Monday 28 December 2020
Wednesday 9 December 2020
Thursday 3 December 2020
Sounds at 2 AM
Reminiscences from my diary
Nov 30, 2020
Reminiscences from my diary
Monday, 2.15 am
Murugeshpalya, Bangalore
इस एक पल -
अचानक ही घड़ी पर नज़र पड़ गयी!
रात के दो बज गए हैं!
ओह!
दो!
यह तो बहुत कम समय रह गया भोर होने में!
पर नींद?
उफ्फ़!
ज़रूर आते - आते नींद की कहीं आँख लग गयी है!
इस एक पल -
सन्नाटा पसरा हुआ है!
नीरव!
नीरस!
निर्जन!
हालांकि -
मुझे महज़ दो आवाज़ें -
साफ - साफ सुनाई दे रही हैं!
एक आवाज़ तो अपनी साँस की ही है!
मुद्दत बाद गौर कर रहा हूँ कि -
कैसे मेरी साँस -
अंदर - बाहर
आते - जाते
शोर मचा रही है!
"मैं भी हूँ, मैं भी हूँ.."
"जानता हूँ रे! तभी तो मैं हूँ!"
दूसरी आवाज़ -
झींगुरों की है!
दो हैं?
दस हैं?
या फिर तारे जितने?
पता नहीं!
और -
यह भी नहीं पता कि -
असल में -
है कहाँ यह टोली!
कमरे में तो नहीं है!
ज़रूर बाल्कनी में -
मनी-प्लांट
या ऐलोवीरा
या फिर निम्बोली के आस - पास कहीं -
झनक रहे हैं!
खैर ..
इस एक पल -
यही दो आवाज़ें हैं !
हाँ!
बस दो!
बाकी तो बस वही -
सन्नाटा!
मौन - मूक सन्नाटा!
अरे!
तुम भी हैरान हो गए क्या?
कहो तो!
वैसे -
मैं भी हूँ -
हैरान!
मैं खुद -
काफी देर से टटोल रहा हूँ
इधर - उधर ताके जा रहा हूँ
पर -
मेरे रतजगे में -
आज
तुम्हारी आवाज़ -
दूर - दूर तक नहीं है..!
Friday 23 October 2020
It was your photograph!
Reminiscences from my diary
Oct 23, 2020
Friday, 07.00 pm
Saharanpur
हुआ कुछ यूँ आज कि -
मुद्दत बाद एक दोस्त ने याद किया।
मुझे हल्का - हल्का याद है कि आखिरी बार, उससे बात -
अरसा पहले फूजी की चोटी देखते हुए की थी।
अपने देश से सैकड़ों मील दूर, हम -
इत्तेफाक़न एक ही समय में एक ही दूसरी मिट्टी नाप रहे थे, हालांकि -
मिलना नहीं हो पाया था तब भी!
तो खैर, कुल मिलाकर -
इन साहब से पिछले दस सालों में -
एक मुलाकात,
और आज को मिलाकर -
कुल तीन दफ़ा बात हुई है!
बात करते करते साझा की उसने -
एक पुरानी तस्वीर!
सुंदर तस्वीर!
यह तस्वीर मेरे पास नहीं थी।
शुक्रिया कहा उसको -
बिसरी गली में ले जाने के लिए!
बातें होते होते कम हुई जा रहीं थी,
एक सवाल कौन्धा मन में तभी कि -
आज अचानक इतने वक़्त बाद कैसे याद आ गयी!
कहने लगा - तस्वीर देखी, और बस..!
मैं खुश - सा हुआ पर, अगले ही पल, हैरान!
मैं तो उस तस्वीर में हूँ भी नहीं, मैंने कहा!
उसने कुछ नहीं कहा! बस हँस दिया!
सुनो!
सुन रहे हो?
मुझे याद आ गया है।
यह तुम्हारी अपनी सबसे पसंदीदा तस्वीर थी न?
Wednesday 22 July 2020
You could be but you!
Reminiscences from my diaryJuly 23, 2020
Thursday, 01:30 am
Murugeshpalya, Bangalore
सोचो ! अगर तुम होते -
एक दीवार
तो मैं, तुम पर
चढ़ता
उतरता
और फिर चढ़ता
एक मटमैला रंग होता !
