Tuesday, 8 October 2024

Pondicherry & My Melancholy

Reminiscences from my diary

Tuesday, Oct 08, 2024
2100 IST
Murugeshpalya, Bangalore 


कबीर की मछलियाँ 
मछलियों की
बूँद-बूँद प्यास

रेत के बनते - ढहते घर 
ढहते दरवाज़े, खिड़कियाँ 
और छत 

नारियल के कुछ हरे 
कुछ सूखे 
पेड़ों का झुरमुट 

पानी के साथ आते 
पानी में ही लौट जाते 
टुकड़े-टुकड़े सीपी और शंख 

डूबते सूरज का 
कुछ लाल, कुछ पीला ओढ़े
एक बेचारा झुटपुटा  

चुप में बँधे दो हाथ 
दूर तक चलते चले जाते 
चार पाँव

दूर  
बहुत दूर जाती 
एक अकेली नाव 

न सीपी, न नाव 
न पेड़, न पाँव 
एक किनारा ऐसा भी 

मेरी उदासी समुद्र का समुद्र होना है !

Monday, 16 September 2024

I cry sometimes when I see you

Reminiscences from my diary

Sept 16, 2024
Monday, 2222 IST
Murugeshpalya, Bangalore


रोज़ की तरह 
घर के पीछे की गली में 
रात की सैर पर निकला 

चलते-चलते 
गुलमोहर और नीम के 
झुरमुटों से होते हुए 
नज़र पड़ गई 
पूरे चाँद पर 

एकाएक 
पता नहीं क्या हुआ 
मैं रो-सा पड़ा 

हालाँकि 
ऐसा पहली बार नहीं हुआ 

आँसू यूँ ही 
तब भी लुढ़क पड़े थे 

जब 
पूस की एक रात 
शॉल में लिपटा 
पहाड़ों से घिरा मैं 
तारों सने आसमान में 
नहीं ढूँढ पाया था 
ज़रा-सा भी 
चाँद 

या जब 
फाल्गुन की पूनम से 
दो-तीन रात पहले 
चाँद को देखते-देखते 
दिखने लगे थे 
तुम्हारे 
बेढंगे
ऊबड़ -खाबड़ 
नाख़ून 

या जब 
सामने पाया था 
गहरा काला समुद्र 
केंकड़ों और कंकणों से बचता 
बिन मोबाइल बिन टॉर्च 
नंगे पाँव 
सिर्फ़ आधे चाँद के सहारे
पहुँच पाया था
अपने सराय 

आँख तो तब भी भर गई थी 
शायद
जब माँ ने
किसी एक जन्मदिन से पहली रात  
झूठ-मूठ 
चाँद को
अपनी ओक में ले 
मेरी हथेलियों में लुढ़का दिया था 

मैं सोचा करता हूँ कभी-कभी 

वे जो चाँद पर
पानी खोज रहे हैं 
कैसे ढूँढ पाएँगे 
इन आँखों को 
इन आँखों की 
चोरी को !



Tuesday, 13 August 2024

The lost bridge of hopes

Reminiscences from my diary

Tuesday, Aug 13, 2024
2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक पुल था
 
आस से बना 
आस पर टिका 

डोर-डोर 
पग-पग 

फिर एक बार 
बिना तारीख़ की 
साँझ आई 

पुल टूट गया 

कतरा -कतरा 
लम्हा-लम्हा 

सुनते हैं 
जान-माल की 
कोई हानि नहीं हुई 

बस कुछ 
आत्माएँ 
जो पलतीं थीं
आस की 
दो से कहीं ज़्यादा आँखों में 

जैसे 
बीहड़ों में 
दो से कहीं ज़्यादा मकड़ियाँ 

बेघर हो गईं और 
भटकतीं रहीं 

पुल -पुल 
आस-आस 

थक-हार हर रात 
लौटती रहीं 
टूटे ठौर के 
मलबे पर 

कहने वाले
यह भी कहते हैं कि 

एक भोर
अचानक 
नीचे बहती बिना नाम की 
नदी ने 
तरस खाकर 

उन सभी आत्माओं को 
दे दी थी 
अपने भँवर में
सात जन्मों की पनाह 





Tuesday, 23 July 2024

Eight (dis)connected sentences - part 3 of infinity

Reminiscences from my diary

July 23, 2024
Tuesday 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम 
मेंह भरे बादलों को 
और नज़दीक से देखने के लिए 
चुपचाप चढ़ जाते 
बंद दरवाज़ों वाली छतों पर 

