Thursday, 23 January 2020

अमृता की कविताएँ  (1/8 )


रसीदी टिकट

ज़िन्दगी जाने कैसी किताब है,
जिसकी इबारत अक्षर-अक्षर बनती है
और फिर अक्षर-अक्षर टूटती,
बिखरती और बदलती है  ...
और चेतना की एक लम्बी यात्रा के बाद
एक मुकाम आता है, जब -
अपनी ज़िन्दगी के बीते हुए काल का,
उस काल के हर हादसे का,
उसकी हर सुबह की निराशा का,
उसकी हर दोपहर की बेचैनी का,
उसकी हर संध्या की उदासीनता का,
और उसकी जागती रातों का,
एक वह जायज़ा लेने का सामर्थ्य
पैदा होता है, जिसकी तशरीह में
नए अर्थों का जलाल होता है, और -
जिसके साथ हर हादसा एक वह
कड़ी बनकर सामने आता है,
जिस पर किसी 'मैं' ने पैर रखकर
'मैं' के पार जाना होता है  ...

***
अमृता की डायरी 'रसीदी टिकट' से ~


(1)
लोग कहते हैं, रेत  रेत है, पानी नहीं बन सकती ! और कुछ सयाने लोग उस रेत को पानी समझने की गलती नहीं करते ! वे लोग सयाने होंगे, पर मैं कहती हूँ - जो लोग रेत को पानी समझने की ग़लती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कमी रही होगी  ...

***


(2)
सूरज के डूबने से मेरा कुछ रोज़ डूब जाता है, और उसके फिर आकाश पर चढ़ने के साथ ही मेरा कुछ रोज़ आकाश पर चढ़ जाता है।  रात मेरे लिए सदा अँधेरे की एक चिनाब - सी रही है, जिसे रोज़ इसलिए तैरकर पार करना होता है कि उसके दूसरे पार सूरज है  ...

***


(3)
मेरा सूरज बादलों के महल में सोया हुआ है
वहाँ कोई खिड़की नहीं, दरवाज़ा नहीं, सीढ़ी भी नहीं
और सदियों के हाथों ने जो पगडण्डी बनाई है
वह मेरे पैरों के लिए बहुत संकरी है  ...

***


(4)
इस दास्ताँ की इब्तदा भी ख़ामोश थी, और सारी उम्र उसकी इन्तेहाँ भी ख़ामोश रही।  आज से चालीस बरस पहले जब लाहौर से साहिर मुझसे मिलने आता था, आकर चुपचाप सिगरेट पीता रहता था।  राखदानी जब सिगरेटों के टुकड़ों से भर जाती थी, वह चला जाता था, और उसके जाने के बाद मैं अकेली सिगरेट के उन टुकड़ों को जलाकर पीती थी।  मेरा और उसके सिगरेट का धुआँ सिर्फ़ हवा में मिलता था, साँस भी हवा में मिलते रहे, और नज़्मों के लफ़्ज़ भी हवा में  ...

सोच रही हूँ, हवा कोई भी फ़ासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फ़ासला तय किया करती थी, अब इस दुनिया और उस दुनिया का फ़ासला भी ज़रूर तय कर लेगी  ....

***


अमृता के कुछ खत, इमरोज़ के नाम ~


(1)
इमा,

इस बार
ब्रश में
होली का रंग
भरकर लाना  ...
तुम्हारे सफ़ेद हाथों की कसम  ...

आशी  [09.02. 1968]

***


(2)
जीती,

तुम जितनी सब्ज़ी लेकर दे गए थे, वे ख़तम हो गयी हैं।
जितने फल लेकर दे गए थे, वे भी ख़तम हो गए हैं !
फ्रिज खाली पड़ा है !

