Sunday 18 October 2015

Those musical evenings!



Reminiscences from my diary
February 7, 2014
6:15 PM, Bangalore

Happy Birthday, Salil!

काम करते करते अचानक ध्यान गया -
कि होठों पर -
कोई गाना थिरक रहा है  … 
हँस पड़ा मैं -
मुद्दत बीत गयी है -
किसी के संग अंताक्षरी खेले हुए -
शाम - ए  - महफ़िल सजाये हुए -
गाते गाते खिलखिलाते हुए -
और खिलखिलाकर फिर गाते हुए !



न सुरों की चिंता -
न लय का ज्ञान !
बस, नग्मों का खज़ाना,
और खुशियों की शाम !







 
कभी किसी गोधूलि, मेघों में कैद -
- सलिल भी -
बरस पड़ता था -
मानो, घुलना चाहता हो -
चाय की चुस्कियों में -
पकौड़ों के सरसो में -
शोर में -
ठहाकों में  …!


लग जाते थे चार चाँद जब -
बिजली के बल्ब की जगह -
लालटेन की लौ -
नई - नवेली दुल्हन सी -
महफ़िल में शामिल होती थी -
और,
कुछ हवा से -
कुछ धुनों से -
और कुछ, मूंगफली के छिलकों से भी -
बौराई - बौराई जाती थी !
वहां , दूर गगन में -
आधे - अधूरे चाँद को छोड़ -
झूमती ज्योत्सना भी  -
चुपके-चुपके -
रोशनदान की टूटी जाली से -
घुसने की कोशिश करती रहती थी !

सच  … 
मुद्दत बीत गयी है !
अब तो -
- जब भी कभी मन करता है -
और, समय कुछ पल मेरे पास रुकता है -
तो कोई भूला - बिसरा गीत -
याद कर गुनगुना लेता हूँ -
और,
दूर हो जाती है तन्हाई -
मेरी भी -
और गीत की भी !






Saturday 3 October 2015

प्रणय (२/२)

Reminiscences from my diary
May 10, 2010
3 PM, Greater Noida



… अगले ही दिन से कुछ परिवर्तन हुआ ! अब क्रिया यथार्थ से मिलने अकेले नहीं आती थी बल्कि प्रणय को भी साथ लाती थी।  प्रणय - क्रिया ने उसी दिन नाम रख दिया था।  पहले स्पर्श से ही कुछ अलग सी सिहरन दौड़ गयी थी उसमें।  विधाता के उस उपहार को उसका प्रेम समझकर स्वीकार  किया था उसने।  मानवता का एक रूप ऐसा भी  होता है - सुन्दर , शिव , सत्य !

और यथार्थ  …   वह अब भी वैसा  ही था।  अपनी उस संकीर्ण परिधि  के चारों ओर लम्बी - लम्बी दीवारें बनायीं हुई थीं उसने , जिसके अंदर सिर्फ क्रिया का प्रवेश स्वीकार्य था।  और , वह , नन्ही - जान जानता नहीं था उस गुप्त द्वार का रहस्य , जो यथार्थ की आत्मा , उसके हृदय तक पहुँचता था।

और फिर पल - पल बीतते गए ।  वही यथार्थ , वही क्रिया , वही उनके मिलन का एक घंटा , उनके मौन- मूक प्रेम के साक्षी वही लहरें , वही बादल , वही रेत , वही कंकड़ , वही नारियल के पेड़ और वही क्षितिज।  यूँ तो क्रिया के जीवन में यथार्थ ने जाने - अनजाने कई रंग भरे थे , पर प्रणय ने उसकी मातृत्व की तूलिका को अपनी अठखेलियां , अपनी शरारत , अपनी ठिठौली और अपनी खिलखिलाहट के रंगों से सजा दिया।  प्रणय ने तो मानो उसके कंठ को और सुरीला कर दिया।   एक सुन्दर - सा , अति सुन्दर - सा बंधन था यह - मानवता का, वात्सल्य का,  मैत्री का, प्रेम का  … !