हम 
पराए मुल्क की बारिशों में 
तसल्ली से भीगते 
और भीगते हुए याद करते
अपनी ज़मीन, अपना पानी, और माएँ 

हम  
रविवारों को भी मिलने चले जाते 
शनिदेव से 
और जला आते 
सरसों का दीया एक  

हम 
टूटी फूटी बसों में 
यूँ ही चढ़ जाते और
कंडक्टर के पास आने पर 
फट से हाथ पकड़ कूद जाया करते 

हम 
ठण्ड से काँपती शामों में 
घूमा करते स्कूटर पर
और गर्दन के ज़रिये सींचते 
एक दूसरे की आँच 

हम 
डर जाया करते 
एक दूसरे की नाराज़गी से 
और फिर हँसाने का, मनाने का 
करते भर-भर जतन 

हम 
चादर की सिलवटों में ढूँढा करते
एक दूसरे की करवटें 
और करवटों में खोजते 
एक दूसरे के सपने

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़ 
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

Sunday, 30 June 2024

Cherrapunji -2

Reminiscences from my diary

June 27, 2024
Thursday, 1800 IST
Cherrapunji, Meghalaya


बहुत समय तक 
बादल चिपके रहे 

काया से 
रूह से 
काया से रूह तक जाती
हर चौखट से 

समय का माप 
नहीं याद 

शायद पैंतालीस मिनट 
या कुछ देर 
या एक कल्प 
या हमेशा से 
हमेशा तक 

एक बादल 
या दो 
या एक बादल के दो टुकड़े 
या कई बादल 
और कई बादल के कई टुकड़े 

परत-दर-परत 

सुध आती रही 
जाती रही 
जैसे कौंधती बिजली 

न रोशनी 
न अँधेरा 

जब छँटे 
रेशा - रेशा भर गए 
ओस 

अब आलम यूँ कि 

पलकों पर बारिशें 
कानों में झरने 
गालों पर छींटें 
होठों पर सीलन 

मैं अब 
पानी से लबालब 
एक गहरा काला बादल हूँ 

बरस रहा हूँ 
भटक रहा हूँ 
बीहड़ सुनसान
गहरे गीले जंगलों में 
साँस खोजती पगडंडियों पर 

यहाँ दूर दूर तक 
बस पानी है 

यहाँ दूर दूर तक 
बस मैं हूँ 



Sunday, 23 June 2024

Cherrapunji - 1

Reminiscences from my diary

June 24, 2024
Monday 1145 IST
Cherrapunji, Meghalaya

कल गुवाहाटी से शिलॉन्ग, और फिर शिलॉन्ग से चेरापूँजी के सफ़र में बीते कई सफ़र साथ-साथ चले  ... 

ढेर सारा भूटान  
बहुत सारा रानीखेत
थोड़ा-थोड़ा स्कॉटलैंड
कुछ-कुछ मसूरी
यहाँ-वहाँ बैजनाथ
मुट्ठी-भर ऊटी
चुटकी भर वरकला 

रास्ते भर कभी खिड़की का शीशा चढ़ाता, कभी उतारता। मुझे दिखते रहे  ... 

एक कान में क्रॉस लटकाए लड़के 
आलूबुखारा बेचती लड़कियाँ 
अपने पिताओं के साथ मछली-काँटा लिए जाते बच्चे 
घरों से ताकते कई-कई रंगों के जर्मेनियम 
दीवारों से उगते सफ़ेद-गुलाबी जंगली फूल 
कहीं से भी प्रकट होते छोटे-छोटे तेज़ झरने 
रंग-बिरंगी छतरियाँ 

गाड़ी के अंदर भी पानी टिप-टिप बरस रहा था, गाडी के बाहर भी। इन पाँच घंटों में मैं सोचता रहा  ... 

