Saturday 17 December 2016


Thou! Thou! Thou!


Reminiscences from my diary

Dec 17, '16
Murugeshpalya, Bangalore


दाएँ हाथ की उँगलियों से जब -
- अपने बाएँ हाथ की नब्ज़ टटोलता हूँ, तो -
उसकी हर कम्पन में मुझे -
- तू साँस लेता दिखता है -
मानो -
उस नब्ज़ में गुज़रता लहू -
तू ही तो है !

जब ऐसे ही कभी -
कोई पलक -
आँखों के आस पास -
या गाल पर कहीं -
ठहर सी जाती है -
तो उस ठहरी ख्वाहिश में ठहरा -
तू ही तो है !

बैठे - बैठे, यूँ ही कभी -
- जब बिन सावन का सलिल -
- मेरे नयनों से बरसने लगता है -
और, सरकते - सरकते उसकी पहली बूँद -
- जब मेरे अधरों को छूती है -
तो उस पहले स्पर्श में स्पर्श होता -
तू ही तो है !

दिन भर की थकान, जब मेरे शरीर को -
निढाल कर देती है -
और बिस्तर पर लेटे-लेटे मेरी उँगलियाँ यूँ ही -
सिलवटों से गुफ़्तगू करने लगती हैं -
तब एक झोंका कहीं से -
एक झपकी ले आता है।
उस झपकी में झपकी लेता -
तू ही तो है !

कभी कोई पुराने लम्हों का एक कतरा -
राख - सा उड़ता हुआ -
तेरे पास आये, तो बताना -
क्या तूने भी कभी मुझे -
- ऐसे ही जिया है ?














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