पर यथार्थ  … ? पल पल बीतते पलों ने एक बार भी यथार्थ के हृदय में  प्रणय को मन से देखने की , उसे अंक में खिलाने की ,  उसके गालों को अपने होठों से स्पर्श करने की , हवा में उड़ते उसके बालों को संवारने की उमंग पैदा नहीं की। क्रिया ने कई बार सोचा था और एक बार आसमान की ओर देखकर पूछा भी था कि क्या वाकई कोई इतना संवेदना - शून्य हो सकता है ! पर उस एक बार के बाद वह यह बात कभी अपने  मन में नहीं लायी क्योंकि वह जानती और समझती थी अपने यथार्थ को , और ईश्वर से ज़्यादा समय पर विश्वास करती थी। मानती थी कि शायद समय ही यथार्थ के मन में स्नेह का बीज  बो दे जिसके फल क्रिया ही नहीं बल्कि प्रणय भी चखेगा।  पर  … !

क्रिया को सपने नहीं आते थे , शायद इसीलिए प्रणय की तोतली बोली से सपने सुनने में उसे बहुत मज़ा आता था।  बड़ा होता प्रणय क्रिया को जीजी कहकर पुकारता था।  उसके बिना एक पल नहीं रह सकता था।  सारा दिन इर्द - गिर्द डोलता रहता था।  उसके नन्हे पाँव क्रिया की परिक्रमा करते थकते ही नहीं थे। क्रिया की तरह प्रणय का नन्हा मन भी इंतज़ार करता उस एक घंटे का जब वह अपने यथार्थ भैया से मिलेगा।  यथार्थ को भैया कहना क्रिया ने ही सिखाया था।  यथार्थ की आँखें प्रणय को बहुत अच्छी लगती थीं पर अपनी जीजी की आँखें बिलकुल पसंद नहीं थीं। प्रणय अक्सर सोचा करता था कि यथार्थ भैया उससे बात क्यों नहीं करते और यह बात उसने अपनी प्यारी जीजी से भी पूछी थी।  तब क्रिया ने ऐसे ही बोल दिया था - " तुमने कोई अच्छा काम नहीं किया न ! कुछ अच्छा करोगे तो यथार्थ भैया बहुत प्यार करेंगे।  " और उस तोतली बोली ने कहा था - "जीजी, मैं पक्का कुछ अच्छा काम कलूँगा !"

बड़ा हो रहा था प्रणय।  लगभग नौ साल का हो गया था।  अब वह क्रिया के अंक में नहीं होता बल्कि साहिल पर अन्य बच्चों के साथ खेलता था।  दोस्तों के साथ मिलकर समुद्र में दूर तक निशाना लगाता।  पिट्ठू का खेल उसे बहुत पसंद था और पसंद थी उसे यथार्थ की तरह ही नीली आँखों वाली एक लड़की जो नित्य उसी समय अपनी सहेलिओं के साथ खेलने आती थी।  पर उसने यह बात किसी को बताई नहीं थी - न किसी दोस्त को, न ही अपनी जीजी को।  कभी कभी शर्मीला सा बन जाता था प्रणय।  उसके साथियों को उसका नाम बहुत पसंद था और वह शान से कहता - मेरी क्रिया जीजी ने रखा है मेरा नाम !

कद में  बढ़ने के साथ - साथ प्रणय के मन के किसी कोने में छिपी टीस भी बढ़ती जा रही थी - आखिर ऐसा क्या करूँ जिससे मेरे यथार्थ भैया मुझसे बात करें , मुझे प्यार करें ! मन से , हृदय से ,  रिश्ते से और न जाने किस अधिकार से वह यथार्थ को वास्तव में अपना बड़ा भाई मानता था।  अगर क्रिया उसके लिए सर्वस्व थी तो वह यथार्थ को भी अपना सर्वस्व मानता था।  आखिर उसकी नन्ही - सी दुनिया इन्ही दो लोगों से ही तो सुशोभित थी।  

