Saturday 3 October 2015

प्रणय (१/२ )

Reminiscences from my diary
May 9, 2010
8 PM, Greater Noida


यथार्थ के जीवन में वह आंधी की तरह आया और तूफ़ान की तरह चला गया  … रोते हुए आया था और रुलाकर चला गया।  रोती हुई उन भीगी पलकों ने जब यथार्थ की आँखों में अपना चेहरा प्रथम बार देखा था , तब यथार्थ भी नहीं जानता था कि एक दिन , एक लम्हा ऐसा भी आएगा जब यथार्थ की रोती हुई आँखें , आंसुओं के सैलाब को रोकने का असफल प्रयास करती पलकें 'उसकी' आँखों में अपना चेहरा देखना चाहेंगी और वह  … वह तो बस आँखें मूंदे  .... आँखें! न, आँखें न तो खुली थीं , न बंद थीं !

प्रणय ... प्रणय नाम था उसका या  यूँ कहूँ कि क्रिया ने नाम दिया था उसे  … प्रणय ! मैले से एक तौलिये में लिपटाये शायद कहीं किसी कोने में छोड़ जाने की बदहवास कोशिश करते एक शराबी पिता या चाचा या बस शराबी के हांथों से छीना था यथार्थ ने उसे।  सांवले से हल्का सांवला रंग , दांयी पलक के पास एक प्यारा सा तिल , आंसुओं के निशान से काले पड़े गोल गोल कपोल , पतले  पतले हलके गुलाबी होंठ और होंठों पर एक करुण रूदन और रूदन भी अलग सा - कानों में मिश्री सा घोलता।

पर … यथार्थ ! पाषाण हृदय था यथार्थ ! चिढ़ता था ऐसों से और  बच्चों से भी ! प्रारम्भ में स्वयं को धिक्कारा कि पता नहीं , किन भावनाओं के आवेश में उसने इस बच्चे को  … शराबी पिता  … और माँ ? उफ़्फ़ ! अब क्या किया जाये ! एक बार सोचा कि किसी अस्पताल की दहलीज़ पर  … या फिर हमेशा जैसा होता आया है - किसी मंदिर की आखिरी सीढ़ी पर  … ! अंत में उसने ठाना कि अनाथालय में देना  ही सही है।

न जाने कैसा मानस था यथार्थ का ! पता नहीं, ईश्वर ने किस मिट्टी से उसका सृजन किया था ! अकेला …उदास… अपने में डूबा सा ! कभी लगता कि कुछ तो है जो यथार्थ को हमेशा परेशान करता है  , उसे हमेशा परेशान रखता है ; तो कभी लगता कि बात कुछ नहीं , उसे बस अकेला रहना पसंद है।  सुन्दर था यथार्थ… शायद! लम्बा माथा , गौर वर्ण , बड़ी नीली आँखें , सुदीर्घ ग्रीवा , कान ऐसे कि सीधे अजंता - एलोरा की गुफाओं में बनी शिव की प्रतिमायों की याद दिला दें , और होंठ ऐसे कि कान्हा की बांसुरी भी उन्हें छूकर तान छेड़ना चाहे ! ऐसा था यथार्थ ! सब कुछ था उसके पास या फिर कुछ भी नहीं ! कभी कभी पेड़ से लिपटने के बाद भी कोई वल्लरी संज्ञा-शून्य हो किसी सावन के टुकड़े की प्रतीक्षा में अपनी हरीतिमा खो देती है।  यथार्थ का जीवन एक खुली किताब होकर भी लगता मानो किसी गहन कानन की गहन कालिमा में छिपा हुआ है।  किसी और के उसके जीवन में अचानक ही आने पर न कोई परिवर्तन आ सकता था , और न ही आया ! उन नन्ही आँखों में देखा तक नहीं था उसने कभी। उस पहली बार भी प्रणय को ऐसे उठाया था उसने मानो वह नवजात शिशु ईश्वर की सुन्दर कृति न होकर कोई घृणात्मक पदार्थ हो !

उस जीर्ण - शीर्ण अनाथालय के दीमक लगी लकड़ी के चिरमिराते दरवाज़े पर वह उसे रखने ही वाला था कि लाख की चार चूड़ियों से सजी एक सांवली कलाई ने उसे रोक लिया।  वही क्रिया थी , क्रिया … जिसने उस मासूम को एक और वात्सल्य - शून्य अंक से छीनकर अपने मातृत्व में समेट लिया। एक क्रिया ही थी जिससे वह मन से मन की बात करता था जब  भी उसका मन करता था।  यूँ तो वह आम दुनिया की परिभाषा अनुसार इतनी सुन्दर नहीं थी , पर एक अलग सा आकर्षण था उसमें , उसकी उन आँखों में , उसकी आवाज़ में जिसने अनायास ही यथार्थ को आकृष्ट कर  लिया था। क्रिया ही उसके लिए वह एकमात्र सावन का टुकड़ा थी। शायद राहें कहीं मिलती थीं उनकी , उनकी आहों का भी मेल था। पता नहीं , कैसी रेखाएं थीं उनके हाथों की और कैसा था उन रेखाओं का खेल कि सबको अपनी ओर खींचने वाला यथार्थ सिर्फ़ सांवली सलोनी क्रिया को अपना मानता था , यह अलग बात है कि अपनेपन की परिभाषा उसकी दुनिया में कुछ अलग ही थी जिसे समझने का उसने स्वयं भी कभी प्रयास नहीं किया।  शायद तभी तीन सालों के साथ के बाद भी वह यह नहीं जान पाया कि  अपनी - सी लगने वाली यह बेगानी लड़की आखिर उसकी कौन थी।  दोनों ही उस अनाम रिश्तों को बस जिए जा रहे थे  … 

