Sunday 14 April 2013

 THE MYSTIC PANORAMA...



Reminiscences from my diary

December 3, 2012
 11:15 p.m.
750, IISc


काफ़ी वक़्त बीत गया था ...
पर , वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था कि -
- उस पिटारे को खोलूँ -
टटोलूं -
धूल चढ़ती जा रही थी , वक़्त की ही -
उस पर ...!
पर ... आज ...
वक़्त ने मौका दे ही दिया ,
अनजाने में ही सही ...
और ,
मेरे हाथ से वह पिटारा छूट गया ,
और ,
उस पिटारे का सभी सामान -
बिखर गया छन से !
झीनी - सी रोशनी -
- छिपी हुई थी उस में -
भोर की रोशनी -
कुछ पीली ... कुछ लाल ...
पेड़ों से छनकर आती ,
और आँखों में समां जाती !
बीच में बिखरे हुए थे ,
कुछ अल्फ़ाज़ ...
शायद किसी बेतक़ल्लुफ़ नज़्म से टूटे थे ,
या फिर -
किसी मुक्तक छंद में पिरने की राह देख रहे थे !
दो - तीन अम्बियाँ भी थीं ,
शायद कच्ची , या ,
अधपकी -
जो कभी ,
निदाघ की दोपहरी में -
आम की कोटर में छिपाई थीं !
साथ ही बंद पिटारे से ,
आज़ाद हो गयी -
- संदली - सी महक़ !
 शायद सुर्ख़ - से , सूखे - से फूलों की थी ,
कौन -से फूल थे , याद नहीं ,
पर थी बहुत जानी - पहचानी - सी !
महक के साथ ही -
रु -ब- रु हो गया उस बेचैनी से -
जो कई ज़मानों से कैद थी -
इस सुन्दर पिटारे में !
पर कैसी बेचैनी थी , किस के लिए थी ,
न तब पता था , न ही आज पता है !
कुछ कागज़ के टुकड़े भी थे -
शायद चिट्ठियों के फटे लिफ़ाफ़े थे -
हवा के साथ इधर उधर उड़ रहे थे !
एक - दो पर कुछ निशान से दिखे !
एक टुकड़ा उठाकर कुछ टटोलना चाहा ,
पर , समय की नदी में वह स्याही बह गयी थी !
एक साया भी छिपा हुआ था उसमें मुद्दत से ,
आज वह भी सामने आ गया ,
लम्बा , पतला , चिर - परिचित - सा ...
उसके बाहर आते ही ,
साया साया - सा ये समां हो गया ,
और फिर,
धीरे - धीरे ,
वह साया ही मेरा आसमाँ हो गया ...!!!

















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