कब सुने थे आखिरी बार मोहरा और फूल-और-कांटे के गाने 
क्या ये पहाड़ियों के बीच में बादल हैं, या बादलों के बीच में पहाड़ियाँ 
क्या यहाँ से दी गयी पुकारें लौटती हैं कभी, या पहुँच जाती हैं सीधे देवताओं तक 
क्या यहाँ के लोग जानते भी हैं चाँद-तारों के बारे में 
क्या यायावरों के भी घर होते हैं 
क्यों है मुझे बारिश से बेहिसाब मोह, बरसात का भी नशा होता है भला 
ऐसा क्या है जो इतनी समानताओं के बाद भी इस यात्रा को कर रहा अलग, ख़ास, बहुत अलग, बहुत ख़ास 

इस एक पल जब सुबह के ११.३० बज रहे हैं और मूसलाधार बरसात मुझे और मेरी डायरी को हर ओर से भिगो रही है तो समझ आ रहा है क्यों अलग है यह ट्रिप बाकी यात्राओं से। खैर  ... 

मेरे कॉटेज का नाम है 'रिमपौंग' ! कमरे को पार कर एक दरवाज़ा है जो खुलता है पीछे की बालकनी पर - मेरी बालकनी ! वहीँ बैठा कुछ-कुछ भीग रहा हूँ, कुछ-कुछ लिख रहा हूँ। पूरा जंगला, सारे खम्बे, दीवारें, घाटी की ओर ले जाती सीढ़ियाँ - सब अलग-अलग जंगली फूलों, काई, बेलों से ढके हैं।  सब कुछ तर है - हर पत्ता, हर फूल, हर पंखुड़ी, हर पेड़, हर टहनी, हर कोना, हर पत्थर, हर चट्टान। ..! नीचे छोटी सी नदी है - असल में नदी नहीं, "स्ट्रीम" - अपने पूरे वेग में बहती।  इसकी आवाज़ रात भर मेरी गहरी नींद से दिन-भर के सफ़र की थकान चुनती रही। दूर - दूर तक फैली हैं शांत, मौन, सुन्दर, भीगी, हरी-हरी खासी की पहाड़ियाँ !

इन पहाड़ियों ने अभी दस मिनट पहले मेरे लिए ढेर सारे बादल भेजे हैं - आधे रास्ते आ चुके हैं। बादल इतने नीचे हैं और इतने पास भी, कि उन्हें छू लूँ , चख लूँ, भर लूँ अपने बस्ते में  ... 

टीन की छत पर बूँदें टप-टप गिर रही हैं 
सामने वहीँ 'स्ट्रीम' कल-कल बह रही है 
झींगुर अपनी झंकार में व्यस्त हैं 
मन और मौन अपना ही संगीत बुन रहे हैं 
दूसरी कुर्सी पर रखी निर्मल की 'एक चिथड़ा सुख' हवा के साथ फड़फड़ा रही है 
दूर कहीं कोई फरीदा ख़ानुम की आवाज़ में सुन रहा है 'मेरे हमनफ़स मेरे हमनवां ..'

 

मैं इतना खुश हूँ कि मर ही न जाऊँ  ... 




















Saturday, 1 June 2024

Nine (dis)connected sentences - part 2 of infinity

Reminiscences from my diary

June 01, 2024
Saturday 2000 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम 
ओस से भीगे, कोहरे से सने लॉन की 
हरी बैंच पर बैठ 
शॉल में लिपटे 
बिना वजह ठिठुरा करते 

हम 
निदाघ की दोपहरी 
अक्षरधाम के झरोखों से आती 
ठंडी फुहारों वाली हवा 
भरते थे अपनी जेबों में 

हम 
हो जाया करते थे मायूस 
जब कभी रख देते 
शाख से टूटे फूलों पर 
गलती से पाँव  

हम 
पीठ पीछे बस्ता लटकाये 
अक्सर पहुँच जाया करते थे 
अपने पसंदीदा प्रोफ़ेसरों से 
बतियाने, 'दुःख' बाँटने 

हम 
कभी-कभी पाँव-पाँव चलते हुए 
सुना करते थे रेडियो पर 
अस्सी-नब्बे के दशक के 
सदाबहार गाने 

हम 
बौराए थे रात के तीसरे पहर 
दिल्ली की जलती-बुझती
रंगीन रोशनियों को देख 
आसमान के किसी कोने से 

हम 
चखते एक दूसरे की 
अनामिका से 
साईं की विभूति, और बाट जोहते 
चमत्कारों की 

हम 
आस-पास न रहने पर 
बाँधते अपने-अपने 
खिड़की दरवाज़ों पर 
एक-दूसरे का इंतज़ार

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़ 
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए