Thursday, 1 June 2023

Disconnected strings

Reminiscences from my diary
May 27, 2023
Saturday 12 noon
Yogisthaan, Indiranagar


एक 
चुभन है 
कहीं अटकी हुई

रानीखेत के 
चीड़
पीछा करते हैं

सपने 
सुबह होते ही 
किसी ब्लैक होल में खो जाते हैं

चाँद को लिखा
ख़त 
ग्रहण की चेक-पोस्ट पर अटका है

एक ज़िद्दी नाम 
मेरे आसमान का 
ध्रुव है

अमृता की ख़ुमारी में 
शिव का 
वास है

गंगा के तीर में 
गंगा 
नहीं होती

आँख 
न भोर, न रात, बस 
गोधूलि हुई जाती हैं 

नुक्कड़ों पर 
इंतज़ार 
ठहरा हुआ है

प्रेम 
मन में ठहरा 
हठी किराएदार है


Friday, 12 May 2023

Boundaries

Reminiscences from my diary

May 12, 2023
Friday 2200 IST
Murugeshpalya, Bangalore

काँच पर गिरी 
टप्प से 
बूँद पहली !

बूँद ने बनाया 
अपने चारों ओर 
दायरा एक !

बारीक़ छीटों की नक़्क़ाशी से बुना 
खूबसूरत दायरा !

और फिर अचानक 
बूँद 
खुद ही 
दायरे को पार कर 
एक ओर लुढ़क गयी !

आसमान 
अभी भी 
दायरे के बीचों बीच 
काँच में 
अपना अक्स खोज रहा है !


Tuesday, 9 May 2023

Listen Jinesh!

Reminiscences from my diary

May 09, 2023
Tuesday 2100 IST
Murugeshpalya, Bangalore

सुनो जिनेश मडप्पल्ली !
मुझे याद है -

निलंबित  ... 

तुमने कहा था कि 
तुमसे कोई मिलने नहीं आता
पर एक रोज़, एक -
इमली का पेड़ आया था !

सुनो जिनेश मडप्पल्ली !
क्या तुम -
मुझे -
उस इमली के पेड़ का 
ठौर - ठिकाना बताओगे?

मैं -
उसके पते तक -
अपना पता पहुँचना चाहता हूँ !

Friday, 14 April 2023

Ranikhet Diaries, Day 06

Reminiscences from my diary

April 11, 2023
Tuesday, 2115 IST
Tara, Kalika, Ranikhet

यूँ तो मैंने सोचा था आज कहीं नहीं जाऊँगा, पर जब आनंद जी ने कहा कि वह अल्मोड़ा जा रहे हैं किसी काम से, और अगर मैं चाहूँ वह मुझे सूर्य मंदिर छोड़ सकते हैं, तो मैं खुद को रोक नहीं पाया। उमंग पहुँचकर त्रिशूल और चारखम्बा देखता रहा , धूप सकता रहा और उनका इंतज़ार करता रहा। साढ़े दस बजे हम निकले। रानीखेत - अल्मोड़ा का रास्ता आसान नहीं लगा।  काफ़ी हेयर-पिन मोड़ थे। आँखों के सामने हरे पहाड़, भूरे  पहाड़, सफ़ेद पहाड़ ! 

सूर्य मंदिर का पूरा नाम है कटारमल सूर्य मंदिर ! किम्वदंती है कि कत्यूरी वंश का यह मंदिर लगभग ग्यारह सौ साल पुराना है और इसको एक रात में बनाया गया था ! मंदिर का शिखर आज भी अपूर्ण है क्योंकि बनाते-बनाते भोर हो गयी थी। बीच में ही क्यों छोड़ दिया, कोई नहीं जानता ! मंदिर एक पहाड़ की चोटी पर है और प्रांगण में मुख्य मंदिर के अलावा लगभग पैंतालीस छोटे छोटे मंदिर भी हैं। सामने पूरा अल्मोड़ा दिखता है। 

बहुत चिलचिलाती धूप थी। मंदिर परिसर में ज़रा सी छाँव ढूंढकर काफी देर वहाँ बैठा रहा। यहाँ की धूप और हवा कैलासा की दो आँखें, और मेरी दो आँखों में कैलासा की छवि !

