Being stubborn
Reminiscences from my diary
Oct 30, 2022
Sunday, 03.20 am
Delhi
दो अल्हड़ मन
दो अल्हड़ ज़िदें
एक ज़िद ज़िद न करने की
एक ज़िद यह ज़िद न मानने की
हो यूँ जाता है फिर कि -
पास, या बहुत पास
होते हुए भी
दूरियाँ
घट नहीं पातीं
सुनो, यह तो बताओ,
ज़िदों की इस पसोपेश में
कौन और क्या बीतता है?
वक़्त,
उम्र
या
दो अल्हड़ मन?