Thursday 29 December 2022

Saloni

Reminiscences from my diary

Dec 29, 2022
Thursday, 18:30

Saharanpur

"जय श्री कृष्णा" ... 

अरे यार! इस लड़की के कान कितने तेज़ हैं ! ज़रा सी खटर - पटर सुनी नहीं कि आ गयी आवाज़ 'जय श्री कृष्णा'! 

"जय श्री कृष्णा सलोनी! क्या हाल चाल हैं? तेरे आँख - कान खिड़की पर ही रहते हैं न?"

"नहीं बोलूँगी तो कहोगे, सलोनी रसोई में थी फिर भी नहीं बोली"

"उफ़्फ़ ! बस ताने मार ले!"

"और नहीं तो क्या! अच्छा यह बताओ कल कसौटी देखा? बहुत अच्छा आया  ..."

"अरे हाँ ! देखा न! मज़ा आ गया! क्या थप्पड़ मारा प्रेरणा ने अनुराग को  ..."

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... और बस फिर चल पड़ता था बातों का सिलसिला  ... 'कसौटी ज़िन्दगी की' से 'कहानी घर - घर की' होते हुए 'क्योंकि सास भी कभी  ..' तक ! एक ओर अक्सर अँधेरे में डूबी छोटी-सी रसोई, दूसरीओर उबड़ - खाबड़, टूटा फूटा छज्जा और उस पर जंग लगा हैंड-पंप और बीच में  ... जाली लगी एक खिड़की  ... खिड़की जिसकी जाली इतनी धूल भरी कि दूसरी ओर कभी कुछ ठीक - ठीक दिखाई न दिया !

"शानू भैया! छत पर आ जाओ ! आपके लिए ढोकला बनाया है!"

"आ गया!"

"भैया ! दाल मखनी बनाई है!"

"आ गया!"

"आंटी! छत पर आ जाओ! केक बनाया है !"

"जय श्री कृष्णा ! मैं न आऊँ क्या?"

. . 
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... और फिर छत पर तब तक बातें होतीं जब तक बंदरों का झुण्ड न आ धमकता ! बातें दुनिया जहाँ की  ... अपनी टीचर्स की बुराइओं से लेकर अपने दोस्तों के अफेयर्स की  ... तुलसी, पार्वती,  मिहिर, कोमोलिका की  ... न जाने कितने लोगों को हिचकियाँ आती होंगी  ... 

पिद्दी - सी नाक वाली यह लड़की उम्र  में छः - सात साल छोटी थी ! जब तक मैं कॉलेज नहीं गया, तब तक, लगभग रोज़ ही बात हो जाती, कभी एक मिनट तो कभी एक घंटा! फिल्मों की, गानों की, धारावाहिकों की, दोस्तों की, स्कूल की मैडमों की, खाने - पीने की ! हमने कभी 'हाय', 'नमस्ते', 'जय जिनेन्द्र' नहीं कहा, हमारा साझा तकिया कलाम था 'जय श्री कृष्ण' ! कब पड़ा ! कैसे पड़ा ! यह याद नहीं कर पाता ! पर हमेशा यही रहा ! एक मिनट का फासला होते हुए भी हम शायद ही कभी एक दूसरे के घर गए ! पर हम दोस्त थे, भाई-बहन वाले दोस्त! बचपन से ! हमेशा से !

कॉलेज से छुट्टियों में जब घर आता, तो ऐसा कभी नहीं हुआ जब हमने एक दूसरे को आवाज़ न लगाई हो ! और जब दो तीन दिन आवाज़ न आती तो मैं ही बेचैन हो जाता ! 

"आंटी! सलोनी की आवाज़ नहीं आ रही! कहाँ है यह?"

"बेटा ! नीचे होगी! वो तो पूछ रही थी कि शानू भैया नहीं आये क्या"

"रहने दो आंटी ! भूल गयी यह लड़की!"

"ले आ गयी ! अब तुम दोनों आराम से लड़ लो"


... फिर सलोनी बड़ी हो गयी  ..  कॉलेज जाने लगी, और मैं एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज में व्यस्त होता गया ! पर जब तक पुराने मोहल्ले के पुराने घर में सांसें लीं , तब तक हम किसी न किसी तरह बात कर ही लेते थे ! मौके - मौके पर कुछ न कुछ खिलाती ही रहती थी, फिल्मों-गानों-सीरियल की बातें होतीं ही रहीं  .... 

