Friday, 24 May 2024

Ten (dis)connected sentences - part 1 of infinity

Reminiscences from my diary

May 24, 2024
Friday 2100 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम
मसरूफ़ियत में भी 
एक-दूसरे की आवाज़ों में 
रखा करते थे 
अपनी-अपनी भोर

हम 
एकटक ताका करते थे कई कई रात
चाँद को
और उसके आस-पास गुज़रते 
हवाई-जहाज़ों को 

हम 
अपनी उँगलियों से 
दिल्ली मेट्रो की खिड़की पर पड़ती 
बूंदों के
ढूँढा करते थे घर

 हम 
अक्सर एक ही थाली से 
मिल-बाँटकर 
खा लिया करते थे  
कभी दोपहरी कभी रात 

हम 
मन पर डेढ़ मन पत्थर रख 
सुना करते थे 
एक दूसरे की 
पसंद न आने वाली ग़ज़लें-गाने 

हम 
हर साँझ ढले 
आमने-सामने बैठ 
पढ़ा करते थे इत्मीनान से 
गीता के अध्याय 

हम 
रखते थे आँसू 
एक दूसरे के कन्धों पर 
और फिर पोंछ दिया करते थे 
अपनी आस्तीनों से 

हम
बातों के गुच्छे लिए नापा करते थे 
निडर
अधबसे शहर की सड़कें
गलियाँ और पगडंडियाँ  

हम 
अर्पित किया करते थे 
साथ-साथ 
मृत्युंजय को 
बेल-पत्र 

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़  
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

Wednesday, 15 May 2024

Yet Another Moon-Sonata


Reminiscences from my diary

May 13, 2024
Monday 2315 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कल रात 
मैं जागृति से निकला ही था जब -
मैत्रैयी ने पूछा अचानक -
"आज का चाँद देखा?"
मैंने खुद से कहा -
"मैंने तो कब से चाँद नहीं देखा"

एक ज़ुस्तज़ू सी उठी  
एक बेचैनी 
और मैं -

बस - स्टैंड के पास 
फुटपाथ पर खड़ा 
उचक - उचक 
ढूँढने लगा 
ऊँची बालकनियों के पीछे 
तितर - बितर आसमान में 
एक टुकड़ा चाँद 

बौराया जान 
पलट - पलट देखने लगे थे लोग 
बीड़ी फूँकता आदमी 
सवारी खोजता ऑटो
बस का इंतज़ार करती लड़की 
जूस पीते बच्चे 

और फिर अचानक से दिख ही गया 
खूबसूरत 
बेहद खूबसूरत 
अचूक सफ़ेद 
अर्धगोलाकार 
मानो प्रकार से खींचा गया 
आधे से थोड़ा कम 
चाँद 

मुझे यूँ लगा कि 
साँस को
साँस मिली हो 
जैसे मिला हो बेतरतीब अरमानों को 
एक ठौर, एक सराय 

बहुत देर तक मुस्कुराता रहा 
वहीँ खड़ा - खड़ा 
सींचता रहा 
कतरा - कतरा सुकून 

सुनो -

तुम भी
देख पाओ तो 
ज़रूर देखना -
गुज़रा कल 
और 
गुज़रे कल का 
आधा चाँद ! 


Monday, 6 May 2024

The salvation in your palms

Reminiscences from my diary

May 06, 2024
Monday 2045 IST
Murugeshpalya, Bangalore


सपना ही रहा होगा शायद 

जहाँ तक नज़र दौड़ाऊँ 
बर्फ़ ही बर्फ़
पानी में तैरती  
आसमान से गिरती 
ज़मीन पर ठहरती 
बर्फ़ 
इतनी बर्फ़ कि 
पाँव धँस - धँस जाएँ 
कुछ नज़र न आए 
चारों मौसम मानो 
शीत
कई कई शीतों की 
मन-मन बर्फ़ 
आँख लाल 
कान लाल 
नाक लाल 
साँस लाल 
होंठ सफ़ेद 

मैं बर्फ़ -
हो ही रहा था कि 
अचानक 
तुमने अपनी 
हथेलियों की ओक 
मेरी 
हथेलियों के नीचे 
रख दी 

सपना ही रहा हो
ऐसा ज़रूरी नहीं 

तुम्हारी आँच 
मेरी धमनियों का 
कैवल्य है 



Wednesday, 1 May 2024

Finally I can cry again


Reminiscences from my diary

May 01,2024
Wednesday 1930 IST
Murugeshpalya, Bangalore


अमृता हाथ में 
चेरापूंजी आँख में 
हूक साँस में 

कि अचानक 

आज की साँझ 
मेरी दहलीज़ पार कर 
मेरी 
नज़र उतार गई 

अब हो यूँ रहा कि 

सावन बीनूँ 
या 
बुल्ले शाह सुनूँ 

माँ का बनाया नमक चखूँ 
या 
ताकूँ सूखे गुलाब

मेरे 
आँसू
उमड़
उमड़
जाएँ