… और फिर एक दिन नाराज़ होकर , या फिर मन में कुछ ठानकर उसने क्रिया के साथ जाना छोड़ दिया।  अब वह यथार्थ से नहीं मिलता।  क्रिया के साथ नहीं जाता।  बात भी कम करता।  उस नन्हे मस्तिष्क में न जाने क्या चल रहा था।  बारह साल का मानस उम्र से अधिक गंभीर हो चला था।  शुरुआत में क्रिया ने भी ध्यान नहीं दिया पर समय के साथ साथ क्रिया को भी अजीब लगने लगा था।  अब न प्रणय उससे गाना गाने के लिए ज़िद करता और न ही उसकी आँखों की बुराई करता।  

एक दिन बीता  … फिर दो, फिर पांच  … यथार्थ के मन में पहली  बार एक हूक सी पैदा हुई।  क्यों ? क्यों आजकल प्रणय क्रिया के साथ नहीं आता ? पर यथार्थ तो यथार्थ था ! मुद्दतों बाद प्रणय  के लिए पनपी इस हूक को भी उसने संवेदना से शून्य अपने हृदय में कहीं दबा दिया।  और फिर  … 

… यथार्थ भी शायद नहीं जानता था कि प्रणय को वह फिर कभी नहीं मिल पायेगा।  पत्थर बनी क्रिया ने एक महीने बाद एक मुड़ा - तुड़ा कागज़ का टुकड़ा लाकर यथार्थ के हाथों में दिया और इतने सालों में पहली बार चली गयी , वह भी दो मिनटों में ! आज न हवा चली , न उसके बाल उड़े , न वह गुनगुनाई ,  न ही कुछ कहा !
यथार्थ उसे जाते हुए बस देखता रहा - दूर तक ! हाथ में कागज़ का वह बेजान - सा टुकड़ा फड़फड़ाने का असफल प्रयास कर रहा था।  आज पहली बार यथार्थ के मन में एक उथल - पुथल मची हुयी थी मानो सिमटा हुआ सा एक तूफ़ान बाहर आने के लिए तड़प रहा हो , और यथार्थ को भी तड़पा रहा हो ! पहले कम, फिर ज़्यादा , फिर और ज़्यादा - यथार्थ के हाथ कांपने लगे थे।  संज्ञा - शून्य से उसके मानस- पटल पर न जाने कितनी ही बातें दस्तक दे रहीं थीं।  पहले जाती क्रिया को और फिर एकटक क्षितिज को बहुत देर तक निहारता रहा।  आँखें क्षितिज से हटीं ही थीं कि यथार्थ की नज़र उस नीली आँखों वाली लड़की पर पड़ गयी जिसे प्रणय चुपके - चुपके निहारा करता था।  कहीं - न - कहीं यथार्थ भी उस चोर - नज़र को चोरी - चोरी ताकता था।  एक हल्की - सी मुस्कराहट यथार्थ के पतले होठों पर बिखर गयी।  सोचा - कल यथार्थ से खुद ही मिलूंगा और उस नीली  आँखों वाली लड़की के नाम से सताऊंगा , बताऊंगा कि मुझे सब पता है ! सोच ही रहा था यथार्थ कि एक झोंका सा आया बयार का।  फड़फड़ाने की आवाज़ आई। नज़र कागज़ पर गयी।  धीरे - धीरे सिलवटें खोली - 

