Tuesday, 23 September 2014

… Beyond that glass!


Reminiscences from my diary
August 21, 2014
3:30 p.m.
Bangalore



मेरे और सलिल में , बस  …
काँच भर का फासला था !

एक ओर , मैं -
औपचारिकता के लिबास में लिपटा -
सभ्यता का मुखौटा लगाए -
बैठा हुआ था -
खिड़की के बगल में -
अपनी 'डेस्क ' पर !

और, काँच के उस पार  …
सलिल बरस रहा था !
अल्हड़ -
अनगढ़ -
मलंग !
काँच पर सांप - सा -
रेंग रहा था !

अनायास ही , मेरी उंगली -
उस बनती , बिगड़ती रेखा के साथ -
चलने लगी , मानो -
इस क्षण -
इस भू पर -
बस यही कर्म हो !

काँच पर निशान उकेरते - उकेरते -
 जब सलिल ठहरा ,
तब मेरी उंगली भी ठहर गयी !
और,
जब फिर आगे बढ़ा -
तो मैं भी आगे बढ़ने लगा !
काश! हमेशा ही ऐसा हो पाता !
काश! जब तू रूककर आगे बढ़ गया -
तो मैं भी आगे बढ़ पाता !

अब थोड़ी ही देर में -
वाष्प बन जायेगा यह -
और,
हल्के  - हल्के निशान रह जायेंगे
काँच पर -
इसके !
फिर कल ,
कोई सफाई वाला आएगा -
और,
'कॉलिन' छिड़ककर -
इसके निशानों को साफ़ कर देगा !

उसे क्या पता -
निशान सिर्फ वहीँ नहीं बने थे  .... !!







Tuesday, 12 August 2014

Take away your pain !!



Reminiscences from my diary
July 28, 2014
9 A.M.
Bangalore


वह जो तुझे  याद कर के -
टीस उठती है, मन में -
मुझे अंदर तक चीर जाती है !
कुछ पल के लिए -

शरीर का हर रोम सिहर उठता है  …
और फिर -
निढाल हो जाता हूँ मैं !

कभी लगता है -
तुझे पाने की ख्वाहिश में -
कुछ ज्यादा ही  मांग लिया -
साईं से !
पर साईं  भी क्या करता !
लकीरें ही रुस्वा थीं !
 तू तो नहीं मिला -
उम्र भर का दर्द मिल गया  …
कचोटता -
झकझोरता -
मेरे अस्तित्व को समेट कर -
निचोड़ता  … !

पहले लगता था -
कुछ  उम्मीद, कहीं टिमटिमा रही है !
पर , हर पहर के साथ -
उम्मीदों  के दीये -
मैं -
कितने ही घाटों पर बेच चुका हूँ !
कितनी ही गंगाओं में बहा चुका हूँ !

जब लौ ही नहीं -
तो दीया रखकर क्या करता !
अब तो बस  …
टीस है -
जो-
तुझसे अलग करने की -
कोशिश में, या यूँ कहूँ ,
साज़िश में -
तुझसे और जोड़ जाती है !!



Thursday, 3 July 2014

Trust me, you won't find him!



Reminiscences from my diary
June 29, 2014...Saturday
In train from Delhi to Bangalore



बहुत मुद्दत बाद -
जब तुम
ढूंढते -ढूंढते -
मुझ तक आये -
- तो कुछ असमंजस में पड़ गया मैं !
तुम जिसके पास आये हो -
वह तो यहाँ है ही नहीं !
तुम जिसे खोज रहे हो -
वह तो तुम्हे ही खोजता - खोजता -
- कब का खो चुका है !

देख लो ,
यूँ तो वह अब नहीं मिल पायेगा  …
पर यदि फिर भी ढूंढना चाहते हो -
- तो देखो -
शायद A-118 के दरवाज़े पर चिपके -
फटे कागज़ों में कहीं दिख जाये ,
या फिर ,
हो सकता है  …
उस कमरे की मटमैली दीवार पर उकेरे,
मटमैले गणपति के मटमैले रंगों में -
रंगा बैठा हो !

 यूँ तो फिर कहता हूँ -
मुमकिन  नहीं अब -
- उसका मिलना  …
 जिसे तुमने खुद ही खोने के लिए -
- छोड़ दिया था !
पर यदि फिर भी कोशिश करना चाहो -
- तो  कर लेना !
शायद बैठा मिला जाये -
किसी निर्जन - से मंदिर की सीढ़ियों पर -
अस्त होते सूर्य की झीनी रोशनी को -
-  ताकता हुआ !