और अगर होते तुम -
एक दरख़्त, तो ?
मैं तब बन जाता
तुम्हारी कोटर में छिपाई
निम्बोली, या
कच्चा आम, या
बचपन का कोई ग़ुम आना !
होने को तो तुम हो सकते थे -
कोई दरगाह
मैं हो जाता फिर
किसी मन्नत
किसी ख़्वाहिश
किसी ख़ुशबू में लिपटा
एक धागा !
अगर सोचूँ तुम्हें -
धूप
तो खुद को पाऊँ
तुम्हारी राख में
तुम्हारी राख से
साँस सींचती
अधबुझी आग !
और 'गर मानूँ तुम्हें -
अंजुली भर
तो मैं
तुम्हारी ओक में सिमट जाता
एक आँसू बनकर
या होकर
एक समंदर !
तुम कुछ भी हो सकते थे, बस -
सिर्फ़ तुम नहीं होना था तुम्हें !
हुआ यूँ कि -
तुम्हारे महज़ तुम होते ही
मैं मैं नहीं रहा ... !
Monday 22 June 2020
Maurya
Reminiscences from my diary
June 23, 2020
Tuesday, 00:30 hrs
Murugeshpalya, Bangalore
याद है, कैसे वह पूरा दिन
झल्लाहट में बीता था तुम्हारा
और तुम्हें देख - देख मेरा ?
तकदीर दिन की ख़राब थी या तुम्हारी -
आज भी बूझता हूँ जब सोचता हूँ ...
उस दिन इतने सालों में
पहली बार
तुम्हारा गुस्सा देखा
कैसे तुम्हें भरे ऑडिटोरियम में
बाहर निकल जाने को कहा गया था !
कैसे तुम पैर पटककर
गाली देते हुए
एकदम चले भी गए थे ...
अपने को पहले पत्थर, फिर -
पत्ते - सा काँपते हुए पाया था
दस ही मिनट में, मैं भी -
सब छोड़ - छाड़कर
तुम्हें ढूँढने निकल पड़ा था ...
तुम अपने कमरे में आ गए थे
कुछ शांत
कुछ भरे हुए
जो हुआ, क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ
उसका ज़िक्र न तुमने किया
न मैंने ...
तुम्हें कुछ देर अकेला छोड़ना सही रहेगा
यह सोचकर
मैं अपने कमरे में आ गया था
पर
तुम तो ठहरे तुम
कब ठहरे मेरे बिना
दस ही मिनट में -
तुम मेरे दरवाज़े पर
ग्यारहवे मिनट में -
मेरे बिस्तर पर
चौकड़ी मार, ऐनक चढ़ा -
बिना कुछ कहे
अपना लैपटॉप खोल
काम करने में हो गए थे मशगूल ...
मैं हैरान, हमेशा की तरह
कैसे तुम -
अपने अंदर के झंझानल को
इतनी आसानी से
बिसरा गए थे ...
मुझे पता नहीं क्या सूझा था
उस एक पल -
अपने मिट्टी के रंगों को
ज़मीन पर फैलाकर
अचानक से ही -
चूने की दीवार पर
कुछ उकेरना शुरु कर दिया था
कैसे तो सारे हाथ, कपड़े, चेहरा
सब रंग - रंग हो गए थे
मानो -
हुसैन का भूत उतर आया हो अंदर मेरे ...
लगभग डेढ़ घंटे तक साँस नहीं ली थी मैंने
लगभग डेढ़ घंटे तक तुम्हें देखा तक नहीं था मैंने
तुमने भी कुछ नहीं कहा, बल्कि -
गाने चला दिये थे !
गाने चलते रहे
दीवार रंगती रही
तुम भी हैरान
मैं भी हैरान
ढलता सूरज भी हैरान ...
हमने पाया, हमारे सामने -
बिखरे रंगों के बीच
हर तरह के रंगों से रंगे
एक पाँव पर नाचते
अपने में ही डूबे
गणपति !
मैंने पूछा - क्या नाम दूँ ?
फट से तुम्हारे मुँह से निकला था -
मौर्या ...
कैसे तुम खुली आँखों से देखते रहे
कभी मुझे
कभी मौर्या को !
