The forest whispers
Reminiscences from my diary
July 02, 2025
Wednesday 1945 IST
Murugeshpalya, Bangalore
सुनो !
किसी जंगल की साँस महसूस की है कभी ?
या उसकी आँच
अपनी धमनियों में ?
साँस की आँच में -
आस भी होती है क्या ?
अच्छा यह बताओ -
किसी आस में डूबे हो कभी ?
बेसुध बेसबब बैरागी
'गर हाँ तो फिर भी डर लगता है कभी ?
यूँ ही किसी शह से ?
पीड़ से ?
या ख़ुद से ?
या ख़ुदा से ?
यूँ करो -
सारे डर समेटो
उन्हें हथेली पर रखो कभी और
फूँक मार उड़ा दो पंखुड़ी-पंखुड़ी
या बो दो -
किसी बरगद के नीचे
छोड़ आओ अपनी पीड़ -
किसी पंछी के नीड़
जान पाओ तो जान लो -
वहाँ पोखरों में सुस्ताता है मेंह
हरे रंग में होते हैं कई कई रंग
साँझ पखारती है चुप्पियों की देह
जुगनू बीनते हैं लौट आने की दस्तक
और
पतझड़ के बाद भी होता है एक और पतझड़ !
कुछ राज़ सिर्फ़ जंगल जानता है !
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