Saturday, 5 July 2025

The weekend poignance

Reminiscences from my diary
July 05, 2025
Saturday 2330 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक उदासी है, बदहवासी जैसी, 
जो हर चौथे-पाँचवे दिन धमक पड़ती है, मानो
चौखट के पास, या किसी खिड़की की ओट में, या छत को जाती सीढ़ियों पर लगे मकड़ी के किसी जाले में छिपी बैठी गिन रही हो 
पहर-पहर, दिन-दिन अपने पैने नाखूनों पर कि 
कब कुछ दिन बीतें और कब फिर से -
घुस जाए मेरे घर, मेरे कमरे, मेरी रसोई में 
सुस्ताने दो-ढाई दिनों के लिए 
मैं बहुत जतन करता हूँ  
धूप जलाता हूँ, एग्जॉस्ट चलाता हूँ, रखता हूँ रोशनदान, खिड़कियाँ, दरवाज़े खुले 
फ़र्श रगड़ता हूँ, पर्दे झाड़ता हूँ, ख़ुशामद भी करता हूँ 
पर कम्बख़्त यूँ डेरा डालती है जैसे यह घर मेरा नहीं इसका हो हमेशा से 
मैं इसे घर में छोड़ निकल पड़ता हूँ चुपचाप, कहीं भी 
शाम-शाम, रात-रात 
अर्ज़ियाँ लगाता हूँ साईं से, नानक से
कि मदद करें, पीछा छुड़ाएँ मेरा 
वे मुस्कुरा देते हैं जैसे तथागत, और छोड़ देते हैं मुझे मेरे हाल पर 
चाँद को पुकारता हूँ फिर, कभी आता है, कभी नहीं, कभी आकर भी नहीं,
मसरूफ़ रहने लगा है इन दिनों, हो भी क्यों न 
उस पर नज़्में लिखने वाले बढ़ते ही जा रहे हैं 
घंटों भटकने के बाद आता हूँ वापस 
धीरे से, बिना आहट जैसे चोर 
जूते उतारता हूँ, सहलाता हूँ अपने पाँव
बिस्तर संवारता हूँ, दो घूँट पानी पीता हूँ और लेट जाता हूँ थका-हारा
ढेर सारी नींद, नींद में ढेर सारे सपने बँधाते हैं मेरा ढाढस 
मैं सोता रहता हूँ घुटनों को छाती से लगाए 
ग़फ़लत का आलम चलता रहता है यूँ ही 
बीत जाते हैं ये दो-ढाई दिन हमेशा की ही तरह 
कतरा-कतरा 

अगली भोर जब आँख खुलती है तो
कमरा लगता है एक सराय 
मेरी पीठ पर मचल रही होती है एक चस -चस 
और मुट्ठियों में होते हैं ढेर सारे हरसिंगार 





Wednesday, 2 July 2025

The forest whispers

Reminiscences from my diary

July 02, 2025
Wednesday 1945 IST
Murugeshpalya, Bangalore

सुनो !

किसी जंगल की साँस महसूस की है कभी ?
या उसकी आँच
अपनी धमनियों में ?
साँस की आँच में -
आस भी होती है क्या ?

अच्छा यह बताओ -

किसी आस में डूबे हो कभी ?
बेसुध बेसबब बैरागी 
'गर हाँ तो फिर भी डर लगता है कभी ?
यूँ ही किसी शह से ?
पीड़ से ?
या ख़ुद से ?
या ख़ुदा से ?

यूँ करो - 

सारे डर समेटो 
उन्हें हथेली पर रखो कभी और 
फूँक मार उड़ा दो पंखुड़ी-पंखुड़ी 
या बो दो -
किसी बरगद के नीचे 
छोड़ आओ अपनी पीड़ -
किसी पंछी के नीड़ 

जान पाओ तो जान लो -

वहाँ पोखरों में सुस्ताता है मेंह 
हरे रंग में होते हैं कई कई रंग 
साँझ पखारती है चुप्पियों की देह 
जुगनू बीनते हैं लौट आने की दस्तक 
और 
पतझड़ के बाद भी होता है एक और पतझड़ !

कुछ राज़ सिर्फ़ जंगल जानता है !