कैसे तुमने अचानक से
बिस्तर पर ही खड़े-खड़े
मुझे गले लगा लिया था !
कैसे सुबह से भूखे हमने
कमरे में ही एक साथ
रात का खाना छककर खाया था !
उस रात -
मौर्या ने तुमसे साँसें पाईं थीं ...
साल - दर - साल
उस पर, चूने की -
न जाने कितनी ही परतें चढ़ गईं होंगी ...
आज सब दफ़न है !
वह दिन दफ़न
वह शाम दफ़न
तुम दफ़न !
जाते - जाते, काश तुम -
बता ही जाते
उखड़ी उधड़ी साँसों में जीते
मौर्या की -
और
मौर्या को रंगने वाले की -
मुक्ति का कोई उपाय !
Tuesday 16 June 2020
Sunday 7 June 2020
The Universal Conspiracies
Reminiscences from my diary
June 07, 2020
Sunday, 10:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore
कितना सहज होता है
महज़ एक प्रतिबिम्ब का
यूँ ही, अनायास -
एक समूचे अस्तित्व को
स्वयं में समेट लेना !
उतना सहज नहीं होता
एक अस्तित्व का
अपना यथार्थ बचाने के लिए
बिन कारण ढाँपते
बिम्ब से लड़ पाना !
विचित्र द्वंद्व है
कब कौन जीता
कब किसकी हार हुई
जो जीता, क्या वह वास्तव में विजयी हुआ
जो हारा, वह चिर - श्रापित क्यों रहा
नक्षत्र ही जानें !
आप और मैं यदि जानते
या जान पाते
तो
चन्द्रमा को ही
हमेशा
ग्रहण लगने का
उलाहना न देते !
Friday 5 June 2020
Eclipsed!
Reminiscences from my diary
June 05, 2020
Friday, 11:30 pm
Murugeshpalya, Bangalore
सुनो !
तुम आज सुन्दर दिख रहे हो
बहुत ही ज़्यादा सुन्दर
शांत, श्वेत, उज्जवल
प्रकार से खींचा एक अचूक वृत्त !
तुम्हारे ऐसे रूप पर
मेरा रोम - रोम बलिहारी
मेरा पल - पल न्योछावर
मैं ही नहीं -
छितरी - बिखरी - मचली -
घटाएँ
खुशबुएँ
हवाएँ
सभी बौराये हुए हैं -
तुम्हारे सलोनेपन पर !
कोई जादू, कोई मन्त्र फूँका है क्या आज ?
है न ?
सच कहो तो ज़रा !
आज अभी कुछ ही देर में
तुम्हें
मेरी धरती, अपनी छाया से -
ढक देगी !
ऐसा लोग कह रहे हैं !
जानते हो तुम ?
मुझे यह ख़्याल कई बार कौंधा जाता है -
कैसा लगता होगा तुम्हें
जब - जब
तुम्हें
ग्रहण लगता है !
चिंता - आक्रोश - भय - शोक - ग्लानि - पीड़ा - कसक ?
क्या ?
और क्यों ?
तुम्हारा क्या दोष ?
अगर कुछ महसूस होना ही है तो
पृथ्वी को हो !
किंवदंती चंद्र - ग्रहण की नहीं
पृथ्वी - ग्रहण की होनी चाहिए !
है न ?
मुझे पता है, तुम -
आज का कल होने की
राह तक रहे हो !
कल तुम मुक्त हो जाओगे
फिर से
शापित से श्रापहीन !
फिर से
शांत, श्वेत, उज्जवल
अपने में ही डूबे हुए !
जानते हो ?
ऐसे ही, एक बार -
मुझे भी
ग्रहण लगा था !
जानते हो ?
मैं, आज तक भी -
नहीं बूझ पाया
अपनी मुक्ति का कोई उपाय !
Saturday 2 May 2020
Let's make a deal
Reminiscences from my diary
May 2, 2020
Saturday, 09:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore
सहर
शब
रतजगे
सराब
नाम
मुश्क़
उल्फ़त
रक़ीबी
हिज्र
तबस्सुम
लम्हा
छुअन
प्यास
हर्फ़
इल्तज़ा
तड़प
कशिश
आज़ार
शिकायत
जवाब
सवाल
नज़र
वादा
अना
रूह
नफ़स
सुनो! सब तुम्हारे -
सब तुमसे -
और तुम कहो तो -
सबकी गठरी बना
साँस-साँस ढो लूँ,
निजात दे दूँ सबसे तुम्हें, पर -
शर्त है एक !