मंदिर की पहाड़ी से नीचे आकर एक जगह पहाड़ी थाली खाई - रोटी, मोटे चावल, आलू के गट्टे, भट्टे की दाल, भाँग की चटनी ! ऐसा नहीं कि  बहुत अच्छी लगी पर चूँकि सुबह से कुछ नहीं खाया था, इसलिए अच्छे से पेट भर खाया। 

फिर शुरू हुआ रोमांच  .. 

आनंद जी को अल्मोड़ा से वापसी करने में अभी भी दो घंटे थे। खुद ही चलता हूँ। यह सोचकर कि इतनी धूप में नीचे कोसी की सड़क पर आने के लिए कौन छः किलोमीटर चले, मैंने पहाड़ी ढलान से जंगल के रास्ते उतरना शुरू किया। शायद नहीं करना चाहिए था ! काफ़ी ढलान थी, कंटीली झाड़ियाँ भी, और दूर दूर तक कोई नहीं। दो बार पाँव फिसला - एक बार पहली पहाड़ी पर, दूसरी बार दूसरी पहाड़ी पर। दाए पाँव की नस खिंच गई पर किसी तरह लंगड़ाकर तीस मिनट की मशक्क़त के बाद, दो पहाड़ियों का 'ट्रेक' कर मैं मुख्य सड़क पर था। थोड़ी दूर चलकर रानीखेत जाती एक बस मिली और तब जाकर जान में जान आई। 

कल यहाँ से वापसी है  ... 

Wednesday, 12 April 2023

Ranikhet Diaries, Day 05

Reminiscences from my diary

April 10, 2023
Monday 0900 PM
Tara, Kalika, Ranikhet

"मछलियाँ दीवारें नहीं तोड़तीं, घर छोड़ देती हैं ... "

बाबुषा, सुनो! तुम्हें यहाँ आना चाहिए - कुमाऊँ - और कुछ वक़्त रहना चाहिए ! नर्मदा किनारे लिखीं तुम्हारी 'बावन चिट्ठियाँ' पूरी नहीं पड़तीं मेरे लिए, बीच प्यास छोड़ जाती हैं !

तृष्णाएँ ! मृगतृष्णाएँ !

दो मंदिर  ... नितांत उलटी दिशाएँ  ... घने सुनसान जंगल  ... चिलचिलाती धूप  ... चिलचिलाती ही हवा  ... सुन्न स्मृतियाँ  ... पाँव पाँव मैं  ... सिर्फ़ मैं !

रानीखेत में होते हुए भी अभी तक मुख्य रानीखेत नहीं देखा था। लेकिन जब देखा तो लगा, अरे! यहाँ तो मैं आ चुका हूँ। 'द फोल्डेड अर्थ' रानीखेत की ही तो दुनिया है। उछल पड़ा जब पॉल साब ने फ़ोन पर बताया कि अनुराधा रॉय रानीखेत ही रहती हैं। 

कल ही सोच लिया था कि रानीखेत का बाज़ार देखते हुए झूला देवी मंदिर और फिर वहां से हैड़ाखान बाबा मंदिर जाऊंगा, और वह भी पाँव पाँव ! पहाड़ों में आपकी सूझ-बूझ पर चीड़ और देवदार छाये रहते हैं ! समय और दूरी के आयाम रजाई ताने सोते रहते हैं !

कैंटोनमेंट इलाके को और फिर एक लम्बे जंगल को पार कर - लगभग पाँच किलोमीटर - लम्बे-छोटे डग भरता पहुँच ही गया हज़ारों घंटियों वाले झूला देवी मंदिर ! न जाने कितने लोगों से रास्ता पूछा होगा मैंने!  फ़ोन में सिग्नल ही नहीं आते यहाँ, और घड़ी-दो-घड़ी आएँ भी तो गूगल मैप ठीक से नहीं चलता। ऐसे में एक 'डाइरेक्शनली चैलेंज्ड' व्यक्ति के लिए बियाबान में एक प्राचीन मंदिर खोजना बहुत हिम्मत का काम है  ... बहुत!

झूला देवी मंदिर में लिखा था कि अगरबत्ती न जलाएँ, कि अगरबती में बाँस होता है, कि बाँस के जलने का अर्थ वंश का जलना है ! मुझे याद आये अतुल भैया - उन्होंने भी कभी बहुत समय पहले ऐसा ही कुछ कहा था ! कितने तरह के मिथक, कितनी तरह की प्रथाएँ !