... और फिर एक दिन माँ ने कहा सलोनी की शादी हो गयी ! मैं हैरान! हैं???? शादी ??? क्या ही उम्र है ? २२? पर ऐसा ही होता है न ! बिन बाप की बच्ची, जेठानियों पर मोहताज माँ, छोटा बीमार भाई ! अच्छा घर बार है, पति की अपनी दुकान है पास के कसबे में, गाड़ी है, ४०० गज में कोठी है ! खुश रहेगी! हाँ! अगर बड़े कह रहे हैं तो खुश ही रहेगी ! बड़े तो ईश्वर तुल्य होते ही हैं ! ईश्वर ही शायद ! अन्तर्यामी ! 

... समय के साथ बातें कम होतीं गयीं ! शादी के तीन साल के भीतर दो बच्चे, बीमार पर खुशमिज़ाज़ ससुर, तेज़ ननदें, अजीब सास, आवारा देवर ! पर सलोनी 'खुश' थी ! जन्मदिन पर, नए साल पर, दीवाली पर उसका मैसेज आता ही आता और शुरुआत हमेशा की तरह होती "जय श्री कृष्ण शानू भैया"  ... 

.. 
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आज सलोनी नहीं है !

लोग कह रहे हैं उसको ज़हर देकर मार दिया !

लोग कह रहे हैं उसने खुद ज़हर खा लिया !


Tuesday 20 December 2022

We, the wanderers!

Reminiscences from my diary

Dec 20, 2022
Tuesday, 0900 pm
GEIMS, Dehradun


हम हमेशा फक्कड़ ही रहे  ... निरे फक्कड़  ... थोड़े अजीब, थोड़े गरीब, और बहुत हद तक अजीबोगरीब ... अपनों में अनजाने से, अनजानों में बहुत अनजाने से  ...  हम खुद को दुनिया में खोजते रहे, और दुनिया को खुद में ढूंढते रह गए ! दुनिया हमें पागल, नासमझ, अकड़ू, बद्दिमाग़, बद्तमीज़ मानती रही और हम ऐसे फक्कड़ कि सब उलाहनों से बेख़बर दुनियादारी से कोसो दूर रहे, रह गए  ... 

हम वे भाई थे जो घर से हर बार विदा होती बहन के लिए रोने के लिए कोना-भर कोना तलाशते रहे  ... हम वे बेटे बने जो दूर होने पर अपनी माओं को बेहिसाब याद करते, पर पास रहते हुए चुप्पियों में दिन भर गुज़ार देते  ...  हम उन दुकानों के खरीदार बने जिन्हें मोहल्ले की कोई विधवा या पढ़ाई छोड़ चुका कोई लड़का चलाता और हम चुपचाप चोर नज़र से उनके सफ़ेद होते बाल, थकती कमर  देखते  ... हम चाहकर भी बड़ी पार्टियों का हिस्सा नहीं बन पाए  ... हम बस आदतन किसी आम बेकरी की सीढ़ियों पर बैठ चाय या कॉफ़ी सुड़कते रहे  ... हम हर बार अच्छा भाई, अच्छा बेटा, अच्छे दोस्त बनते बनते रह जाते  ... जो पास होते, उनकी कद्र न करते, और जो बिसरा जाते उनके लिए टेसुएँ बहाते  ...  

अनमने से हम दिन - दिन, शाम - शाम मीलों मील चलते, अनजान गलियों, नुक्कड़ों को नापते, लोगों की बनिस्बत पेड़ों को, पेड़ों की फुनगियों को निहारते  ... रास्ते में आते मंदिरों में ध्यान लगाते, गुरद्वारों में शबद - कीर्तन संग झूमते  ... अंजुलि भर कड़ा, मुट्ठी भर गुलदाना, पत्तल भर मीठा भात चरते  ... और एक बार फिर आकाश भरी खाली आँखों से टुकुर - टुकुर किसी नए आसमान को ढूंढते निकल पड़ते  ... हम बादलों को ताकते, बारिशों का बेसब्री से इंतज़ार करते  ... घंटों मूसलाधार बरसात में तरते  ... तारों पर झूलती बूँदों को पीते  ... अपने साथ नाचते और थककर भूली - बिसरी यादों का पिटारा खोल सबकी नज़रों से ओझल कहीं ग़ुम जाते  ...  हम पहाड़ों में समंदर, और सागर किनारे बैठ हिमालय जाने के लिए मचल उठते  ... हम ऐसे ही रहे  ... अजीब! बंजारे! फक्कड़ !