तुम्हारे पास अटका हुआ मेरा 'मैं'
मुझे लौटाना होगा !
मंज़ूर हो 'गर -
तो सौदा आगे बढ़ाएँ ...
Saturday 14 March 2020
Once displaced, forever displaced!
Reminiscences from my diary
Mar 14, 2020
10:40 pm
Murugeshpalya, Bangalore
कितने ही दिनों से मन में कहीं किसी कोने में दबी एक फांस को निकालने की कोशिश कर रहा हूँ। कैसी फांस है ? कब चुभी ? कहाँ चुभी ? क्यों चुभी ? फांस ही है या कुछ और ? कोई टीस, कोई घुटी हूक ? क्या द्वंद्व है ? कैसी अन्यमनस्कता है ? समझ नहीं पा रहा हूँ ! अचानक से मुद्दत बाद एक ऐसे मोड़ पर खड़ा हूँ जहाँ एक बार फिर सोच रहा हूँ कि जब लोग एक जगह को हमेशा के लिए छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं, तो उन पर यह प्रतिबन्ध होना चाहिए कि वे जाने से पहले स्वयं से जुड़ी हर स्मृति को विस्मृति कर जाएँ। मैं समझता हूँ कि ऐसे हर व्यक्ति के पास अपने विस्थापन का पुष्ट कारण होता होगा, पर जो मैं नहीं समझ पाता हूँ वह यह कि जाने वाला व्यक्ति किस अधिकार से उन मैत्रियों, उन संबंधों, उन घनिष्टताओं को तार - तार कर जाता है जो कभी उसने ही उगायीं थीं। पीछे छूट गए लोगों का क्या कसूर है ? क्यों वे अपनी स्मृतियों की पोटलियों को और भारी करें ? क्यों वे पल - पल उन पलों को याद करें जो कभी उन जाते हुए लोगों से बने - सजे थे।
पीछे छूट गए, या छोड़े गए लोगों के लिए यूँ तो सब वैसा ही रहता है - वही दिनचर्या, वही दिन, वही रातें, वही शामें, वही जगहें, वही मोड़, वही सड़कें, वही गलियाँ, वही चाय की टपरियाँ, वही पेड़ - पौधे - फूल, वही रोज़मर्रा की दुकानें, उन दुकानों के वही नौकर, वही मालिक, बस एक चीज़, एक ही चीज़ जो पहली जैसे नहीं रहती, वह है वे स्वयं ! उनके अंदर शायद कुछ टूट जाता है, कुछ छूट जाता है हमेशा के लिए ! एक अजीब - सा मौन कहीं से आकर अंदर घर कर जाता है ! बात महज़ इतनी सी है कि कुछ लोग इस मौन में दबी चीत्कार सुन पाते हैं और कुछ नहीं सुन पाते हैं !
जाने वाला व्यक्ति शायद एक बार विस्थापित होता है, पीछे छूट गए लोग हर दिन, हर पल विस्थापित होते हैं। एक अंतराल के बाद यह विस्थापन और इससे उपजी कसक उनमें भावहीनता का बाँध इतना ऊँचा बना देती है कि फिर कोई सुख, कोई दुःख उन्हें छू नहीं पाता, विचलित नहीं कर पाता। यह कसक ही उनकी अमरता की हद तक की जिजीविषा बन जाती है और यह बात तो सही नहीं है। जाने वाले व्यक्ति को जाने से पहले अपने निर्मित सभी सेतुओं को ढहाकर जाना चाहिए। हो सकता है, ऐसा करने से नयी स्मृतियों की नौकाओं को किनारा न मिले और वे स्वयं ही किसी भंवर में हमेशा के लिए समा जाएँ। और तब पीछे छूट गए लोगों को सांस लेने के लिए किसी दर्द की ज़रुरत नहीं पड़ेगी।
सवाल है कि क्या ऐसे विस्थापनों को परिवर्तन कहा जाना चाहिए ? जाने वाला व्यक्ति कहता है - हाँ ! मात्र परिवर्तन ही तो है , एक आम - सा बदलाव ! और याद दिलाता है पीछे छूटे या छूटने वालों को कि परिवर्तन तो संसार का नियम है, कि लोग मिलते ही बिछड़ने के लिए हैं, कि जीवन में लोगों का आना - जाना तो लगा ही रहता है .. वगैरह वगैरह ! मैं कहता हूँ - इन नियमों को माना ही जाए, यह कहाँ का नियम है ? मैं इस बारे में जितना भी सोचता हूँ, उससे यह निष्कर्ष ही निकाल पाता हूँ कि जाता हुआ व्यक्ति अक्सर ही अचानक से निस्संगता की चादर ओढ़ लेता है, अचानक से हो जाता है बधिर - अस्थियों तक, और कब आनन - फानन में सब छोड़कर, सब भूलकर दूर, बहुत दूर चला जाता है, पता भी नहीं चल पाता !