… और क्रिया ! चंचल - सी , मासूम - सी , शिवानी की कृष्णकली जैसी ही कृष्णवर्णा थी और विधाता ने उस श्याम वर्ण में श्याम जैसा ही सौंदर्य प्रदान किया था।  उसकी लम्बी, गोलाई में आती नाक और उसमें पहना सोने का बारीक तार उसके लावण्य की इकाई में असंख्य शून्य लगा देता था।  हमेशा हंसती रहती थी, कनक की बौर की तरह बौराई बौराई रहती थी।  अपने मोहल्ले में सबकी लाडली थी क्रिया। लम्बे , घने बालों को अक्सर खुला रखती थी मानो बालों के पीछे कुछ छिपाया हो।  रखती भी क्यों न ! अनजाने से बंधन में बंधे यथार्थ को  खुले बाल जो पसंद थे।  एक पल के हर पल में सिर्फ यथार्थ को महसूस करती थी।  निस्स्वार्थ , निश्छल , परिपक्व , वासना से कोसों दूर - ऐसा अलग - सा प्रेम था उनका , मानो तेज़ बारिश में खुले आकाश में दो पंछी उड़ रहे हों।  सिर्फ़ क्रिया ही थी जिसके साथ वह मुस्कुरा पाता था और यही मुस्कराहट वह दिन के बाकी पहरों में सहेजता था। 

भावना से रहित यथार्थ प्रेम करता था क्रिया से - पूर्णतया समर्पित प्रेम ! दिन में बस एक घंटा मिला करते थे दोनों - ऊर्मियों के पाश में, नील सलिल किनारे, खुला आसमान , नारियल के पेड़ों की लम्बी कतारें , ठंडी बालू को स्पर्श करते चार पाँव और पाँव के  नीचे चुभते छोटे छोटे कंकण - सभी साक्षी थे उस अनूठे प्रेम के।  एक दूूसरे की भावनाओं को रूह तक स्पर्श कर चुके थे दोनों।  मौन - मूक प्रेम का ऐसा दृष्टांत शायद न कभी किसी ने देखा था , न ही सुना था।  दोनों बस टहलते रहते थे सागर किनारे - कभी दो लब्ज़ भी नहीं कहते थे एक दूूसरे से उस एक घंटे में , तो कभी दुनिया भर  बातें कर लेते थे उसी  एक घंटे में। क्रिया का कंठ बहुत  सुरीला था। जब कभी वह गुनगुनाती , तो यथार्थ सब कुछ भूलकर क्षितिज की ओर ताकता रहता और क्रिया को सुनता रहता। कुछ सोचा करता था वह , पर क्या  … यह शायद उसे भी नहीं पता था।  दोनों उस एक घंटे में पूरा दिन जी लिया करते थे।  यथार्थ क्रिया की आवाज़ को रोशनी देना चाहता था।  कभी कभी उसे लगता मानो सातों सुरों ने शायद क्रिया की आवाज़ को अलंकृत करने के लिए ही अस्तित्व धारण किया है।  यथार्थ के जीवन का एक ही लक्ष्य था - उसकी आवाज़ को रोशनी देना , कम से कम उसकी आवाज़ को  … !

उसी क्रिया का हाथ था वह - चार चूड़ियों से सजा ! प्रणय की किलकारी ने एक विचित्र सी उमंग पैदा कर दी थी।  उसे समझ ही नहीं आया कि यह क्या है ! क्या वात्सल्य को गरिमा प्रदान करने की लालसा या फिर अपने सूने घर में किसी और के होने की चाह या फिर अपने दिन के तेइस घंटों में स्वयं को व्यस्त रखने का तरीका !! कुछ चल रहा था क्रिया के मन में।  दो क्षण रुकी , और फिर तीसरे ही पल बिना कुछ कहे , बिना कुछ सुने , यथार्थ के हाथों से उस कली को अपने हरे दामन की बगिया में समेटती चल दी अपने घर की ओर।  वह नाराज़ नहीं थी यथार्थ पर, उससे होने जा रहे इस कृत्य पर , उस बच्चे के लिए पनपी उसकी बेरूखी पर - क्योंकि वह जानती थी यथार्थ को।  जो व्यक्ति दिन का अधिकांश समय अकेले में बिताना पसंद करे , जिसने अपनी दुनिया को एक संकीर्ण सी परिधि में बाँध लिया हो , तब बाहरी दुनिया से अचानक ही आये  किसी जीव के लिए मुश्किल हो जाता है उस परिधि को पार करना।  मनोविज्ञान के इस गूढ़ दर्शन  से भली - भांति परिचित थी क्रिया। क्रिया के जाते ही हमेशा की तरह बिना पीछे देखे फिर से अन्यमनस्क सा अपनी दुनिया की ओर लौट आया  यथार्थ !

अगले दिन से ही कुछ परिवर्तन हुआ  …. 

… शेष अगले अंक में !


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