Tuesday 12 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(4)

Reminiscences from my diary

January 24, 2012
 11:15 p.m.
750, IISc


जब कभी बालकनी की ज़मीन पर बिना दरी बिछाये हाथ में गरम कॉफ़ी का मग लिए बैठता हूँ और "मामा" की छाँव में कहीं शून्य में लीं होने का असफ़ल प्रयास करता हूँ , तो अक्सर एक सवाल कौंध जाता है - क्या कभी स्वयं ज़िन्दगी अपने रस को , जिजीविषा को समाप्त कर सकती है ? थोड़ा विरोधाभास है इस वाक्य में ! यह तो वही बात हुई कि क्या कभी भास्कर स्वयं को गहन तिमिर में विलीन कर सकता है ! बाहर से लगता है कि यह कैसी शंका है ! यह तो सवाल ही गलत है । पर जीवन - दर्शन के विभिन्न झरोखों से , अट्टालिकाओं से दृष्टिपात किया जाये तो लगेगा कि यह तो वाकई गहन विचार वाला प्रश्न है जिसका जवाब देना उतना आसान नहीं जितना लगता है । यहाँ पाता हूँ कि ज़िन्दगी स्वयं ही नहीं , इससे जुड़े सवाल भी उतने ही उलझे हुए हैं - भूल भुलैया से !!

इसी तरह मैं ज़िन्दगी से आँख - मिचौली खेलता  रहता हूँ और वक़्त उम्र के पन्ने पलटता रहता है । कभी कभी मन करता है कि ज़िन्दगी को पुकारूं , उसे आवाज़ दूँ ! पर ... क्या ज़िन्दगी सुनेगी ? और अगर सुनेगी तो क्या यह भी वापस मुझे पुकारेगी ? पता नहीं ... बस एक ही बात जान पाता हूँ कि ज़िन्दगी के दिल में इतने सख्त पत्थर हैं कि आवाज़ देने पर जवाब आये या न आये , कम - से- कम अपनी आवाज़ तो लौट आएगी !



                                                                                                          .... to be contd.






 

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