Monday, 18 April 2022

No, I won't give this any title! 


Reminiscences from my diary

April 18/19, 2022
Arthur's seat, Edinburgh/
Train from. Edinburgh to London

0200 pm/ 0100 am


मैं जब भी कभी कहीं जाता हूँ तो अक्सर ही सोचा करता हूँ, चाहा करता हूँ कि जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ से कभी लौट न पाऊँ, वहीं कहीं बेशक्ल बेनाम गुमनाम हो जाऊँ। जानता हूँ कि यह बात तर्कहीन लग सकती है, और शायद है भी लेकिन ऐसा सोचना, ऐसा चाहना मेरे बस में नहीं! शहर हो, गाँव हो, देश हो, विदेश हो, पहाड़ हो, समुद्र हो - बात जगहों की सूची की नहीं, उस हलचल, या फिर उस तटस्थता की है जो मेरे साथ रहती है ! कितनी तसल्ली से कोई भी जगह मुझे, और मैं किसी भी जगह को अपना लेता हूँ! यूँ भी एकांतवास का मानचित्र पर कोई बिंदु नहीं होता! 

एक छोटा सा पर पूरा खिला हुआ चटक पीला फूल बयार के हर हिलोरे के साथ मेरे पाँव को छू रहा है। उस पर बैठी मधुमक्खी बेहद इत्मीनान से यहाँ की धूप सेंक रही है। चारों ओर हरी लंबी घास - बिल्कुल हरी - और पता नहीं, कहाँ कब कैसे खिला यह पीला फूल... 

इस सफ़र से पहले एक बार भी वैसा नहीं सोचा जैसा अमूनन सोचा करता हूँ। इस ख़्याल ने एक बार भी हवाला नहीं किया कि मैं यहाँ से न जाऊँ! बल्कि एक एक साँस ऐसे ली है जैसे किसी साहूकार का मोटा कर्ज़ मोटे ब्याज़ के साथ चुकाना है। एक खिन्नता है ... एक डर है ... एक टीस है ... एक चीख है जो निकल नहीं पाती ... एक आँसू है जो लुढ़क नहीं पाता ... एक चेहरा है जो दिख नहीं पाता ... एक पता है जो मिल नहीं पाता ... एक याद है जो मरती नहीं ... एक साँस है जो जीती नहीं ... 

तीन तरह के पेड़ों के झुँड हैं आँखों के ठीक सामने! पहले झुँड ठूँठों का है - नीचे से ऊपर तक दिशाओं को ओढ़े हुए - एक भी पत्ता नहीं, पर फिर भी शायद उम्मीद का हरापन समेटे ! इनके बराबर में कम लंबाई के चार पाँच पेड़ों का एक झुरमुट है - बेहद हरा रंग - आँखों को सुकून देता सावन सा हरा। फूल शायद नहीं हैं पर खूब भरे भरे! फिर ज़रा से कोण पर तीसरा समूह उनका जिन पर सफ़ेद फूलों के गुच्छे लदे हुए हैं - एक एक पेड़ पर सैकड़ों सैकड़ों गुच्छे - लेकिन मज़े की बात यह है कि हरी पत्ती शायद ही कोई  ... प्रकृति सा विरला कोई नहीं, ईश्वर भी नहीं! 

यहाँ से दूर भले ही कभी कभार भूल जाऊँ या भुला दूँ पर यहाँ होते हुए कैसे न याद करूँ कि कैसे इस जगह, इस मिट्टी ने लम्हा लम्हा बरस बरस बुनी मेरी रूहदारी को रातोंरात निगल लिया था, और मेरे हिस्से के ब्रह्मांड को तार तार कर दिया था! मैं कब से रेशा रेशा जोड़कर अपना मकड़जाल बुनने की कोशिश कर रहा हूँ ! हर बार कोई न कोई सफाई के बहाने आता है और एक ही झटके में ... पहले मैं धम्म से ज़मीन पर गिरता हूँ, और फिर कोई कोना, कोई सहारा, या फिर खुद ही एक बार फिर अपने में रम जाता हूँ! जब कभी थककर सुस्ताने बैठता हूँ तो कोई भी कभी भी कुचल कर चला जाता है! पर कभी भी पूरी तरह मेरा दम निकल नहीं पाता! 