पीछे छूट गए, टूट गए लोग बस सूखी आँखों और मौन अधरों से देखते रह जाते हैं, एक मिथ्या, एक अव्यावहारिक सांत्वना की छाती पर सिर टिकाये हुए कि कभी तो वापसी होगी, कि कभी तो लौटना होगा जाने वाले का, कि दूर गया व्यक्ति उसी शिद्दत, उसी गर्मजोशी से पास नहीं पर साथ तो रहेगा ... यह जानते हुए भी कि जो जाता है पूरा, वह फिर कभी पूरा लौटता है भला ?
Friday 6 March 2020
Reminiscences from my diary
March 06, 2020
Friday 4 pm
GS, Bangalore
सुनो!
तुम्हारे मौन
और मेरी कसक की गिरहों ने
जो सेतु बनाया था -
मैं
कब से, उस पर
मौसम - मौसम
साँस - साँस
चला जा रहा हूँ
चले ही जा रहा हूँ
पर
इसको पार नहीं कर पा रहा हूँ !
जितना बढ़ता हूँ
इसका छोर, उतना ही
दूर होता जाता है
मानो
छोर छोर न हो, क्षितिज हो !
पता है?
जब - जब साँझ घिरती है
तब - तब
इन मूक गिरहों से
एक हूक - सी सुनाई पड़ती है
तब, एक सवाल
एक ही सवाल
मुझे कौंधा जाता है !
तुम इतनी जल्दी
इस पार से उस पार
कैसे पहुँच गए ?
कोई मंत्र, कोई जादू -
जानते थे क्या ?
आख़िर -
हर स्मृति को अस्मृति करने का यह सफ़र -
- हमें साथ ही तो तय करना था !
Friday 31 January 2020
Who presents the autumn?
Reminiscences from my diary
January 31, 2020
08:30 pm
Murugeshpalya, Bangalore
सुना है, कल ही -
वसंत -
दहलीज़ लाँघकर -
आँगन - आँगन आया है !
आया है क्या ?
तुम ही बता दो !
मैं देख नहीं पा रहा हूँ !
क्या कह रहे हो ?
फिर से कहो ज़रा !
क्या ?
मैं क्यों नहीं देख पा रहा हूँ ?
अरे !
यह तुम पूछ रहे हो ?
तुम ?
कमाल है !
तुमने जाते हुए -
जो मौसम -
मेरी खिड़की की टूटी जाली से बाँधा था -
उसने -
अपने सूखे पत्तों से -
मुझे, मेरी आँखों को -
मेरी साँस - साँस को -
मेरे रेशे - रेशे को -
परतों परत -
ढक दिया है -
जकड़ दिया है -
लहू - लुहान कर दिया है !
मेरे बदन पर बस ख़रोंचे हैं -
ज़ख्म हैं -
रिसता खून है -
रिसते खून के निशान हैं !
पत्ते - पत्ते पर दीमक लगी हुई है !
मेरा घर - आँगन दीमक - दीमक हो गया है !
सुनो !
तुम्हें हर वसंत मुबारक !
पर यह तो बताओ -
ऐसे पतझड़ का उपहार भी कोई देता है भला ?