" यथार्थ भैया  … 

बहुत मेहनत के बाद मुझे आपका नाम लिखना आया है। आपका नाम सुन्दर है पर मुश्किल भी तो कितना है। मैंने अपनी हिंदी वाली टीचर से सीखा है। भैया, मैं जा रहा हूँ  - क्यों , कैसे - पता नहीं , या शायद पता है पर कहना नहीं चाहता ! पर जानता हूँ कि आपको पता चल जायेगा - जीजी से, या फिर मेरे दोस्तों से , या फिर मेरे स्कूल की वो हिंदी वाली टीचर से। खैर छोड़िये -
भैया, मुझे पता है कि आप जानते हो मुझे वह लड़की जिसकी आँखें नीली नीली सी हैं , बहुत अच्छी लगती है। है न ? मुझे पता है कि आप मुझे चुपके - चुपके देखते थे।  पर भैया, आपने कभी कुछ कहा क्यों नहीं ? जब भी मिलता , सोचता कि आज आप ज़रूर बात करोगे , गोद में उठाओगे , गालों पर प्यार से एक थपकी दोगे  … !
एक बार क्रिया जीजी से पूछा था मैंने - आप मुझसे बात क्यों नहीं करते। तब जीजी ने कहा था कि जब मैं कुछ अच्छा करूँगा तब आप मुझे ढेर सारा प्यार करोगे। 
भैया , वादा करो कि आप मेरी यह पहली और आखिरी बात मानोगे।  मैं चाहता हूँ कि  जब मैं भगवान जी के पास जाऊं , तब आप मेरी आँखें क्रिया जीजी को दे देना।  आप मेरी मदद करोगे न  … ? मैं हमेशा से चाहता था कि मेरे जीजी मेरे यथार्थ भैया को देखें जो उनसे इतना प्यार करते हैं। 
मैं इससे बड़ा काम नहीं कर पाऊँगा , भैया।  और हाँ ,  भैया, मैंने अपनी कुछ तसवीरें छोटे कमरे की अलमारी में रखी हैं।  जीजी को दिखाना। 
बस एक आखिरी बात , भैया  …! आपको पता है , मैं हमेशा ही आपकी आँखों को छूना चाहता था। इसलिए , एक बार मेरी उँगलियों को अपनी दोनों आँखों पर फेरना  … !
आपसे ढेरों - ढेर बातें करना चाहता हूँ भैया  … पर  … !
मेरी जीजी को मेरी तरफ से ढेर सारा प्यार देना और कहना कि अब उनकी आँखों की बुराई कोई नहीं करेगा। 

चलता हूँ , भैया !

काश … !

प्रणय "

*****

  

प्रणय (१/२ )

Reminiscences from my diary
May 9, 2010
8 PM, Greater Noida


यथार्थ के जीवन में वह आंधी की तरह आया और तूफ़ान की तरह चला गया  … रोते हुए आया था और रुलाकर चला गया।  रोती हुई उन भीगी पलकों ने जब यथार्थ की आँखों में अपना चेहरा प्रथम बार देखा था , तब यथार्थ भी नहीं जानता था कि एक दिन , एक लम्हा ऐसा भी आएगा जब यथार्थ की रोती हुई आँखें , आंसुओं के सैलाब को रोकने का असफल प्रयास करती पलकें 'उसकी' आँखों में अपना चेहरा देखना चाहेंगी और वह  … वह तो बस आँखें मूंदे  .... आँखें! न, आँखें न तो खुली थीं , न बंद थीं !

प्रणय ... प्रणय नाम था उसका या  यूँ कहूँ कि क्रिया ने नाम दिया था उसे  … प्रणय ! मैले से एक तौलिये में लिपटाये शायद कहीं किसी कोने में छोड़ जाने की बदहवास कोशिश करते एक शराबी पिता या चाचा या बस शराबी के हांथों से छीना था यथार्थ ने उसे।  सांवले से हल्का सांवला रंग , दांयी पलक के पास एक प्यारा सा तिल , आंसुओं के निशान से काले पड़े गोल गोल कपोल , पतले  पतले हलके गुलाबी होंठ और होंठों पर एक करुण रूदन और रूदन भी अलग सा - कानों में मिश्री सा घोलता।

पर … यथार्थ ! पाषाण हृदय था यथार्थ ! चिढ़ता था ऐसों से और  बच्चों से भी ! प्रारम्भ में स्वयं को धिक्कारा कि पता नहीं , किन भावनाओं के आवेश में उसने इस बच्चे को  … शराबी पिता  … और माँ ? उफ़्फ़ ! अब क्या किया जाये ! एक बार सोचा कि किसी अस्पताल की दहलीज़ पर  … या फिर हमेशा जैसा होता आया है - किसी मंदिर की आखिरी सीढ़ी पर  … ! अंत में उसने ठाना कि अनाथालय में देना  ही सही है।

