Friday, 25 October 2024

When two friends met..

Reminiscences from my diary

Oct 25, 2024
Friday 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


वह
अपने सबसे अच्छे दोस्त से 
मुद्दत बाद मिलता है 

वे किस्तों में बातें करते हैं 

वह बहुत खुश है 
वह एक साँस में कई-कई बातें कहना चाहता है
वह एक साँस में कई-कई बातें पूछना चाहता है

वे किस्तों में बातें करते हैं  

सबसे अच्छा दोस्त भी खुश है
सबसे अच्छा दोस्त कम बोलता है 
सबसे अच्छा दोस्त बीच-बीच में घड़ी देखता है 

वे किस्तों में बातें करते हैं 

वह अपने सबसे अच्छे दोस्त को एकटक देखता है 
सबसे अच्छा दोस्त 'यहाँ' से 'वहाँ' नहीं जाना चाहता 
वह अपने सबसे अच्छे दोस्त का सबसे अच्छा दोस्त बनना चाहता है 

वे किस्तों में बातें करते हैं 

क्या किस्तों में बातें करने से 
दूर होने का वक़्त
बहुत दूर चला जाता है? 

 

Wednesday, 23 October 2024

My Nani

Reminiscences from my diary

Oct 23, 2024
Wednesday, 2245 IST
Murugeshpalya, Bangalore


नानी 
सिर्फ़ माँ की माँ नहीं होती
 
नानी होती है

हरी अलमारी में छिपाए -
चौलाई के लड्डू 
दलिए की गर्म कटोरी में -
पिघलता गुड़ 
हैंडपंप से भरी गयी -
पानी की तीसरी बाल्टी
पौ फटने पर आँगन बुहारती - 
सींक वाली झाड़ू 
काँस के पतीले में रात भर भीगते राजमा का -
बचा-कुचा पानी 

वह होती है -

एक बेटे की सिकुड़ी टाई के सल निकालती -
लोहे की भारी इस्त्री 
दूसरी बेटी के तेल से चुपड़े बालों में -
गुंथा हुआ लाल रिबन 
छोटे नाती के कम होते जेब-खर्च में -
चुपचाप से जुड़ता पचास का नोट 
बड़ी पोती की बेस्वाद चाय में पड़ती -
चुटकी भर दालचीनी 
नाना की एक आवाज़ पर ठुमकती-ठुमकती
एक प्यारी गुड़िया  

और नानी होती है 

पूस की धूप का निवाच 
रातरानी की बिखरी गंध 
तकिये पर सिमटी नींद 
कहानियों की खोई परी 
किताबों में सहेजे बुकमार्क्स 

एक दिन अचानक 

माँ की माँ का 
होने से न हो जाना
माँ के होने और 
माँ के न होने के बीच की दीवार में
दरीचें चिन जाता है 

Tuesday, 15 October 2024

My address, eternal

Reminiscences from my diary

October 15, 2024
Tuesday, 2200 IST
Murugeshpalya, Bangalore


सफ़ेद चौखम्बा
और 
प्रशांत महासगार 
के बीच 

बुराँश के पेड़ों से घिरा 
रंग-बिरंगी दूब का 
एक मैदान है 

यहाँ ऐसे ही किसी का आ जाना वर्जित है 

यह मैदान पता है 
उनका 
जो 

गुनगुनाते हैं पुरवाई के गीत हर मौसम 
पीते हैं अंजुली-अंजुली बारिश 
लिखते हैं बिन पते की चिट्ठियाँ 
फूलों की क्यारियों से चुनते हैं कबूतरों के बिखरे पंख
कविताओं के हिस्से न आये शब्दों की पीड़ा सहलाते हैं 
रोते-रोते कर लेते हैं अन्न को ग्रहण
हर विरह हर रुस्वाई को काँच पर चलकर जीते हैं 
पाकर खोने के दुःख को सुन्न होकर आसमान-सा ओढ़ते हैं 
अनवरत प्रतीक्षा में बाँध देते हैं चौखट-चौखट आँखें, कतरा-कतरा हूक 
और फिर साध लेते हैं मौन हर गोधूलि
गहन स्वप्नों में आँकते हैं प्रेमी और प्रेम
हर साँस, साँस खोजते हैं 
रूमी ढूँढ़ते हैं हद तक, और हो जाते हैं शम्स-शम्स 

यह वही मैदान है 
जहाँ 
कल्पों से आँख मूँदे 
तथागत भी 
कभी-कभी यूँ ही 
रो पड़ते हैं 


Tuesday, 8 October 2024

Pondicherry & My Melancholy

Reminiscences from my diary

Tuesday, Oct 08, 2024
2100 IST
Murugeshpalya, Bangalore 


कबीर की मछलियाँ 
मछलियों की
बूँद-बूँद प्यास

रेत के बनते - ढहते घर 
ढहते दरवाज़े, खिड़कियाँ 
और छत 

नारियल के कुछ हरे 
कुछ सूखे 
पेड़ों का झुरमुट 

पानी के साथ आते 
पानी में ही लौट जाते 
टुकड़े-टुकड़े सीपी और शंख 

डूबते सूरज का 
कुछ लाल, कुछ पीला ओढ़े
एक बेचारा झुटपुटा  

चुप में बँधे दो हाथ 
दूर तक चलते चले जाते 
चार पाँव

दूर  
बहुत दूर जाती 
एक अकेली नाव 

न सीपी, न नाव 
न पेड़, न पाँव 
एक किनारा ऐसा भी 

मेरी उदासी समुद्र का समुद्र होना है !