यहाँ से निकलकर सोचा कि अब बहुत हुआ, कोई सवारी ली जाए! हाय! पहले मेरे नखरे थे! अब सवारी के! दूर दूर तक कोई सवारी नहीं ! हैड़ाखान बाबा ने सोचा होगा कि उनके पास भी मैं पैदल ही आऊँ !

झूला देवी से रानी झील की ओर एक 'ट्रेल' जाता है ! वापसी में वही पकड़ा ! 
सुन्दर ! बेहद सुन्दर! 
खतरनाक! बेहद खतरनाक! 
जब-तब हज़ारों पेड़ों की खरबों पत्तियाँ यूँ सरसराहट करतीं कि पूरा जंगल गूँज उठता। मेरी बौराहट के कई साथी!

एक बार फिर रानीखेत से होता हुआ चल पड़ा हैड़ाखान की ओर। लगभग साढ़े तीन बज गए थे। मेरा ख़्याल था कि किसी सूफ़ी संत की समाधि होगी पर हैड़ाखान बाबा को शिव का अवतार मानते हैं यहाँ। मंदिर में शांत ठन्डे फ़र्श पर कुछ देर बैठकर ध्यान लगाया। फिर काफी देर नीचे पसरी वादी देखता रहा। बहुत ही मनोरम जगह पर स्थित है यह मन्दिर। रानीखेत के लगभग सभी 'क्लस्टर्स' साफ़ नज़र आते हैं। यहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी बहुत-बहुत सुन्दर है। उफ़्फ़ ! वैसे क्या-क्या बहुत सुन्दर नहीं है यहाँ? सब कुछ ही तो!

वापसी में दया बरसी। एक साहब ने कुछ दूर तक लिफ्ट दी। फिर तीसरी बार रानीखेत का बाज़ार पार किया और कालिका को जाती एक जीप से लिफ्ट ली। 

कुमाऊँ आता रहा हूँ पर आज जितना पैदल पहले कभी नहीं चला था  ... मसूरी में ऋषि भैया ने भी इतना नहीं चलाया था। वैसे जब तक आप किसी शहर, कसबे, गाँव की गलियां पैदल नहीं नापते, तब तक वहाँ की हवा आपसे ख़फ़ा रहती है, वहां का पानी आपको नहीं सुहाता, वहां की मिट्टी आपको नहीं छूती ! एक कमी-सी बनी रहती है। इसलिए चलना ज़रूरी होता है कभी। कभी यूँ ही चलते-चलते घर भी मिल जाते हैं  ... पर  ... 

"मछलियाँ दीवारें नहीं तोड़तीं, घर छोड़ देती हैं ... "

Sunday, 9 April 2023

Ranikhet Diaries - Day 04

Reminiscences from my diary
April 09, 2023
Sunday 2030 IST
Tara, Kalika, Ranikhet

हिमालय की धूप मेरे शरीर का ताप है! 

सुबह साढ़े आठ बजे सौ किलोमीटर दूर बाघेश्वर के लिए निकला। काफी देर तक गाड़ी की खिड़की से बायाँ हाथ बाहर निकाल धूप के कणों को नाखूनों के पोरवों में, पोरवों से हथेली की रेखाओं में, वहाँ से धमनियों के जाल में, और जाल से सीधा दिल में सहेजता रहा! हवा में हमेशा की तरह चीड़ के घुंघरुओं की खनक थी! सफ़र लम्बा रहा पर नींद मेरे झोले में मज़े से सोती रही बिना मुझे परेशान किए! बाघनाथ के दर्शनों के बाद कुछ देर गोमती किनारे बैठना अच्छा रहा। यहाँ जलेबी काफी  मिलती हैं। 

एक साया है! हर सफ़र में साथ-साथ रहता है! यहाँ भी रहा! वापसी में बैजनाथ के बेतहाशा तपते पत्थरों पर पाँव रखा तो छाँव की खड़ाऊँ बन गया, फिर नंदी के कान में फुसफुसाई गई मन्नत और थोड़ी ही देर बाद खुद बैजनाथ के चारों ओर पसरा दस शताब्दियों का मौन! गर्भगृह में शिवलिंग के पास माँ पार्वती की एक विशाल मूर्ती है -  काले पत्थर से काटकर बनाई गई! मन करता है उनकी इस जटिल अप्रतिम मूरत को निर्निमेष निहारते रहो  ... निहारते ही रहो ! कहते हैं कि यहीं गोमती और सरयू के संगम पर शिव-पार्वती का विवाह हुआ था और वे यहीं रुके थे! न जाने कितनी कहानियाँ - किंवदंतियाँ उजास पाती हैं यहाँ !