अगर  वहां भी विफल हो जाओ जाओ ,
तो देखो , शायद ...
किसी व्यस्त बाज़ार में -
लोगों के जंगल में -
सर्प - सा  मार्ग बनता बनाता -
सड़कों की खाक छानता -
कभी किसी दुकान पर यूँ ही रुकता -
और फिर , कुछ सोचते- सोचते -
यूँ ही आगे बढ़ता हुआ -
दिख जाये !
सुना था कभी ,
जिह्वा बहुत चटोरी थी उसकी  …
तुम्हे तो पता ही होगा !
ठहरकर चलना ज़रा ,
रास्ते में आती चाट की दुकानों में -
और नुक्कड़ों पर खड़े ठेलों में -
क्या पता , कहीं किसी ठेले पर -
- गोलगप्पे या टिक्की खाता -
- दिख जाये !

तुम इतना चलोगे , तो शायद -
थक जाओगे,
पर, उसका मिलना मुश्किल है !
मैंने भी की है कोशिश , यूँ तो ,
उससे मिलने की  -
पर अब नहीं आता वह ,
मुझसे भी मिलने  … !
कर सको तो,
एक बार उसे उसकी कविताओं में -
- ढूंढने का प्रयास कर लेना !
हो सकता है -
उसका पता छिपा हो -
शब्दों के ताने-बाने  में !
हाँ,
यह हो सकता है कि -
उसका पता हो न हो ,
उन अक्खरों में , शायद , तुम ही-
- खुद को पा जाओ !

अगर अब भी हार न मानो ,
तो देखो -
शायद किसी छोटे बच्चे को ,
एक बड़ी - सी कहानी सुनाता हुआ -
- मिल जाये !
या फिर ,
कहीं, किसी -
- बहते , बरसते या ठहरे सलिल से -
- गुफ़्तगू करते हुए -
- अल्फ़ाज़ों में पढ़ा जाये !

हो तो यह भी सकता है कि -
किसी बूढ़े पुस्तकालय की -
धूल चाटती किताबों की महक में -
घुली हो उसकी भी  गंध  …
अगर पहचान सको ,
तो हो सकता है -
उसका पता मिलने में आसानी हो !

अगर कभी कोई हवाई उड़ान भरो ,
तो देखना ज़रा -
कहीं तुम्हारी बगल में ही बैठा -
बंद खिड़की से बादलों को-
- छूने की -
कोशिश न कर रहा हो !
कभी किसी भोर में -
जब तुम गहरी नींद में डूबे हो -
और अचानक से आँख खुल जाए -
तो देखना ,
कहीं हवा के साथ वह भी तो नहीं छू गया तुम्हें !
पर, तुम फिर भी उसको,
शायद ही पकड़ पाओ !
सुना है , अब हवा का साथी है वह  …
ठहरेगा नहीं !

यूँ तो कई पते बता दिए तुम्हें , मैंने -
पर , मत ढूंढो अब उसको -
- कि वह अब दूर जा चूका है -
क्षितिज - सा दूर  …
क्षितिज से दूर  …
बहुत देर से आये तुम -
अब नहीं रहता वह यहाँ !
अब नहीं रहता वह यहाँ !




Monday, 26 May 2014

I yearn for you, sky!


Reminiscences from my diary ...
January 3, 2012
750, IISc, Bangalore


एक कतरा आसमान छूने की तमन्ना ,
अक्सर मचल - सी  जाती है -
बौराई बयार जब कहीं से -
- कोई जानी - अनजानी - सी महक ले आती है !

फिर सोचता हूँ ,
इन बैरी बादलों की भीड़ कैसे पार करूँ !
लोग  इन्हें  अपना कहते हैं,
पर, मैं इनसे कैसे इतना प्यार करूँ !

जब सोचते -सोचते अचेतन हो जाता हूँ -
और, मुझे देखकर आसमान भी दुःखी हो जाता है ,
तब थक हारकर फिर से , हाँ, फिर से …
मुझे अक्षरों का सेतु नज़र आता है !

यही चाह रहती है ... काश!  ये तो ले जाएँ मुझे -
- उस एक कतरे के पास  …
जो है कई इंद्रधनुषों से परे -
- सात समुंदर पार !

वहां  …
… जहाँ सिर्फ 'मैं' हूँ ,
न कोई बंधन , न कोई राग !
न कोई दीवाली , न फाग !