मेरी ज़िन्दगी भी खाली होती हुई लग रही है।  तुम जितनी साँस छोड़ गए थे, वे ख़तम हो रही हैं।

जीता, मेरे इस ऊपर लिखे ख़त को लेकर दुःखी मत होना।  रात के गहरे अँधेरे में लिखा था।

मैं उदास हूँ, लेकिन तुम्हारे काम का ख़्याल आता है, तो अपने अकेलेपन को बहला लेती हूँ।  वैसे नहीं मालूम यह उम्र का तकाज़ा है या ज़िन्दगी के बाकी रहते थोड़े दिनों का एहसास।

जीती, अगर वहाँ काम का कोई भविष्य दिखाई देता है तो ज़रूर स्ट्रगल करना, वरना व्यर्थ में मत भटकना।  यहाँ घर बैठे हमें सूखी दाल - रोटी भी बहुत है।  आज मैं अस्सी बरस की या पिछले ज़माने की औरत की तरह बातें कर रही हूँ।

शायद शाश्वत यही होती है।

वही शाश्वत
माजा [26.09.1968]

***


(3)
इमा,

कल तुम्हारा कमरा बंद रखा था।
आज बहुत दिल घबराया, तो कमरा खोल दिया  ...

पर सारे फ़र्श पर फैली हुई और छत तक पसरी हुई चुप नहीं टूटती !

तुम्हारी
एमी  [12.07.1975]

***


(4)
.... ,

यहाँ मैं इस तरह अकेली पड़ी हूँ जैसे अंधे की माँ उसे मस्जिद में अकेला छोड़ आए !

टूट जाएँ रेलगाड़ियाँ, जो तुम्हें लौटाकर नहीं लातीं !

कल गुलज़ार आया था, "सुना , आपकी तबीयत ठीक नहीं है।  ख़बर लेने आ गया।  क्या बात है ?"

मैंने जवाब दिया, "वैसे तो ठीक हूँ, पर शाम को दर्द शुरू हो जाता है, जैसे ही सूरज डूबता है।"

गुलज़ार हँसने लगा, "पुराने समय में किसी ने 'काल' को पाये से बाँधा था, आप सूरज को पाये से बाँध लीजिये।  इसे मत डूबने दीजिये।"

मैंने उसे बताया, "वह तो मैंने बाँध रखा है, शाम को जब जीती का ख़त आता है, तो वह सूरज ही तो होता है।"

सच जीती, तुम्हारा ख़त शाम का सूरज ही तो होता है।

क्या मैं कम करामाती हूँ ! मैं भी सूरज कोण पाये से बाँध सकती हूँ  ...

साँस साँस से तुम्हारा इंतज़ार हूँ  ...

तुम्हारी अपनी
....   [03.01. 1969]


***

अमृता के कुछ सपने ~

(1)
रात आधी बीती होगी
थकी - हारी
नींद को मनाती आँखें
अचानक व्याकुल हो उठीं

कहीं से आवाज़ आई -
"अरे, अभी खटिया पर पड़ी हो !
उठो ! बहुत दूर जाना है
आकाश गंगा को तैरकर जाना है !"

मैं हैरान होकर बोली -
"मैं तैरना नहीं जानती,
पर ले चलो,
तो आकाश गंगा में डूबना चाहूँगी !"

एक ख़ामोशी - हल्की हँसी
"नहीं, डूबना नहीं, तैरना है  ...
मैं हूँ न  ..."

और फिर जहाँ तक कान पहुँचते थे
एक बाँसुरी की आवाज़ आती रही  ..."

***

(2)
एक अजीब घटना थी -
कि सारा दिन घर से धूप और
अगरबत्तियों की खुशबू आती रही -
जिस कमरे में जाऊँ; खुशबू थी -
हालाँकि कहीं कोई अगरबत्ती नहीं जली हुई थी !
हैरान होकर अपना बदन सूंघा -
सारे बदन से वह महक आ रही थी  ...

सारा दिन यह आलम रहा -
पर संध्या होते ही यह महक खोने लगी -
इमरोज़ को भी यह बताने से झिझक गई
कि वह हँस देंगे  ...

***

(3)
जैसे एक साया - सा देखा -
कि एक जगह शिव धूनी सेक रहे हैं -
मैं बाईं तरफ़ उनके पास बैठी हूँ -
और दाईं तरफ़ पार्वती नृत्य कर रही हैं  ...

***

(4)
अभी गुज़रती रात में देखा -
कोई तीन बच्चे आए -
एक - सी सूरत लिए,
हँसते - हँसते -
उनके हाथों में फूलों का
एक - एक गजरा था -
वे तीनों गजरे मेरे पैरों को बाँध गए  ...