Friday 24 January 2020
The wounds of the silence
Reminiscences from my diary
Jan 24, 2020
Friday, 07.00 pm
Murugeshpalya, Bangalore
एक बात बताऊँ तुम्हें?
यहाँ अचानक से काम करते-करते
एक बार फिर
मेरा मौन, मुझ पर
हावी हो रहा है ...
झटपटा रहा है
रोना चाहता है
चीखना चाहता है
चिल्लाना चाहता है
फटना चाहता है
मिटना चाहता है...
पर तुम ही कहो -
ऐसे कैसे इजाज़त दे दूँ इसे!
आखि़र मैंने खुद भी तो -
कितनी ही बार चाहा है
अपने मौन में डूबना, और -
कितनी ही बार -
इसने मुझे तारा है!
कितनी ही दफ़ा -
मेरे चारों ओर
मकड़जाल-से कोलाहल में
मेरे मौन ने मुझे -
कैवल्य-सा सुकून दिया है!
खुद को खुद से अलग करना
इतना आसान थोड़े ही है!
यूँ भी,
मैं जितनी कोशिश करता हूँ -
अपने मौन को कम करने की
इसे सहलाने की
इसे बहलाने की
इससे बतियाने की
इसका विस्तार, उतना ही-
बढ़ता चला जाता है!
जब कभी
गाहे बगाहे
मुस्कराहट दस्तक देती है
तो न जाने
कहाँ से बहकर
मेरा मौन
मेरे अधरों पर
मेरी आँखों में
टिक बैठता है, और न जाने -
किस दिशा में, किस काल में
ले जा पटकता है मुझे!
लोग पूछते हैं, ठिठोली करते हैं -
अरे! क्या हुआ अचानक?
और मैं -
कुछ नहीं कह पाता!
शब्द बाँध देता है वह!
मुझे बाँध देता है वह !
एक अजीब - सी थकान का -
आलम रहता है हर घड़ी!
मैं पहरों पहर ठूँठ - सा जीता हूँ!
मैं पहरों पहर ठूँठ - सा मरता हूँ!
सुनो! तुम मेरे मूक मौन की आवाज़ बनोगे क्या?
Thursday 23 January 2020
स्टिल लाइफ़
यह जलियाँवाला -
और उसकी दीवार में
चुपके से बैठे गोलियों के छेद
यह साइबेरिया -
और उसकी ज़मीन पर
चीखों के टुकड़े बर्फ़ में जमे
कंसन्ट्रेशन कैम्प -
इंसानी माँस की गंध
भट्टियों की राख में सोयी
यह करागुयेवाच -
जिसकी कुल आबादी
एक पत्थर के बुत में सिमटी
यह हिरोशिमा है -
जो एक कोने में एक फटे हुए
दस्तावेज़ की तरह पड़ा है
और यह प्राग -
जो साँस रोके आज
सेंसर की मुट्ठी में बैठा है।
हर चीज़ चुप और अडोल है
सिर्फ़ मेरी छाती में से
एक गहरी साँस निकलती है
और धरती का एक टुकड़ा
हिल - सा जाता है।
***
मैं
आसमान जब भी रात का
और रोशनी का रिश्ता जोड़ता ...
सितारे मुबारकबात देते हैं
क्यों सोचती हूँ मैं
अगर कहीं ...
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती ...
जिस रात के होठों ने कभी
सपने का माथा चूमा था
सोच के पैरों में उस रात से
इक पायल - सी बज रही है ...
इक बिजली जब आसमान में
बादलों के वर्क़ उलटती है
मेरी कहानी भटकती है -
आदि ढूंढती है, अंत ढूंढती है ...
तेरे दिल की एक खिड़की
जब कहीं बज उठती है
सोचती हूँ, मेरे सवाल की
यह कैसी जुर्रत है !
हथेलियों पर
इश्क़ की मेहँदी का कोई दावा नहीं
हिज्र का एक रंग है
और तेरे ज़िक्र की एक खुशबू ...
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती ...
***
रसीदी टिकट
ज़िन्दगी जाने कैसी किताब है,
जिसकी इबारत अक्षर-अक्षर बनती है
और फिर अक्षर-अक्षर टूटती,
बिखरती और बदलती है ...