पर सेतु बनाते - बनाते,
डर - सा लगने लगता है !
या फिर बेचैनी !
अगर ये अक्षर उड़ चले तो !
या फिर, सात समुन्दर में डूब  गए तो !
बादलों की भीड़ में  खो गए तो !

फिर  …
फिर क्या होगा !!
पर फिर मैं और मेरा मानस एक - दूसरे को  समझाते  हैं !
यदि अक्षर भी साथ नहीं रुकेंगे , तो भी   …
मेरे पास रह जाएगी -
मेरी आधी सी -
अधूरी - सी -
एक कतरा आसमान छूने की तमन्ना   … !







Saturday, 19 April 2014

Desires and Dreams of a Siesta ... 

Reminiscences from my diary 


February 26, 2014
Wednesday
2 AM Bangalore


आज मेरी नींद ने  …
चुपचाप  …
आसमान की काली चादर से ,
एक तारे को तोड़ा -
-और ,
उसके टूटने से पैदा होती -
- किसी ख्वाहिश को -
- मेरे सपने में पिरो दिया !
बौरा गयी थी, शायद  …
किसी की मन्नत में ,
अपना अक्स तलाश रही थी !

एक ज़माना तब था -
- जब सपने -
- किसी भटकते पथिक से -
- रास्ता ढूँढा करते थे -
- नींद की इस गहरी दरिया में  …
और ये दरिया -
- डूबी रहती थी -
- अपने ही सलिल में !

एक ज़माना अब है -
- जब इस दरिया का सलिल -
सूख गया है  …
तो खोजा  करती है यह -
- किसी सपने की थाह !

और, ऐसे ही -
- एक एक दिन बीत जाता है  …
रोज़ रात होती है -

और रोज़ , मेरी नींद -
टकटकी लगाये -
आसमान में  …
किसी तारे के टूटने की -
- बाट  जोहती रहती है !!





Thursday, 17 April 2014

                    Water and Ruins ...

Reminiscences from my diary




January 26, 2014
Sunday, 8:40 A.M.
HAMPI


हम्पी से कुछ दूरी पर है यह जगह। कितनी दूर  … नहीं पता ! कौन सी जगह है , क्या नाम है  … नहीं पता ! जहां बैठा हूँ , वहां मुंडेर से एक हाथ नीचे झील है  … 78 फ़ीट गहरी झील ! अजीब सी शांति है यहाँ ! एक तरफ झील है , और बाकी दिशाओं में पथरीले पहाड़ , चट्टानें  … घाटी है कोई !

नज़र दौड़ाई तो लोगों को देखा  … हँसते हुए , गाते हुए , पीते हुए , शोर करते हुए  … खुश होते हुए ! और फिर खुद को देखा  … वही मैं और वही एक अजीब- सी खुशनुमा उदासी ! सबके आस-पास होते हुए भी एक अजीब-सा अकेलापन ! और जब ये ख्याल ज़हन में ज्यादा आने लगा तो पाया कि अरे ! यह उदासी, यह अकेलापन अजीब से कहाँ रह गए हैं  … हमजोली बन गए हैं , हमराही बन गए हैं ! पहले तो बस डायरी साथ रहती थी पर अब  … !!

कल भी दो बार आया था यहाँ , इस झील के किनारे ! दिन में तो काफी गर्मी थी पर रात में कुछ अच्छा सा लगा यहाँ बैठ के ! अजीब-सा अच्छा ! ऊपर तारों से भरा आसमान था , जहाँ एक टूटता तआरा भी नज़र में कैद हो गया ! नीचे सलिल , बस सलिल, दूर दूर तक फैला सलिल , अनगिनत लहरों से अलंकृत सलिल , तारों के अक्स में डूबा सलिल , शांत - विकराल सलिल ! छूने की तमन्ना थी मन में , पर फिर लगा, जब बाकी तमन्नायें दम तोड़ चुकी हैं , तो फिर एक तमन्ना और सही !!

जिस गोलाई में झील ढाली गयी है , याद आ गया सलिल के साथ , सलिल के किनारे बितायी गयी अमेरिका की वह धुंधली शाम ! चार साल हो जायेंगे इस जून , पर लगता है कि आज भी वह पल यहीं- कहीं है  … पास  … बहुत पास  … इतना पास कि हाथ बढ़ाऊं तो छू लूँ ! मरीचिकाओं से भरा हुआ यह मानस कब मानेगा , पता नहीं !