मैं जिस पहाड़ी की ओर पीठ कर के बैठा हूँ, उसपर अनगिनत फूल खिले हैं पीले रंग के! पीला शायद यहाँ की मिट्टी का सबसे पसंदीदा रंग है! हर दरीचे से कम से कम एक पीला फूल झाँक रहा है! कुछ लोग सबसे ऊपर जाने के लिए रास्ता खोज रहे हैं, बना रहे हैं। लोग दोस्तों के साथ हैं, परिवारों के साथ हैं! इतने फूल देख कर मैं हैरान हूँ - कच्चे पक्के रास्तों के दोनों ओर, पत्थरों की ओट में, यहाँ वहाँ पड़ी दरारों में, पहाड़ी के ऊपर भी! पर पर पर - जितने फूल खिले हुए हैं, उनसे दो या तीन गुना काँटे भी हैं ! 

मेरी कमर तुम्हारा भार ढोते ढोते टूटती जा रही है! काश यहाँ भी कोई गंगा होती! सभी स्मृतियों की पोटली बना पहले मैं यहाँ की गंगा किनारे किसी मसान में भस्मीभूत करता और फिर बची अस्थियों को भी साथ साथ बहा देता। यूँ करो कि या तो मुझे अपने पास, अपने साथ दो गज़ ज़मीन दो या फिर मेरी रूह को अपनी शम्सियत से हमेशा के लिए आज़ादी  ... 

मुझे वापिस जाना है 
मुझे वापिस यहाँ नहीं आना है! 




Wednesday, 6 April 2022

One last blessing

Reminiscences from my diary

Apr 07, 2022
Thursday 0145 am
Murugeshpalya, Bangalore


मेरी स्मृतियाँ
समय - समय
नगर - नगर
चलते - चलते
चलते 
चलते
थक गई हैं 
इतना
कि
उनके पाँवों पर
अब
छाले - छाले
उग आए हैं
एड़ियों की बिवाइयों से
अतीत
रिसता - रिसता
जम गया है
एक और पग भी
इनके लिए चलना
दूभर 
हो गया है  

हे ब्रह्मांड की समस्त आत्माओं
सुनो - सुनो
सुनो ! 
मेरी इन 
लहूलुहान स्मृतियों को
सदा - सदा के लिए 
अपंग होने का
एक अंतिम वरदान दो ! 









Thursday, 31 March 2022

Broken! 


Reminiscences from my diary

Mar 31, 2022
Thu, 1140 pm
Murugeshpalya, Bangalore


तार-तार होने के लिए
तार
तार
होना
ज़रूरी नहीं ! 

एक महीन 
बहुत महीन तरेड़ भी
आपकी 
नियति
हो सकती है ! 


Tuesday, 29 March 2022

The Pariah Wanderings! 

Reminiscences from my diary

Mar 29, 2022
Wed, 0010 hrs
Murugeshpalya, Bangalore


क्षितिज से लुढ़का आँसू
न आँख भर पाता है
न 
ही 
मन ! 

कभी-कभी, सैकड़ों में से 
एक आधी भटकन
जन्मजात -
अघोरी
होती 
है ! 

Monday, 28 March 2022

Inanimate! 


Reminiscences from my diary

March 29, 2022
Tue, 0015 hrs
Murugeshpalya, Bangalore


मेरी कविताओं की नींव में 
शून्य था जो -
उसने 
निगल लिया है 
ईश्वर! 

अब सब जड़ है! 
मैं भी! 
मेरी कविताएँ भी! 

Sunday, 6 March 2022

Yet another splendid time with The Himalayas!

Reminiscences from my diary

March 06, 2022
Sunday 0700 p,m
Nainital Lake

आज शाम भी वही रास्ता लिया जो पिछले एक सप्ताह से अपना रहा हूँ। वही पहर, वही होटल, वही होटल से लुढ़कती ढलान, ढलान से कटता बड़ा-बाज़ार, उसका ऊबड़ - खाबड़ संकरा रास्ता, उस रस्ते के दोनों ओर हर तरह की दुकानें, उन छोटी-छोटी दुकानों की अजीब - सी मासूमियत, बीचों-बीच पसरे वही पहाड़ी झबरीले कुत्ते, बाज़ार झाँकते पहाड़ों की टोलियाँ और उन पर उगे लम्बे-लम्बे चीड़ और देवदार ! और फिर बड़ा - बाज़ार कब मॉल रोड में मिल जाता है, न मुझे पता चलता है न ही बड़े - बाज़ार की गलियों को !