सुबह काका श्री का टेलीफोन आया
मैं हैरान - सी बैठी थी -
रात की घटना सुनाई -
वह हँस दिए -
वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश थे
... हैरान - सी बैठी हूँ  ...

***

(5)
देखा -
सामने साईं खड़े हैं -
मैंने उनके मस्तक पर तिलक लगाया
लम्बी दिशा का, वर्टिकल !
साईं उसी तरह खड़े रहे  ...
फिर देखा -
कोई हाथ नहीं था -
पर मेरे मस्तक पर उसी तरह का तिलक
लगा हुआ था, लम्बी दिशा का -
ख़ुदाया ! तेरी तू जाने !
मैं नहीं जानती  ...

***


Tuesday, 14 January 2020

The right alternative!

Reminiscences from my diary

Jan 14, 2020
Tuesday, 10:20 pm
Murugeshpalya, Bangalore


तुम्हें जीना 
तुम में जीना 
तुम्हारे संग जीना 
या बस, जीना ... 
मैं आज भी बूझ रहा हूँ -
- अपनी साँस का ठिकाना !

ख़ैर -
मेरी छोड़ो !
तुम बताओ !
तुम 'गर होते-
- तो कौन -सा विकल्प चुनते ?

Saturday, 7 December 2019

... yet another piece!


Reminiscences from my diary

Dec 07, 2019
Saturday 10:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore


"हृदय में धँसा स्मृतियों का ध्वस्त प्राचीर
उस प्राचीर के यहाँ - वहाँ बिखरे अवशेष
उन अवशेषों की नींव से निकले वीरान अरण्य
और
उन अरण्यों में दबी - घुटी - मरी घोर चीत्कारें ...
... इन सबकी कोई थाह नहीं
और यदि है तो,
उस थाह का -
कोई मानदंड, कोई समीकरण नहीं  ...."

तुमने वही कहा जो तुमने माना या -
मानना चाहा !
तुमने वही माना जो तुमने जिया या -
जीना चाहा !

मैंने कभी तुम्हारे आगे बढ़ते तेज़ कदमों को देखा
तो कभी
शून्य में घुलते शून्य को !

फिर -
जाते हुए तुम की ओर पीठ की -
कलम छिटकाया -
मुस्काया -
सकुचाया -
घबराया -
और -
एक नई कविता लिखने बैठ गया !



Tuesday, 12 November 2019

Intricacies


Reminiscences from my diary

June 03, 2019
Monday, 06:00 pm
In flight to Bangalore


जब - जब तुम साथ नहीं होते हो,
तब - तब, तुम -
असल में -
बहुत करीब होते हो !
वहीं दूसरी तरफ -
जब - जब तुम सामने होते हो -
या तुमसे बात होती है -
तब - तब लगता है कि -
तुम, तुम नहीं हो !
कोई और हो, असल में !

कई मर्तबा सोचा है, समझने की -
- आधी - अधूरी कोशिश भी की है -
क्या वह 'तुम', जिसे मैं -
- अपने बहुत करीब पाता हूँ -
उस 'तुम' से वाकई अलग है -
- जिसकी तस्वीर या जिसकी आवाज़ -
- मैं
- यूँ ही
- गाहे बगाहे
कभी सुन लेता हूँ, कभी देख लेता हूँ ?

काश मैं यह सवाल
तुमसे पूछ पाता !
काश मैं यह उलझन
तुमसे साझा कर पाता !

ये बरस, जो मैंने -
तुम्हारे होते हुए भी -
तुम्हारे बिना -
तुम्हारी तड़प में बिताए हैं -
और -
तुम्हारे न होते हुए भी -
अपनी रिक्तता में -
तुम्हें घोला है -
बस, यही बरस -
हाँ, यही बरस मेरे सगे हैं !

तुम्हें इन बरसों के बारे में बताऊँगा, तो शायद -
पागल करार दिया जाऊँगा !
यूँ भी तुम, शायद -
अपने होने से जूझ रहे हो !
शायद तुम खुद को पहचानने की मशक्कत में -
- तार - तार उलझे हो !

तुम्हें एक और सवाल से -
तुम्हें मुझसे -
तुम्हें तुमसे -
रु- ब- रु कराऊँ भी तो कैसे ?