चाह है कि ज़रा सा आगे बढूँ और समा जाऊं इस सलिल में ! गलत ख्याल है - जानता हूँ, और मानता भी हूँ  … पर फिर भी डूबना चाहता हूँ ! क्या पता , मन अनंत तक के लिए शांत हो जाए  … तृप्त हो जाये !

कभी लगता है कि  शायद कोई मनोवैज्ञानिक परेशानी है मुझे ! मैं ऐसा भी तो नहीं था ; सोचता था , पर हमेशा ही सब कुछ अलग अलग नहीं लगता था ! पर अब लगता है कि मैं शायद यहाँ का हूँ ही नहीं ; ये सब मेरे लिए नहीं है ! खोना है  … कहीं दूर खोना है - कैसे , पता नहीं ! माध्यम कोई भी हो , कुछ भी ! इस झील के सलिल में भी शायद कहीं दूर गुम हो जाने का माध्यम ढूंढ रहा है मन !

अक्सर सोचता हूँ कि कहीं अलिफ शफाक ने '40 रूल्स ऑफ़ लव' में जिस 'void' की बात की है , कहीं वो मेरे ही लिए तो नहीं था ! शायद उससे अच्छा विश्लेषण मैं अपनी मनोस्थिति के लिए न ही लिख सकता हूँ , न ही पा सकता हूँ ! अजीब है सब, अलग अलग सा ! कुछ ऐसा , जिसे लिखा नहीं जा सकता ! लोग बोलते हैं , कहते कहते कुछ कुछ कह जाते हैं - कुछ फर्क ही नहीं पड़ता ! कई बार लगता है, सच में 'स्पॉइलर' सा ही तो हूँ !  सोचता हूँ, अब से कहीं जाऊंगा, तो अकेले ही जाया करूँगा - कम से कम  किसी और को निराश करने का मौका तो नहीं मिल पायेगा !

हल्की - हल्की धूप है ; झील की तरफ देखा तो सलिल पर अपनी परछाई दिखाई दी - आँख के कोने में एक बूँद आकर ठहर गयी और अधरों पर  … न हंसी , न शिकायत ! बहते सलिल पर स्थिर परछाई - अजीब है ! मुद्दत बाद देखा ऐसा ! वरना अपने अस्तित्व को नष्ट होते देखा है सलिल के अस्तित्व में !

प्रकृति भी मौके ढूंढती रहती है - कभी हंसाने के, कभी रुलाने के ! कहते हैं - हर आत्मा में ईश्वर वास करता है  … यहाँ तो शायद मेरा ईश्वर किसी कोपभवन में बैठा है - कुछ कहता ही नहीं ! समय के साथ साथ 'प्लास्टिक स्माइल' का 'कांसेप्ट ' भी फीका पड़ता जा रहा है! समय  … लगता है मानो किसी छूटती रेलगाड़ी की खिड़की से हाथ हिलाता कह रहा हो - तू पीछे छूट गया  … तू पीछे छूट गया ! !














Sunday, 13 April 2014

... Only If You Could Come!!




Reminiscences from my diary
January 21, 2012 Friday, 11 p.m.
750, Balcony, 7th floor, IISc
Bangalore


आँखों में बसी कुछ गीली तरंगे,
हृदय में वही प्रणय- राग !
पथ में बिछ जाती हर उमंग ,
आ जाते जो तुम एक बार !

गूँज उठती कान्हा की बंसी ,
और मंदिर के शंखनाद !
मन भी गाता कोई मधुर गीत,
आ जाते जो तुम एक बार !

तुम कुसुमाकर , मैं सुमन ,
छा जाता मकरंद औ' पराग !
खिल जाती गली -गली कली -कली ,
आ जाते जो तुम एक बार !

हर स्मृति बौरा जाती ,
अश्रु पा जाते नयनजाल !
मन का मानस भी खिल जाता ,
आ जाते जो तुम एक बार !

किरणें भी फिर से छन जातीं ,
मेघों में बजती सलिल- ताल !
नभ का मस्तक भी झुक जाता ,
आ जाते जो तुम एक बार !

जग जाती फिर से हर ख्वाहिश ,
और ख्वाबों का घना जाल !
हर मिथ्या बनती यथार्थ,
आ जाते जो तुम एक बार !


(कुछ बरसों पहले महादेवी जी द्वारा रचित एक कविता पढ़ी थी जिसका शीर्षक भी कुछ ऐसा ही था ! यह कविता उन्हें और उनकी कविता को समर्पित !)