी भी आया आँख में -
आधा-सा आँसू लुढ़क पड़ा है -
गाल पर !

कसकर दोनों हथेलियों में 
दबा रखा है इसे !
उतनी सफ़ेद नहीं रही अब  !
हल्के - हल्के निशान भी हैं यहाँ - वहाँ !
पूरी आस्तीन पूरी नहीं लग रही !
बटन पूरे हैं पर, एक भी नहीं टूटा !
सूँघ रहा हूँ !
दिसंबर की एक कुहासी शाम को ढूँढ रहा हूँ !
शाम, जब तूने -
सड़क पर टहल-कदमी करते हुए -
अचानक ही -
अपने बस्ते से यह सुन्दर सफ़ेद शर्ट निकाली 
और मुझे थमा दी थी !

मेरे जन्मदिन का तोहफा !

मुद्दत बाद कोई तोहफा मिला था !
आदत नहीं थी, मैं ठिठक पड़ा !
लेने से साफ़ इंकार कर दिया था !
कॉलर देखकर कहा था -
"यह तो बहुत महंगी होगी!"
कैसे ऐनक नीची कर आँखें तरेरकर -
मेरा बस्ता छीनकर उसमें रख दी थी -
यह सफ़ेद शर्ट !

मुझे कोहरा भी बारिश लगा था तब !

रेडियो पर अभी भी गाना चल रहा है -
"तुम साथ हो या न हो क्या फ़र्क है ..."


Wednesday 23 June 2021

Surroundings

Reminiscences from my diary
June 23, 2021
Wed, 10:20 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पूरा चाँद 
अधबुने बादल 
सर्द बयार 
गर्म साँस  
गीले तार 
झूलती बूँदें 
नहाई गली 
काँपता कबूतर 
बिखरे कनेर 
सिमटा गुलमोहर 
नपता पहर 
छूटता दिन 
कौंधती स्मृतियाँ 
बिसरते चेहरे 
मूक चुभन 
मूक चुभन 

Tuesday 15 June 2021

Grievances 

Reminiscences from my diary

June 15, 2021
Tuesday, 10:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore


कल ही की तो बात है !
साँझ की बाती करते हुए 
साईं से बुदबुदा रहा था 
शिकायत, असल में कि -
ठीक है 
जो अब नहीं है 
जिसकी वापसी अब मुमकिन नहीं 
न सही 
पर पहले, कमसकम -
एक ज़रिया तो था -
नींद का
जिसमें मैं -
गाहे - बगाहे 
रु-ब-रु हो जाया करता था -
दुनिया के सबसे अज़ीज़ चेहरे से 
और -
दो सपनों के बीच 
जितनी भी कसक रिसती थी 
सब धुल जाया करती थी !

एक आलम अब है कि -
उम्र बढ़ने के साथ 
आँख -
रात - रात भर 
मकड़ी - सी 
कुछ बुनती रहती है हवा में !
न नींद आती है
न कोई सपना !

डरने लगा हूँ 
क्योंकि -
पहले की बनिस्बत 
पलकें मूंदने पर -
चेहरा, चेहरे की बनावट 
साफ़ नज़र नहीं आती !
मशक्कत करनी पड़ती है 
टुकड़ा - टुकड़ा जोड़ -
याद - याद जोड़ -
उसे पूरा करने की, पर -
कुछ न कुछ छूट जाया करता है !
कितने ही वक़्त से यही हो रहा है !
मैं हैरान, परेशान रहने लगा हूँ !

खैर -
मैं कल ही साईं से यह सब 
साझा कर रहा था 
और -
साईं ने कल रात ही 
एक निहायती खूबसूरत 
नींद बुन डाली 
और उसमें टाँका -
आकाशगंगा का सबसे चमकीला सपना !

सुनो !
चौबीस घंटे होने को आए हैं !
मैं अभी भी -
हूक़ -
मुस्कान -
स्पर्श -
नमी -
और
तुम्हारे पूरे चेहरे की ख़ुमारी में हूँ !



