Saturday 14 March 2020

Once displaced, forever displaced!


Reminiscences from my diary

Mar 14, 2020
10:40 pm
Murugeshpalya, Bangalore


कितने ही दिनों से मन में कहीं किसी कोने में दबी एक फांस को निकालने की कोशिश कर रहा हूँ।  कैसी फांस है ? कब चुभी ? कहाँ चुभी ? क्यों चुभी ? फांस ही है या कुछ और ? कोई टीस, कोई घुटी हूक ? क्या द्वंद्व है ? कैसी अन्यमनस्कता है ? समझ नहीं पा रहा हूँ ! अचानक से मुद्दत बाद एक ऐसे मोड़ पर खड़ा हूँ जहाँ एक बार फिर सोच रहा हूँ कि जब लोग एक जगह को हमेशा के लिए छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं, तो उन पर यह प्रतिबन्ध होना चाहिए कि वे जाने से पहले स्वयं से जुड़ी हर स्मृति को विस्मृति कर जाएँ।  मैं समझता हूँ कि ऐसे हर व्यक्ति के पास अपने विस्थापन का पुष्ट कारण होता होगा, पर जो मैं नहीं समझ पाता हूँ वह यह कि जाने वाला व्यक्ति किस अधिकार से उन मैत्रियों, उन संबंधों, उन घनिष्टताओं को तार - तार कर जाता है जो कभी उसने ही उगायीं थीं। पीछे छूट गए लोगों का क्या कसूर है ? क्यों वे अपनी स्मृतियों की पोटलियों को और भारी करें ? क्यों वे पल - पल उन पलों को याद करें जो कभी उन जाते हुए लोगों से बने - सजे थे।

पीछे छूट गए, या छोड़े गए लोगों के लिए यूँ तो सब वैसा ही रहता है - वही दिनचर्या, वही दिन, वही रातें, वही शामें, वही जगहें, वही मोड़, वही सड़कें, वही गलियाँ, वही चाय की टपरियाँ, वही पेड़ - पौधे - फूल, वही रोज़मर्रा की दुकानें, उन दुकानों के वही नौकर, वही मालिक, बस एक चीज़, एक ही चीज़ जो पहली जैसे नहीं रहती, वह है वे स्वयं ! उनके अंदर शायद कुछ टूट जाता है, कुछ छूट जाता है हमेशा के लिए ! एक अजीब - सा मौन कहीं से आकर अंदर घर कर जाता है ! बात महज़ इतनी सी है कि कुछ लोग इस मौन में दबी चीत्कार सुन पाते हैं और कुछ नहीं सुन पाते हैं !

जाने वाला व्यक्ति शायद एक बार विस्थापित होता है, पीछे छूट गए लोग हर दिन, हर पल विस्थापित होते हैं।  एक अंतराल के बाद यह विस्थापन और इससे उपजी कसक उनमें भावहीनता का बाँध इतना ऊँचा बना देती है कि फिर कोई सुख, कोई दुःख उन्हें छू नहीं पाता, विचलित नहीं कर पाता। यह कसक ही उनकी अमरता की हद तक की जिजीविषा बन जाती है और यह बात तो सही नहीं है। जाने वाले व्यक्ति को जाने से पहले अपने निर्मित सभी सेतुओं को ढहाकर जाना चाहिए। हो सकता है, ऐसा करने से नयी स्मृतियों की नौकाओं को किनारा न मिले और वे स्वयं ही किसी भंवर में हमेशा के लिए समा जाएँ। और तब पीछे छूट गए लोगों को सांस लेने के लिए किसी दर्द की ज़रुरत नहीं पड़ेगी।

सवाल है कि क्या ऐसे विस्थापनों को परिवर्तन कहा जाना चाहिए ? जाने वाला व्यक्ति कहता है - हाँ ! मात्र परिवर्तन ही तो है , एक आम - सा बदलाव ! और याद दिलाता है पीछे छूटे या छूटने वालों को कि परिवर्तन तो संसार का नियम है, कि लोग मिलते ही बिछड़ने के लिए हैं, कि जीवन में लोगों का आना - जाना तो लगा ही रहता है  .. वगैरह वगैरह ! मैं कहता हूँ - इन नियमों को माना ही जाए, यह कहाँ का नियम है ? मैं इस बारे में जितना भी सोचता हूँ, उससे यह निष्कर्ष ही निकाल पाता हूँ कि जाता हुआ व्यक्ति अक्सर ही अचानक से निस्संगता की चादर ओढ़ लेता है, अचानक से हो जाता है बधिर - अस्थियों तक, और कब आनन - फानन में सब छोड़कर, सब भूलकर दूर, बहुत दूर चला जाता है, पता भी नहीं चल पाता !

पीछे छूट गए, टूट गए लोग बस सूखी आँखों और मौन अधरों से देखते रह जाते हैं, एक मिथ्या, एक अव्यावहारिक सांत्वना की छाती पर सिर टिकाये हुए कि कभी तो वापसी होगी, कि कभी तो लौटना होगा जाने वाले का, कि दूर गया व्यक्ति उसी शिद्दत, उसी गर्मजोशी से पास नहीं पर साथ तो रहेगा  ... यह जानते हुए भी कि जो जाता है पूरा, वह फिर कभी पूरा लौटता है भला ?




Friday 6 March 2020

The bridge, never-ending!

Reminiscences from my diary

March 06, 2020
Friday 4 pm
GS, Bangalore

सुनो!
तुम्हारे मौन
और मेरी कसक की गिरहों ने
जो सेतु बनाया था -
मैं
कब से, उस पर
मौसम - मौसम
साँस - साँस
चला जा रहा हूँ
चले ही जा रहा हूँ
पर
इसको पार नहीं कर पा रहा हूँ !
जितना बढ़ता हूँ
इसका छोर, उतना ही
दूर होता जाता है
मानो
छोर छोर न हो, क्षितिज हो !

पता है?
जब - जब साँझ घिरती है
तब - तब
इन मूक गिरहों से
एक हूक - सी सुनाई पड़ती है
तब, एक सवाल
एक ही सवाल
मुझे कौंधा जाता है !

तुम इतनी जल्दी
इस पार से उस पार
कैसे पहुँच गए ?
कोई मंत्र, कोई जादू -
जानते थे क्या ?

आख़िर -
हर स्मृति को अस्मृति करने का यह सफ़र -
- हमें साथ ही तो तय करना था !