न जाने कैसा मानस था यथार्थ का ! पता नहीं, ईश्वर ने किस मिट्टी से उसका सृजन किया था ! अकेला …उदास… अपने में डूबा सा ! कभी लगता कि कुछ तो है जो यथार्थ को हमेशा परेशान करता है  , उसे हमेशा परेशान रखता है ; तो कभी लगता कि बात कुछ नहीं , उसे बस अकेला रहना पसंद है।  सुन्दर था यथार्थ… शायद! लम्बा माथा , गौर वर्ण , बड़ी नीली आँखें , सुदीर्घ ग्रीवा , कान ऐसे कि सीधे अजंता - एलोरा की गुफाओं में बनी शिव की प्रतिमायों की याद दिला दें , और होंठ ऐसे कि कान्हा की बांसुरी भी उन्हें छूकर तान छेड़ना चाहे ! ऐसा था यथार्थ ! सब कुछ था उसके पास या फिर कुछ भी नहीं ! कभी कभी पेड़ से लिपटने के बाद भी कोई वल्लरी संज्ञा-शून्य हो किसी सावन के टुकड़े की प्रतीक्षा में अपनी हरीतिमा खो देती है।  यथार्थ का जीवन एक खुली किताब होकर भी लगता मानो किसी गहन कानन की गहन कालिमा में छिपा हुआ है।  किसी और के उसके जीवन में अचानक ही आने पर न कोई परिवर्तन आ सकता था , और न ही आया ! उन नन्ही आँखों में देखा तक नहीं था उसने कभी। उस पहली बार भी प्रणय को ऐसे उठाया था उसने मानो वह नवजात शिशु ईश्वर की सुन्दर कृति न होकर कोई घृणात्मक पदार्थ हो !

उस जीर्ण - शीर्ण अनाथालय के दीमक लगी लकड़ी के चिरमिराते दरवाज़े पर वह उसे रखने ही वाला था कि लाख की चार चूड़ियों से सजी एक सांवली कलाई ने उसे रोक लिया।  वही क्रिया थी , क्रिया … जिसने उस मासूम को एक और वात्सल्य - शून्य अंक से छीनकर अपने मातृत्व में समेट लिया। एक क्रिया ही थी जिससे वह मन से मन की बात करता था जब  भी उसका मन करता था।  यूँ तो वह आम दुनिया की परिभाषा अनुसार इतनी सुन्दर नहीं थी , पर एक अलग सा आकर्षण था उसमें , उसकी उन आँखों में , उसकी आवाज़ में जिसने अनायास ही यथार्थ को आकृष्ट कर  लिया था। क्रिया ही उसके लिए वह एकमात्र सावन का टुकड़ा थी। शायद राहें कहीं मिलती थीं उनकी , उनकी आहों का भी मेल था। पता नहीं , कैसी रेखाएं थीं उनके हाथों की और कैसा था उन रेखाओं का खेल कि सबको अपनी ओर खींचने वाला यथार्थ सिर्फ़ सांवली सलोनी क्रिया को अपना मानता था , यह अलग बात है कि अपनेपन की परिभाषा उसकी दुनिया में कुछ अलग ही थी जिसे समझने का उसने स्वयं भी कभी प्रयास नहीं किया।  शायद तभी तीन सालों के साथ के बाद भी वह यह नहीं जान पाया कि  अपनी - सी लगने वाली यह बेगानी लड़की आखिर उसकी कौन थी।  दोनों ही उस अनाम रिश्तों को बस जिए जा रहे थे  … 

… और क्रिया ! चंचल - सी , मासूम - सी , शिवानी की कृष्णकली जैसी ही कृष्णवर्णा थी और विधाता ने उस श्याम वर्ण में श्याम जैसा ही सौंदर्य प्रदान किया था।  उसकी लम्बी, गोलाई में आती नाक और उसमें पहना सोने का बारीक तार उसके लावण्य की इकाई में असंख्य शून्य लगा देता था।  हमेशा हंसती रहती थी, कनक की बौर की तरह बौराई बौराई रहती थी।  अपने मोहल्ले में सबकी लाडली थी क्रिया। लम्बे , घने बालों को अक्सर खुला रखती थी मानो बालों के पीछे कुछ छिपाया हो।  रखती भी क्यों न ! अनजाने से बंधन में बंधे यथार्थ को  खुले बाल जो पसंद थे।  एक पल के हर पल में सिर्फ यथार्थ को महसूस करती थी।  निस्स्वार्थ , निश्छल , परिपक्व , वासना से कोसों दूर - ऐसा अलग - सा प्रेम था उनका , मानो तेज़ बारिश में खुले आकाश में दो पंछी उड़ रहे हों।  सिर्फ़ क्रिया ही थी जिसके साथ वह मुस्कुरा पाता था और यही मुस्कराहट वह दिन के बाकी पहरों में सहेजता था। 