Friday 14 May 2021

The pandemic days

Reminiscences from my diary

May 14, 2021
Friday, 07:40 pm
Murugeshpalya, Bangalore


अजीब-सी ख़ुमारी छा जाया करती है 
इन दिनों 
वक़्त बेवक़्त 
गाहे बगाहे 
ठन्डे फ़र्श पर पड़ी रहती है देह 
घंटों 
चलता रहता है 
एक सिलिसिला 

कच्ची नींद, गहरे सपने 
गहरी नींद, कच्चे सपने 
अधपकी नींद, अधपके सपने 

नींद के पड़ाव-दर-पड़ाव 
टूटे सपने, कभी -
कहानी पूरी करने की
जद्दोजहद करते हैं
कभी
दो पड़ावों के बीच 
खुली आँख में 
बिखरा जाते हैं 
अपने टुकड़े 

आँखें जब -
एक बार 
कमरे की छत पर टिकती हैं, तो -
टिक ही जाती हैं 
देर तक लगी रहती है 
टकटकी 

एक-आध तरेड़ें हैं 
यहाँ - वहाँ 
जो अचानक से, कभी-कभार 
उभरने लगती हैं 
चलने लगती हैं
मचलने लगती हैं 
मानो भटकती छिपकली 

फिर उभरते हैं चेहरे 
कई कई चेहरे 
अजीब से 
कुछ जाने-पहचाने 
कुछ जाने-अनजाने 

खुश चेहरे 
उदास चेहरे 
हँसते चेहरे 
रोते चेहरे 
बोलते चेहरे 
चुप चेहरे 

नहीं दिखता पर 
महज़ एक चेहरा 
जिसे आँख, मन, काया, रूह 
सब चाहें देखना 
और जब 
हाथ की रेखाओं सी ही 
ये लकीरें भी 
नहीं देतीं साथ, तो -
उँगलियाँ बनाने लगती हैं 
ग़ुम शक़्ल 
हवा में 

एक बार फिर 
आँख लगती है 
एक बार फिर 
कहानी बुनती है 
एक बार फिर 
आँख खुलती है 
एक बार फिर 
राख उड़ती है !



Wednesday 12 May 2021

Random rains

Reminiscences from diary

May 12, 2021
Wed, 11:15 pm
Murugeshpalya, Bangalore

कच्चे सावन 
की साँझ 
का मेंह 

भरता है 
उजास
उन्माद
और 
ढेर सारी हूक़ 

रात घिरते घिरते 
पानी 
बह जाता है
पीछे रह जाती हैं 

बेतरतीबें 

शरीर का रेशा रेशा 
बन जाता है 
जुगनू !



Friday 16 April 2021

(No) Strings Attached

Reminiscences from my diary

Apr 16, 2021
Friday, 11:50 pm
Murugeshpalya, Bangalore


अछोर से छोर होता मैं 
छोर से अछोर होते तुम 
तुममें बुझता मैं 
मुझमें जलते तुम 
बिछड़न 
भटकन 
तड़पन 
सिकुड़न 
सीलन 
खुरचन 
छीलन 
टूटन 
रूदन 
झूठन
छोर से अछोर होता मैं 
अछोर से छोर होते तुम 
तुममें जलता मैं 
मुझमें बुझते तुम  

Sunday 28 March 2021

The full moon and your nails!

Reminiscences from my diary

March 28, 2021
Sunday, 09:30 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पूरे चाँद को
टुकुर - टुकुर देखते हुए 
मुझे एकाएक 
तुम्हारे नाखूनों की बनावट 
याद आ गई
 
हर बारीकी 
हर रंग 
हर कोशिका 
हर लकीर 

अजीब है न?
हाँ! है तो!

ऐसी किसी 
बेतुकी याद पर भी 
भला कभी कोई कविता 
लिखी जा सकती है, या -
लिखी जानी चाहिए ?

न! नहीं! 

सोच रहा हूँ कि 
ज्यादा बेतुका क्या है !
तुम्हारे नाखूनों का 
आँख में भर जाना 
या 
चाँद को देखते देखते 
तुम्हारे नाखूनों का
आँख में भर जाना 

खैर ... 

लोग समझेंगे कि 
बौरा गया हूँ 
और सही ही समझेंगे !

इसलिए -
यह जो मैं लिख रहा हूँ 
यह कोई कविता नहीं है !
मैं तो -
महज़ 
इस पल को दर्ज कर रहा हूँ 
अपनी डायरी में 
कि 
अमुक तारीख़ को, अमुक समय -
एक अजीबोगरीब -
बावरी 
हास्यास्पद घटना घटी थी !






