Monday 12 September 2016

Listen! Go away, please!



Reminiscences from my diary

Sep 9, 16 Friday
4 pm, GS, CD, Bangalore

सुनो,
ये जो तुम , गाहे - बगाहे -
- मुझसे बात करने की कोशिश करते हो -
- मत किया करो !

तुम्हें , शायद, कभी कभी -
यह ख्याल गहरा जाता है कि -
- तुम्हारे दूर जाने से -
मुँह मोड़ने से -
सामने होकर भी साथ न होने से -
बहुत अपने से बहुत पराया कर देने से -
मैं -
हैरान, परेशान हूँ -
दुःखी हूँ -
उदास हूँ   ... !
अगर ऐसा है, तो मत सोचो ये सब !

तुम हमेशा से ही -
'प्रगतिशील' रहे हो !
आगे बढ़ना -
और आगे बढ़कर, गुज़रे कल को -
चिता देना -
तुम्हारी आदत रहा है शायद !
आखिर तुमने भी सलिल - सा ही -
- स्वाभाव पाया है !

और, जब से -
यह बात समझा हूँ ,
तब से -
तुमसे कोई शिकायत नहीं रही !
तुम्हारे वजूद का -
तुम्हारे होने या न होने का -
- अब मुझपर शायद कोई असर नहीं होता !

हाँ, इस दौरान -
- एक अच्छी बात हुई है -
- और वह ये कि -
मेरी खुद से पहचान कुछ और गहरी हो गयी है !

खैर  ...
रही बात, बीते दिनों की -
बीती बातों की -
तो सुनो !
वह इमारत भी गिर चुकी है !
और, आधी - पौनी यादों का खंडहर भी -
चरमरा रहा है !
कभी भी ढह जाएगा !

इसी लिए कहता हूँ -
सुनो!
तुम बस आगे बढ़ो !
और, ये जो मेरा बचा - कुचा अस्तित्व -
- तुम्हें , गाहे - बगाहे -
घेर लेता है -
इसे भी जला दो !
तुम्हें तुम्हारे राह तकता मैं -
- अब कभी नहीं मिलूंगा !

















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