साथ-साथ रहता है मगर साथ नहीं रहता  ... बैजनाथ से कौसानी के दौरान सोचता रहा कि काश  .. काश दाएँ - बाएँ चलती कुमाऊँ की कोई दुर्गम पगडण्डी उधार मिल जाए और मुझे सात आसमानों के पार ले जाए! मैं भी तो अक्स के रक़्स का लुत्फ़ उठाऊँ!

गरुड़ पार करते हुए एक लाउडस्पीकर से भेंट हो गई जो कह रहा था - आपके अपने 'शहर' गरुड़ में पहली बार 'अल्ट्रासाउंड' की सुविधा  ...!

कंप्यूटर चाहे कितने भी नीले और हरे के 'शेड्स' बना ले, उतने कभी नहीं बना पायेगा जितने मैंने कौसानी के आसमान में और खेतों में देखे! नीचे हरा, ऊपर नीला और क्षितिज पर फैली पूरी की पूरी 'कलर पैलेट'!

एक-दो गानों को छोड़कर कोई भी गाना पसंदीदा नहीं था पर रंजीत जी गाड़ी चलाये जा रहे थे और हर गाना गुनगुनाये जा रहे थे! हालाँकि रवि होता तो उसको भी ये सारे गाने ज़रूर पसंद आते  ... 


Saturday, 8 April 2023

Ranikhet Diaries, Day 03
\
Reminiscences from my diary
Apr 08, 2023
Saturday 1015 pm
Tara, Kalika, Ranikhet

एक तरफ़ चीड़ और देवदार के ऊँचे-ऊँचे पेड़ और उनके नीचे जमे पत्थरों और चट्टानों के हर कोने से निकले अनगिनत तरह के जंगली फूल  .. दूसरी ओर हिमालय की वादियों की लहरें, और उनके पीछे सफ़ेद बर्फ़ से ढका, सूरज की ऊष्मा से सजा विशाल त्रिशूल! और बीच में?

बीच में संकरी सड़क पर अपनी धुन में डगमग-डगमग ढग भरता मैं ! :)

चार किलोमीटर अल्मोड़ा के रास्ते पर चलता रहा.. घाटी से अभिभूत होकर कभी भी कहीं भी रुककर एकटक देखता रहा  .. देखते-देखते फिर चलता रहा ! अल्पाइन कैफ़े से कुछ दूर पहले मैं नीची - सी एक छत पर उतरा और पाँव लटकाकर गहरे से हलके होती पहाड़ों की लड़ियों को देखता रहा  ...  ज़रूर ऐसी ही किसी जगह पर अनुराधा ने अपनी हैदराबादी माया को गड़ा होगा  .. शायद यहीं कहीं अपनी सिल्वर छड़ी से खेलते नब्भे बरस के दीवान साब दिख जायेंगे  ... शायद यहीं कहीं से कृष्णकली की खिलखिलाहट सुनाई देगी  ... शायद! वहाँ बैठा मैं याद करता रहा बारह बरस पहले ब्लैक्सबर्ग में बितायी शामें जब यूनिवर्सिटी से लौटकर मैं चुपचाप एक निर्जन सी जगह पर घास पर बैठ पांव लटका दूर 'मोव' रंग के पहाड़ों को देखता रहता  ... देखता ही रहता जब तक  पीछे से 'शानो' की पुकार न आ जाती ! 

उमंग से दो किताबें खरीदी, दो मफलर भी और एक कीवी जैम! लगभग एक घंटा वहां बिताकर वापस फिर अपनी लाठी से खेलता हुआ धीरे-धीरे पग भरता, बिना बंदरों से डरे लौट आया तारा! 

पूरी वापसी  यही सोचता रहा कि त्रिशूल, उस ओर दिखते पहाड़, और इस ओर के घने पेड़ ज़रूर एक ही रुबाई के टुकड़े हैं, जो बस एक एक दूसरे को तकते-तकते नज़्म-नज़्म हो रहे हैं ! इन नज़्मों को पिरोती हवा चिट्ठी पहुंचाने वाला कबूतर है !

सुकून की कोई और परिभाषा कोई गड़कर तो दिखाए !!