कभी कभी हम हिम्मती, बहादुर भी कहे जाते  ... हो सकता है हम रहे भी हों कुछ हद तक ! दिसंबर की हवा हमारे रेशों से लड़ती और हम खुद को किसी बीस साल पुराने शॉल में लपेटे धुंध और कोहरे में चाँद ढूँढ़ते ! निदाघ की लू जब हमें प्यास से तड़पाती तो हम भी घंटों अपनी इस प्यास को बिना एक बूँद गटके तड़पाते ! इतने हिम्मती कि हम अपने सबसे अज़ीज़ दोस्तों की, हमदर्दों की, रूहदारों की सालों साल बिना एक झलक देखे जीते जाते !

हम कभी कह न पाए कि हमें हमारी हिम्मत नहीं, हमारे डर पालते  ... हम अक्सर अकेले रहते, अकेले खुश रहने का दम भरते, और उस ख़ुशी में टूटकर बेवजह घंटों रोते  ... हम एक तरफ़ यूँ तो बेसब्री से जन्मदिन की बाट जोहते, पर जब दिन उग ही आता तो हद नर्वसिया जाते, इतना कि कलेजा मुँह तक ले आते  ... हम डरते रहे किसी के करीब आने से, किसी के करीब  जाने से, किसी के सामने उधड़ने से , किसी को टटोलने से  ... हम अपनों डरों को भी ठीक से कहाँ पहचान पाए? किसी के ख़ास हो जाने पर हम एक तरफ़ ख़ुशी से बौरा जाते और साथ ही नाख़ास होने के बहाने ढूँढ़ते ... हम इतने नाज़ुक रहे कि गुलमोहर सिर पर गिरे तो घबरा उठते, हथेली में हरसिंगार टूट जाए तो सकुचा जाते, और तो और टूटता तारा देख आँख बंद कर लेते और कभी तारे की ही सलामती की मन्नत माँगते  ... 

किताबों में, किताबघरों में खुद को तलाशते फिरते ! उनसे हिम्मत बटोरते रहे  .. उनसे डर बाँटते रहे ! निर्मल को पढ़ते - पढ़ते हम निर्मल जैसे हो जाते, अमृता की पीड़ पर रो पढ़ते , तस्लीमा की नज़्मों को सीने से चिपकाये घंटों छत ताकते , रिल्के का एकांत साझा करते, शफ़ाक़ के साथ शम्ज़ की कब्र तलाशते  ...  किताबों को ईश्वर से ज़्यादा पूजते रहे  ...साँझ की दीया - बाती पर किताबों को ईश्वर से पहले धुनी देते रहे  ... 

हम ऐसे फक्कड़ रहे जो अपने बचपन को मकड़जालों से छुड़ाते - छुड़ाते जवानी से पहले जवान हो गए  ... बाल पकने पर, अक्स पकने पर हम झल्लाए नहीं,  हमने शीशों से साँठ -गाँठ की  ... अब हमसे कोई हमारी उम्र पूछता तो हम पहले मुस्कुराते और फिर खुद को अधेड़ बताते  ... हमने वक़्त के क़ायदों - कवायदों के साथ नहीं,  उसकी बेतरतीबी के साथ इश्क़ किया ! 

हम फक्कड़ ऐसे ही जुगनुओं-से जलते रहे, बुझते रहे ... बुझते रहे, जलते रहे  ... अपनी ही आँच से अपनी साँस सींचते रहे  ... अपना पागलपन सँभालते - संभालते अपने ही बीहड़ों में ग़ुम रहे  ... मौसम - मौसम पिघले और फिर  ... बस फिर  ... रीत गए  ... !