भावना से रहित यथार्थ प्रेम करता था क्रिया से - पूर्णतया समर्पित प्रेम ! दिन में बस एक घंटा मिला करते थे दोनों - ऊर्मियों के पाश में, नील सलिल किनारे, खुला आसमान , नारियल के पेड़ों की लम्बी कतारें , ठंडी बालू को स्पर्श करते चार पाँव और पाँव के  नीचे चुभते छोटे छोटे कंकण - सभी साक्षी थे उस अनूठे प्रेम के।  एक दूूसरे की भावनाओं को रूह तक स्पर्श कर चुके थे दोनों।  मौन - मूक प्रेम का ऐसा दृष्टांत शायद न कभी किसी ने देखा था , न ही सुना था।  दोनों बस टहलते रहते थे सागर किनारे - कभी दो लब्ज़ भी नहीं कहते थे एक दूूसरे से उस एक घंटे में , तो कभी दुनिया भर  बातें कर लेते थे उसी  एक घंटे में। क्रिया का कंठ बहुत  सुरीला था। जब कभी वह गुनगुनाती , तो यथार्थ सब कुछ भूलकर क्षितिज की ओर ताकता रहता और क्रिया को सुनता रहता। कुछ सोचा करता था वह , पर क्या  … यह शायद उसे भी नहीं पता था।  दोनों उस एक घंटे में पूरा दिन जी लिया करते थे।  यथार्थ क्रिया की आवाज़ को रोशनी देना चाहता था।  कभी कभी उसे लगता मानो सातों सुरों ने शायद क्रिया की आवाज़ को अलंकृत करने के लिए ही अस्तित्व धारण किया है।  यथार्थ के जीवन का एक ही लक्ष्य था - उसकी आवाज़ को रोशनी देना , कम से कम उसकी आवाज़ को  … !

उसी क्रिया का हाथ था वह - चार चूड़ियों से सजा ! प्रणय की किलकारी ने एक विचित्र सी उमंग पैदा कर दी थी।  उसे समझ ही नहीं आया कि यह क्या है ! क्या वात्सल्य को गरिमा प्रदान करने की लालसा या फिर अपने सूने घर में किसी और के होने की चाह या फिर अपने दिन के तेइस घंटों में स्वयं को व्यस्त रखने का तरीका !! कुछ चल रहा था क्रिया के मन में।  दो क्षण रुकी , और फिर तीसरे ही पल बिना कुछ कहे , बिना कुछ सुने , यथार्थ के हाथों से उस कली को अपने हरे दामन की बगिया में समेटती चल दी अपने घर की ओर।  वह नाराज़ नहीं थी यथार्थ पर, उससे होने जा रहे इस कृत्य पर , उस बच्चे के लिए पनपी उसकी बेरूखी पर - क्योंकि वह जानती थी यथार्थ को।  जो व्यक्ति दिन का अधिकांश समय अकेले में बिताना पसंद करे , जिसने अपनी दुनिया को एक संकीर्ण सी परिधि में बाँध लिया हो , तब बाहरी दुनिया से अचानक ही आये  किसी जीव के लिए मुश्किल हो जाता है उस परिधि को पार करना।  मनोविज्ञान के इस गूढ़ दर्शन  से भली - भांति परिचित थी क्रिया। क्रिया के जाते ही हमेशा की तरह बिना पीछे देखे फिर से अन्यमनस्क सा अपनी दुनिया की ओर लौट आया  यथार्थ !

अगले दिन से ही कुछ परिवर्तन हुआ  …. 

… शेष अगले अंक में !