और चेतना की एक लम्बी यात्रा के बाद
एक मुकाम आता है, जब -
अपनी ज़िन्दगी के बीते हुए काल का,
उस काल के हर हादसे का,
उसकी हर सुबह की निराशा का,
उसकी हर दोपहर की बेचैनी का,
उसकी हर संध्या की उदासीनता का,
और उसकी जागती रातों का,
एक वह जायज़ा लेने का सामर्थ्य
पैदा होता है, जिसकी तशरीह में
नए अर्थों का जलाल होता है, और -
जिसके साथ हर हादसा एक वह
कड़ी बनकर सामने आता है,
जिस पर किसी 'मैं' ने पैर रखकर
'मैं' के पार जाना होता है ...
***
(1)
लोग कहते हैं, रेत रेत है, पानी नहीं बन सकती ! और कुछ सयाने लोग उस रेत को पानी समझने की गलती नहीं करते ! वे लोग सयाने होंगे, पर मैं कहती हूँ - जो लोग रेत को पानी समझने की ग़लती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कमी रही होगी ...
***
(2)
सूरज के डूबने से मेरा कुछ रोज़ डूब जाता है, और उसके फिर आकाश पर चढ़ने के साथ ही मेरा कुछ रोज़ आकाश पर चढ़ जाता है। रात मेरे लिए सदा अँधेरे की एक चिनाब - सी रही है, जिसे रोज़ इसलिए तैरकर पार करना होता है कि उसके दूसरे पार सूरज है ...
***
(3)
मेरा सूरज बादलों के महल में सोया हुआ है
वहाँ कोई खिड़की नहीं, दरवाज़ा नहीं, सीढ़ी भी नहीं
और सदियों के हाथों ने जो पगडण्डी बनाई है
वह मेरे पैरों के लिए बहुत संकरी है ...
***
(4)
इस दास्ताँ की इब्तदा भी ख़ामोश थी, और सारी उम्र उसकी इन्तेहाँ भी ख़ामोश रही। आज से चालीस बरस पहले जब लाहौर से साहिर मुझसे मिलने आता था, आकर चुपचाप सिगरेट पीता रहता था। राखदानी जब सिगरेटों के टुकड़ों से भर जाती थी, वह चला जाता था, और उसके जाने के बाद मैं अकेली सिगरेट के उन टुकड़ों को जलाकर पीती थी। मेरा और उसके सिगरेट का धुआँ सिर्फ़ हवा में मिलता था, साँस भी हवा में मिलते रहे, और नज़्मों के लफ़्ज़ भी हवा में ...
सोच रही हूँ, हवा कोई भी फ़ासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फ़ासला तय किया करती थी, अब इस दुनिया और उस दुनिया का फ़ासला भी ज़रूर तय कर लेगी ....
***
(1)
इमा,
इस बार
ब्रश में
होली का रंग
भरकर लाना ...
तुम्हारे सफ़ेद हाथों की कसम ...
आशी [09.02. 1968]
***
(2)
जीती,
तुम जितनी सब्ज़ी लेकर दे गए थे, वे ख़तम हो गयी हैं।
जितने फल लेकर दे गए थे, वे भी ख़तम हो गए हैं !
फ्रिज खाली पड़ा है !
मेरी ज़िन्दगी भी खाली होती हुई लग रही है। तुम जितनी साँस छोड़ गए थे, वे ख़तम हो रही हैं।
जीता, मेरे इस ऊपर लिखे ख़त को लेकर दुःखी मत होना। रात के गहरे अँधेरे में लिखा था।
मैं उदास हूँ, लेकिन तुम्हारे काम का ख़्याल आता है, तो अपने अकेलेपन को बहला लेती हूँ। वैसे नहीं मालूम यह उम्र का तकाज़ा है या ज़िन्दगी के बाकी रहते थोड़े दिनों का एहसास।
जीती, अगर वहाँ काम का कोई भविष्य दिखाई देता है तो ज़रूर स्ट्रगल करना, वरना व्यर्थ में मत भटकना। यहाँ घर बैठे हमें सूखी दाल - रोटी भी बहुत है। आज मैं अस्सी बरस की या पिछले ज़माने की औरत की तरह बातें कर रही हूँ।
शायद शाश्वत यही होती है।
वही शाश्वत
माजा [26.09.1968]
***
(3)
इमा,
कल तुम्हारा कमरा बंद रखा था।
आज बहुत दिल घबराया, तो कमरा खोल दिया ...
