Saturday 26 June 2021

The white shirt

Reminiscences from my diary
June 27, 2021
Sunday, 00:30
Murugeshpalya, Bangalore


इंसोम्निया आम रातों की तरह -
पसरा हुआ है !
बाहर,  हल्की बौछार!
रेडियो पर अल्का का गाना चल रहा है  -
"तुम साथ हो या न हो, क्या फ़र्क है  .."
बेतरतीब हुई अपनी अलमारी को -
थोड़ा सँवारने की कोशिश कर रहा था -
बहुत दिन हो गए यूँ भी !

दायीं ओर का सबसे ऊपर वाला खाना -
ठीक करते - करते 
मेरे हाथ में आ गई -
एक शर्ट 
वही शर्ट 
वही सफ़ेद शर्ट 
सफ़ेद शर्ट जिस पर चारकोल जैसे रंग से -
धारियाँ पड़ी हुई हैं 
काली नहीं, काली - सी ही !

उँगलियाँ रुक गईं -
आँखें भी, मन भी, पल भी !
मुस्कान आई, चली गई -
फिर आई है, पर आधी सी !
पानी भी आया आँख में -
आधा-सा आँसू लुढ़क पड़ा है -
गाल पर !

कसकर दोनों हथेलियों में 
दबा रखा है इसे !
उतनी सफ़ेद नहीं रही अब  !
हल्के - हल्के निशान भी हैं यहाँ - वहाँ !
पूरी आस्तीन पूरी नहीं लग रही !
बटन पूरे हैं पर, एक भी नहीं टूटा !
सूँघ रहा हूँ !
दिसंबर की एक कुहासी शाम को ढूँढ रहा हूँ !
शाम, जब तूने -
सड़क पर टहल-कदमी करते हुए -
अचानक ही -
अपने बस्ते से यह सुन्दर सफ़ेद शर्ट निकाली 
और मुझे थमा दी थी !

मेरे जन्मदिन का तोहफा !

मुद्दत बाद कोई तोहफा मिला था !
आदत नहीं थी, मैं ठिठक पड़ा !
लेने से साफ़ इंकार कर दिया था !
कॉलर देखकर कहा था -
"यह तो बहुत महंगी होगी!"
कैसे ऐनक नीची कर आँखें तरेरकर -
मेरा बस्ता छीनकर उसमें रख दी थी -
यह सफ़ेद शर्ट !

मुझे कोहरा भी बारिश लगा था तब !

रेडियो पर अभी भी गाना चल रहा है -
"तुम साथ हो या न हो क्या फ़र्क है ..."


Wednesday 23 June 2021

Surroundings

Reminiscences from my diary
June 23, 2021
Wed, 10:20 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पूरा चाँद 
अधबुने बादल 
सर्द बयार 
गर्म साँस  
गीले तार 
झूलती बूँदें 
नहाई गली 
काँपता कबूतर 
बिखरे कनेर 
सिमटा गुलमोहर 
नपता पहर 
छूटता दिन 
कौंधती स्मृतियाँ 
बिसरते चेहरे 
मूक चुभन 
मूक चुभन 

Tuesday 15 June 2021

Grievances 

Reminiscences from my diary

June 15, 2021
Tuesday, 10:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore


कल ही की तो बात है !
साँझ की बाती करते हुए 
साईं से बुदबुदा रहा था 
शिकायत, असल में कि -
ठीक है 
जो अब नहीं है 
जिसकी वापसी अब मुमकिन नहीं 
न सही 
पर पहले, कमसकम -
एक ज़रिया तो था -
नींद का
जिसमें मैं -
गाहे - बगाहे 
रु-ब-रु हो जाया करता था -
दुनिया के सबसे अज़ीज़ चेहरे से 
और -
दो सपनों के बीच 
जितनी भी कसक रिसती थी 
सब धुल जाया करती थी !

एक आलम अब है कि -
उम्र बढ़ने के साथ 
आँख -
रात - रात भर 
मकड़ी - सी 
कुछ बुनती रहती है हवा में !
न नींद आती है
न कोई सपना !

डरने लगा हूँ 
क्योंकि -
पहले की बनिस्बत 
पलकें मूंदने पर -
चेहरा, चेहरे की बनावट 
साफ़ नज़र नहीं आती !
मशक्कत करनी पड़ती है 
टुकड़ा - टुकड़ा जोड़ -
याद - याद जोड़ -
उसे पूरा करने की, पर -
कुछ न कुछ छूट जाया करता है !
कितने ही वक़्त से यही हो रहा है !
मैं हैरान, परेशान रहने लगा हूँ !

खैर -
मैं कल ही साईं से यह सब 
साझा कर रहा था 
और -
साईं ने कल रात ही 
एक निहायती खूबसूरत 
नींद बुन डाली 
और उसमें टाँका -
आकाशगंगा का सबसे चमकीला सपना !

सुनो !
चौबीस घंटे होने को आए हैं !
मैं अभी भी -
हूक़ -
मुस्कान -
स्पर्श -
नमी -
और
तुम्हारे पूरे चेहरे की ख़ुमारी में हूँ !