Monday 15 March 2021

The fence - 2

Reminiscences from my diary

March 15, 2021
Monday, 11.45 pm
Sre

यह मुंडेर 
समंदर थी हमारा ! 
याद है तुम्हें? 
कैसे हम 
घंटों
इन ठूठों - सी दीवारों पर
पीठ टिका
बैठे रहते थे 
इसमें पाँव डाले! 

देखने वालों ने
हमें देखा
समंदर देखा
उसमें भीगे हमारे पाँव देखे
पर नहीं देखीं
वे कितनी - कितनी नावें जो
जो ठुमक - ठुमक 
बहती रहतीं थीं 
तुमसे मुझ तक
मुझसे तुम तक ! 

सुनो ! 
अब सब रेत है 
रेत ही रेत
तपता, चुभता रेत
और
हमारे किस्सों की 
कहानियों की
ठहाकों की
घावों की 
सपनों की
मायूसियों की
वे सभी नौकाएँ
टूटी फूटी
यहीं कहीं बिखरी, दबी पड़ी होंगीं !

जहाँ कहीं भी हो तुम, सुनो ! 
आ जाओ न एक और बार
उन हमेशाओं की तरह 
छन से ! 
मैं, जल्दी - जल्दी 
सब टुकड़े समेट लूँगा, सहेज लूँगा
और तुम 
हमारा समंदर हरा कर देना ! 


Sunday 14 March 2021

the fence


Reminiscences from my diary

March 14, 2021
Sunday 02.00 pm
Patiala

दो दीवारें, और
दो दीवारों को जोड़ती 
सीमेंट - पत्थर की एक मुंडेर ! 
आज, जब
कई मुद्दतों बाद 
इस मुंडेर को सहलाया, तो 
नाखूनों से शुरू होकर 
शरीर के रेशे - रेशे तक 
एक स्मृति, और 
उस स्मृति को बनातीं 
असंख्य स्मृतियाँ
कौंध गईं ! 
मुंडेर के दोनों ओर पाँव लटकाये
तू और मैं
और हमारी पीठों को सहारा देतीं 
ये दो दीवारें ! 
अकेले में
मेले में 
उजाले में
अंधेरे में
पूस में
बरसात में
तू, मैं, हमारी बातें 
और बातें
और बस बातें
इतनी, कि
अगर बातों की सीढ़ी बनाऊँ
तो चाँद छू जाऊँ ! 
सोच रहा हूँ -
यह जानकर कि
तू अब नहीं है, और
इसे छूने कभी नहीं आयेगा
क्या यह मुंडेर, या
इसके अंदर की कोई नींव, कोई परत, कोई निशान
महज़ मेरे कुरेदने से
कभी मुझे मेरा चाँद
या उसका एक कतरा भी
दिला पाएँगे ! 


Monday 8 March 2021

The wish carriers

Reminiscenes from my diary

March 8, 2021
Monday, 11 pm
Sre

जब - जब भी
मैं -
तुम्हारी
बड़ी हथेलियों की ओक में
पूरा का पूरा 
आ सिमटा.. 

तब - तब
तुम्हारी आँख से 
एक पलक
बहती - बहती
मेरी हथेलियों की ओक में
आ गिरी .. 

इधर मैं -
तपाक से
आँख बंद कर
कोई अफसून बुदबुदाता
और उधर -
तुम्हारी फूँक
तुम्हारी ही पलक को
बहा ले जाती कहीं .. 

खैर .. 

किसकी कितनी प्रार्थनाएँ पूरीं हुईं 
तुम जानो, या जानें -
ब्रह्मांड में तैरती -
अनगिनत पलकें .. 
मैं जानूँ
तो बस .. 

तुम्हारी बड़ी हथेलियों की गंध
और
तुम्हारी बड़ी हथेलियों का स्पर्श .. 

Sunday 7 March 2021

The quest for my sky

Reminiscences from my diary

March 6, 2021
Sunday, 09.45 pm
Sre

इंद्रधनुष पर पाँव रखा ही था कि
सभी सितारे
एक साथ
मुझसे यूँ लड़ पड़े
मानो
उनसे उनका
सारा आकाश छीन लिया हो मैंने! 

मैं घबराकर
पीछे हट गया ! 

मैंने कब चाहा 
सारा का सारा आसमान
माँगा तो बस -
उसके सबसे महीन कतरे से
एक कतरा
और, उस कतरे में
एक तारे जितना
आकाश! 