पर सारे फ़र्श पर फैली हुई और छत तक पसरी हुई चुप नहीं टूटती !
तुम्हारी
एमी [12.07.1975]
***
(4)
.... ,
यहाँ मैं इस तरह अकेली पड़ी हूँ जैसे अंधे की माँ उसे मस्जिद में अकेला छोड़ आए !
टूट जाएँ रेलगाड़ियाँ, जो तुम्हें लौटाकर नहीं लातीं !
कल गुलज़ार आया था, "सुना , आपकी तबीयत ठीक नहीं है। ख़बर लेने आ गया। क्या बात है ?"
मैंने जवाब दिया, "वैसे तो ठीक हूँ, पर शाम को दर्द शुरू हो जाता है, जैसे ही सूरज डूबता है।"
गुलज़ार हँसने लगा, "पुराने समय में किसी ने 'काल' को पाये से बाँधा था, आप सूरज को पाये से बाँध लीजिये। इसे मत डूबने दीजिये।"
मैंने उसे बताया, "वह तो मैंने बाँध रखा है, शाम को जब जीती का ख़त आता है, तो वह सूरज ही तो होता है।"
सच जीती, तुम्हारा ख़त शाम का सूरज ही तो होता है।
क्या मैं कम करामाती हूँ ! मैं भी सूरज कोण पाये से बाँध सकती हूँ ...
साँस साँस से तुम्हारा इंतज़ार हूँ ...
तुम्हारी अपनी
.... [03.01. 1969]
***
(1)
रात आधी बीती होगी
थकी - हारी
नींद को मनाती आँखें
अचानक व्याकुल हो उठीं
कहीं से आवाज़ आई -
"अरे, अभी खटिया पर पड़ी हो !
उठो ! बहुत दूर जाना है
आकाश गंगा को तैरकर जाना है !"
मैं हैरान होकर बोली -
"मैं तैरना नहीं जानती,
पर ले चलो,
तो आकाश गंगा में डूबना चाहूँगी !"
एक ख़ामोशी - हल्की हँसी
"नहीं, डूबना नहीं, तैरना है ...
मैं हूँ न ..."
और फिर जहाँ तक कान पहुँचते थे
एक बाँसुरी की आवाज़ आती रही ..."
***
(2)
एक अजीब घटना थी -
कि सारा दिन घर से धूप और
अगरबत्तियों की खुशबू आती रही -
जिस कमरे में जाऊँ; खुशबू थी -
हालाँकि कहीं कोई अगरबत्ती नहीं जली हुई थी !
हैरान होकर अपना बदन सूंघा -
सारे बदन से वह महक आ रही थी ...
सारा दिन यह आलम रहा -
पर संध्या होते ही यह महक खोने लगी -
इमरोज़ को भी यह बताने से झिझक गई
कि वह हँस देंगे ...
***
(3)
जैसे एक साया - सा देखा -
कि एक जगह शिव धूनी सेक रहे हैं -
मैं बाईं तरफ़ उनके पास बैठी हूँ -
और दाईं तरफ़ पार्वती नृत्य कर रही हैं ...
***
(4)
अभी गुज़रती रात में देखा -
कोई तीन बच्चे आए -
एक - सी सूरत लिए,
हँसते - हँसते -
उनके हाथों में फूलों का
एक - एक गजरा था -
वे तीनों गजरे मेरे पैरों को बाँध गए ...
सुबह काका श्री का टेलीफोन आया
मैं हैरान - सी बैठी थी -
रात की घटना सुनाई -
वह हँस दिए -
वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश थे
... हैरान - सी बैठी हूँ ...
***
(5)
देखा -
सामने साईं खड़े हैं -
मैंने उनके मस्तक पर तिलक लगाया
लम्बी दिशा का, वर्टिकल !
साईं उसी तरह खड़े रहे ...
फिर देखा -
कोई हाथ नहीं था -
पर मेरे मस्तक पर उसी तरह का तिलक
लगा हुआ था, लम्बी दिशा का -
ख़ुदाया ! तेरी तू जाने !
मैं नहीं जानती ...
***