Wednesday 5 November 2014

Another evening...wet, forlorn!



Reminiscences from my diary
Aug 19, 2014 Tuesday (Romy bhaia's marriage after ten days....)
Murugeshpalya, Bangalore


घड़ी पर नज़र गयी , देखा आठ बज गए थे।  अभी कुछ ही देर पहले तो साढ़े पांच बज रहे थे।  थकता नहीं समय भी भागते - भागते।  तभी बाहर से हल्की - सी आवाज़ सुनाई पड़ी मानो नीर बरस रहा हो।  सच में बरस रहा था। बाल्कनी पर खड़ा हुआ ही था कि ठंडी हल्की  हवा ने अभिवादन किया मानो कृतज्ञता प्रकट कर  रही हो और कह रही हो - चलो कोई तो कमरे से बाहर आया ! आजकल या तो लोग कमरों में बैठे अपने 'स्मार्ट-फ़ोन ' के साथ समय बिताते हैं या फिर ऑफिस के कम्प्यूटरों पर ! जब हवा छू  रही थी तो लग रहा था जैसे दूर किसी जलाशय के साथ घंटो बतियाकर आई हो  … ठंडी - ठंडी सी , खुश - खुश सी ! और फिर हल्की - हल्की बारिश अचानक से तेज़ मूसलाधार बारिश में बदल गयी।  अब बेचारे बादल भी कितना संभाले , कितना काम करें ! कभी कालिदास की कलम पर नाचो , कभी घटाओं का सृजन करो , कभी बिजली की कड़कड़ाहट को बुनो , कभी मयूरों की प्रसन्नता का निमित्त बनो , कभी जलधियों से भी ज़्यादा जल स्वयं में समेटो  … न !  आज नहीं ! आज तो हर बादल ने - काले बादल ने , नीले बादल ने, कुछ सफ़ेद से बादलों ने भी , ठान ली है - आज तो हम बरस कर रहेंगे, भले ही फिर सदियों तक प्यासा क्यों न रहना पड़े ! 

बाल्कनी पर खड़ा ही था कि दाईं ओर नज़र पड़ गयी।  कपड़ों का स्टैंड खड़ा हुआ था , जैसे आम का ठूंठ हो कोई - संज्ञाहीन - सा , रसहीन - सा ! और उस पर दो - तीन टंगे कपड़े ऐसे झूम रहे थे जैसे आम के ठूंठ पर कुछ पत्ते , जो अपने दुर्भाग्य को कोस रहे हों और राह तक रहे हों इस ठूंठ से टूटकर किसी भी दिशा से आती बयार के साथ बहने का !

सड़क पर नज़र पड़ी तो निर्जनता को पसरे पाया।  शायद सबने ठान लिया था कि आज आसमान और धरती को मिलाते सलिल में हस्तक्षेप नहीं करेंगे ! पर तभी मन से आवाज़ आई - मूर्ख! अलंकार को रचने से अच्छा है , जीवन की वास्तविकता को स्वीकारो ! सड़क इसलिए जनहीन है क्योंकि अब लोग समझदार हो गए हैं ; क्योंकि अब लोग बारिश में भीगकर या हवा और बादलों पर कृतियों का सृजन करने की जगह अपना समय किसी 'समझदारी' वाले कार्य में लगाते हैं ! समय का मूल्य करना शायद इसी को कहते होंगे !

सोचते - सोचते और प्रकृति के साथ समय व्यतीत करते करते कब अन्धकार और गहन हो गया - पता ही नहीं चला।  देखा, बारिश भी थमती जा रही थी और हवा- शायद किसी और साथी की चाह में कहीं चली गयी थी !



Monday 3 November 2014

My Wretched Diary!



Reminiscences from my diary
Nov 1, 2014 Saturday
IISc, Bangalore


एक अरसा बीत गया है,
न जाने कब से-
मेरी डायरी -
मायूस - सी -
मुरझाई - सी पड़ी है !
कविताओं को -
- सुनने - सुनाने का दौर  …
उन शामों का वह सिलसिला -
कब का पीछे छूट चुका है !

वक़्त की गलियों में -
तू गुमशुदा क्या हुआ -
मेरी तो कवितायेँ  ही -
बेतक़दीर हो गयीं !

जब डायरी खोली -
तो, वे लफ़्ज़ -
जो कभी चहका करते थे ,
आज बेबस -
बेजान - से दिखाई दिए !
तू क्या गया -
मेरे साथ -
मेरी कविताओं की भी -
रूह ले गया !

शिकायत है वक़्त से -
कब से राह देख रहा हूँ -
- कि आये  …
… और मुझे -
अपनी पुर - असरार गलियों में -
ले जाये !
क्या पता , कौन जाने ,
तुझसे -
और तुझसे न सही , तो -
- अपनी किसी कविता की -
 भटकती रूह से -
रु ब रु हो जाऊं !

कभी कभी लगता है  …
कहीं ये अरसा -
ज़िन्दगी से  लम्बा तो नहीं होगा  !