Monday 8 February 2021

The lives, parallel, and the lines!


Reminiscences from my diary

Feb 08, 2021
Monday, 10:15 pm
Murugeshpalya, Bangalore


समानांतर 
सरल 
रेखाएँ 
चाहे 
दूर 
हों 
या 
समीप 
या
बहुत
समीप
... 
...
... 
कभी 
नहीं 
मिलतीं 
.
.

Thursday 4 February 2021

You came! You stayed!



Reminiscences from my diary

Feb 4, 2021
Thursday 11 pm
Murugeshpalya, Bangalore


उस दोपहरी 
तुम्हारा आना 

क्लांत मरु में घिर आया हो 
नागार्जुन का बादल  

टुक - टुक टुकरती आँख में ठहर जाए 
शरद का चाँद 

पूस की रात में दूर कहीं दिख जाए 
एक अलाव 

बीजी की ईदी 
बाबा के किस्से 

उस साँझ 
तुम्हारा जाना 

मुद्दत से भागती सड़क पर
पसरे अचानक एक सन्नाटा 

खाली घर के खाली कोने 
भर जाएँ किसी गूँज से 

मसली जाए 
बसंत में खिलती कली 

रात बरसाती बने 
रुदाली 


Wednesday 27 January 2021

Listen O Moon!

Reminiscences from my diary

Jan 27, 2021
Wed, 10:40 pm
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो चँदा !
फ़र्ज़ करो
कोई लगभग पूरा हो 

लगभग

और
लगभग पूरा होने से 
पूरा पूरा होने तक का सफ़र
कुछ-एक प्रकाश - वर्ष जितना हो जाए ?

कितनी भटकन होगी !
कितनी तड़पन होगी !

सुनो चंदा !
अब यूँ करो कि
फ़र्ज़ करो या न करो 
पर
तुम्हारी तकदीर 
उन सैकड़ों अधूरों की
तकदीरों से 
कुछ-एक प्रकाश वर्ष गुना
ज़्यादा पूरी है !


Monday 11 January 2021

The palms

Reminiscences from my diary

Jan 11, 2021
Monday, 09:55 pm
Murugeshpalya, Bangalore


एक पल है 
कहीं किसी आयाम में 
अटका हुआ 

एक पल, जब 
तुम्हारी हथेलियों पर 
रोपा था मैंने 
अपना कैवल्य 

मायाजाल - सी रेखाओं में 
तुम्हारी 
मकड़जाल - सा मानस 
मेरा 
बहा था
जैसे धमनियों में रक्त 
बहते - बहते 
हो गया था 
भागीरथी 

अस्तु !
तुम्हारी उँगलियाँ, एकाएक 
हो गयीं थीं 
शिव .. 

Friday 1 January 2021

O, my dear friend!

Reminiscences from my diary

Jan 01, 2021
Friday, 10:55 pm
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो !
आज उदास लग रहे हो तुम 
बहुत उदास !
मानो, तुम -
तुम नहीं !
कल तो कितना खिल रहे थे 
खिला रहे थे !
क्या हुआ अचानक ?
मुझे बताओ !
मैं भी तो सब कुछ कहता हूँ तुमसे !

कल रात तो तुमने -
कितनी ही आतिशबाजी देखी होगी 
कितने ही रंग 
कितनी ही रोशनी 
कितनी ही चमक 
कितना ही उल्लास 
कितनी ही आशाएँ !
शाम से ही झूम रहे थे तुम तो, कल !

फिर क्या हुआ ?
बेचैन क्यों दिख रहे हो ?
तुम तो जानते हो, कितनी ही आँखें -
तुमसे उजास पाती हैं !
यूँ दिखोगे तो कितनी ही बेबसी -
ठहर जाएगी उनमें !
है न ?

मुझे लग रहा है -
मेरी फितरत का भूत चढ़ गया है तुम्हारे सिर 
और यह तो ठीक बात नहीं है !

अब सुनो, चुपचाप !
चाहते हो 'गर तुम -
मैं न करूँ शिव से शिकायत तुम्हारी, तो -
एक लम्बी साँस लो 
झटको यह चोला, और -
वैसे ही हो जाओ, जैसे हो तुम !
फबती नहीं है तुम पर उदासी !

न जाने कितने ही कवि 
तुम्हारे तुम होने की राह में 
अपनी कलम बिछाए बैठे होंगे !