ख़ैर ... 

मैं कह रहा था कि आज भी वैसी ही ठिठुरती शाम और वैसी ही शॉल में लिपटी दिनचर्या। पर अंतर भी था एक ! आज पूरे रास्ते आँखें बड़ी कर कर के चलता रहा। हाँ ! हास्यास्पद लग सकता है पर ऐसा ही हुआ। मैं शायद कोशिश कर रहा था कि जाने से पहले आँखों के आगे पसरा सारा हिमालय इनमें समेट लूँ !  यह लिखते हुए भी मैं खुद को खुद पर मुस्कराने से रोक नहीं पा रहा हूँ।  ऐसा भी होता है भला ?! ऐसा होता 'गर तो आँखें महज़ कविताओं में ही नहीं, सच में ही कलेइडोस्कोप होतीं !

ख़ैर ... 

कितनी ही बार बीच - बीच में रुक रुककर  एकटक ताकता रहा दूर तक फैले चीड़ों को और उन पर चमचमाती गोधूलि की लालिमा को। सौंदर्य का, या यूँ कहूँ, नैसर्गिक सौंदर्य का अनूठा उदाहरण हैं मेरे लिए - साँझ की जाती धूप में नहाये हिमालय के जंगली चीड़। और जो इन्हें सुन्दर न माने, उसकी आँखें आँखें नहीं, दो कौड़ी के काले पत्थर !

कानों में इयरफोन लगाए अपने अंदर उतरा मैं कितने इत्मीनान से झील के किनारे चलता रहा पर बड़ी - बड़ी आँखों के साथ मानो हिमालय ही नहीं , नैनी का पानी भी अपनी आँखों में समेटना चाहूँ (हालांकि अगर ऐसा कभी हुआ भी तो कई जन्म लग जायेंगे आँखों से कचरा निकालते - निकालते)! सूरज ढलते - ढलते जब झील के उस पार एक के बाद एक रंग - बिरंगी रोशनियाँ जलने लगीं और उन सब रोशनियों की रंगीन परछाइयाँ पानी में मचलने लगीं तो कुछ ऐसा दृश्य मेरे सामने आया जिसे हर शाम एकटक देखने के लिए मैं कुछ भी कर जाऊँ !

जुनूनियत है या सुंकूनियत - मैं नहीं जानता ! पर कुछ तो है कि मैं कहीं भी आऊँ , कहीं भी जाऊँ, मन का एक टुकड़ा यहीं अटका रहता है।  क्या पता किसी पिछले जन्म में मैं कोई चीड़ ही था यहीं कहीं किसी ढलान पर उगा हुआ !

ख़ैर ...  

कॉफ़ी पीने की हल्की -हल्की तलब लग रही है।  उँगलियाँ भी सुन्न पड़ने लगी हैं।  पर मन है कि यहाँ से उठने को कर ही नहीं रहा है। बीच - बीच में ये बड़ी आँखें भर भी आती हैं पर सोचने पर भी नहीं बूझ पाता कोई कारण ! क्या स्मृतियों का परिताप है जो दस्तक दे रहा है ? या तो इतने ख़्याल हैं कि मैं बूझ नहीं पाता कौन सा अमुक ख़्याल मुझे चुभ रहा है, या फिर कुछ भी नहीं ! आसमान का काला पहाड़ों के हरे पर छितरा गया है। मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ पर मेरे अक्खर-अक्खर माझी अपनी नाव के साथ लिए जा रहा है ! मैं एक बार फिर जा रहा हूँ कई कई बार लौटने के लिए  ... 


Friday, 4 February 2022

Hugs

Reminiscences from my diary

Feb 05, 2022
Vasant Panchmi
Bangalore airport


तुम्हारा 
बेहद इत्मिनान से
गले लगाना
और कुछ देर
गले लगाए रखना
मुझे बेहिसाब सुकून देता है! 

कुछ ऐसा-सा सुकून 
जो
दिसंबर की मनाली में
चीड़ के ऊपर टंके
पूरे चाँद को देखते हुए
अलाव सेकने पर मिले! 

उन चंद पलों में बुनी हुई
गर्माहट
मुझे 
काफ़ी वक़्त तक 
हर तरह की 
ठिठुरन से
बचाये रखती है!