Thursday, 3 May 2018


The waters of the island


Reminiscences from my diary

May 3, 2018
Thursday, 09:30 pm
Murugeshpalya, Bangalore


ये जो तुमने मुझे -
ग्रीस के समुंदरों की तस्वीरें भेजी हैं  ...
मैं काफ़ी देर से, उस पानी में -
- अपना सलिल तलाश रहा हूँ
पर, अब तक -
- कोई अक्स
- कोई रंग
- कोई खुशबू
महसूस नहीं हुई !
शायद पानी में पानी साया नहीं दिखता, या फिर  ...
वहाँ की शाम का मिज़ाज़ ज़्यादा ही गहरा है !

जानता हूँ -
- तुम अभी यूनान के इस टापू में -
मसरूफ़ हो !
जब भी समय मिले, ज़रूर साझा करना अपना सफ़र !
क्या वहाँ शोर से ज़्यादा सन्नाटा है ?
क्या वहाँ का पानी वक़्त - वक़्त रंग बदलता है ?
क्या पूरा एथेंस सफ़ेद है ?
क्या वहाँ के शाहबलूत और चीड़ सदियों से खड़े हैं ?

लग रहा है, अकेले ही सिकंदर की मिट्टी नाप रहे हो !
एक बात बताना, ऐसे सफ़र में चलते - चलते -
- कभी तुम भी अपने साथ -
- मुझे चलता पाते हो क्या ?

ख़ैर  ...
यहाँ अचानक से बहुत तेज़ बरसात होने लगी है !
मैं और ये कागज़ लगभग - लगभग भीग गए हैं।
सोच रहा हूँ -
कहीं तुम्हारे पाँव को छूता वहाँ का पानी ही तो -
- मेंह बनकर मुझ पर नहीं बरस रहा है ?


Wednesday, 18 April 2018

BHUTAN ! YOU BEAUTY !


Reminiscences from my diary

March 30, 2018
Friday, 7 p.m.
Damchoe's Homestay
Thimphu, Bhutan


कल भी सोच रहा था कि यहाँ इस जगह बैठकर मैं जो कुछ भी देख पा रहा हूँ ; रात या यूँ कहूँ कि गोधूलि के इस पहर में जो भी दूर नज़र तक नज़र आ रहा है - उन सब के बारे में लिखूँ। पर फिर सोचने लगा कि जो कुछ भी लिखने की कोशिश करूँगा और उस कोशिश की जो उपज होगी, क्या वह 'अल्मोड़ा ' से बहुत अलग होगी ? शायद नहीं ! अगर बात करूँ चारों ओर से मुझे और मेरी इस कुर्सी को घेरे पहाड़ों की तो - नहीं ! वे भी हिमालय थे, ये भी हिमालय हैं  ... अगर बात करूँ पहाड़ों पर लदे खड़े ठूंठों की  .. तो भी नहीं - वे भी चीड़ थे, ये भी चीड़ हैं  ... अगर बात करूँ घाटी में बिखरी रोशनियों की  -  तब भी वही बात, वही स्मृति  - वही हरी, पीली, लाल, सफ़ेद टिमटिमाते बल्ब  .... ! अंतर है तो यह कि वे रोशनियाँ अल्मोड़ा और रानीखेत की थीं और ये रोशनियाँ अल्मोड़ा से मीलों दूर पर हिमालय में ही बसे थिम्पू की !

पूरा दिन यही सोचता रहा कि हिमालय का विस्तार कितना है ! क्या इसे मापा जा सकता है ? विज्ञान ने, भूगोल-शास्त्रियों ने इसका उत्तर दशकों पहले दे दिया था पर मैं फिर भी सोचता हूँ कि सदियों से सदियाँ देखते, समय को पालते, लम्हों को शरण देते, त्रासदियों से होली खेलते क्या ये पहाड़ ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही नहीं हैं ? न मुझे इनका आदि महसूस होता है, न ही अंत ! ऐसा नहीं है कि हिमालय की इन दुर्गम पहाड़ियों को पहले कभी महसूस नहीं किया और ऐसा भी नहीं है कि मैंने इसके हर मिज़ाज़ जो देखा है, पर जितना भी देखा है, महसूस किया है, चखा है, अपने अंदर बसाया है - उन सबसे, संकीर्ण ही सही, पर यही निष्कर्ष निकाल पाता हूँ कि हिमालय का, हिमालय के विस्तार का, बर्फ़ से ढकी फुनगियों का, बंजर छोटी पहाड़ियों का, कच्ची धूप चखती घाटियों का, चीड़ और देवदार की पंक्तियों का, इसमें बसते ऊबड़ - खाबड़ संकरे रास्तों का कोई अंत नहीं !
हाँ ! मेरी नज़र में हिमालय का अस्तित्व अनंत है ! विज्ञान और भूगोल को मानने से ज़्यादा हिमालय के सन्दर्भ में मैं अपने दर्शन - शास्त्र पर विश्वास करना चाहूँगा !

... खैर, अल्मोड़ा और थिम्पू में समानताएँ तो दिखीं लेकिन एक बहुत बड़ा अंतर भी पाया, पाया क्या, जिया !
एक ओर जहाँ अल्मोड़ा में मैंने शिवानी को, शिवानी की कृष्णकली को, नागार्जुन को, पंत को, रास्तों पर बने शिव के मंदिरों को , मंदिरों को ही नहीं साक्षात शिव को, उसके रूपों को इधर - उधर बिखरा पाया, वहीँ यहाँ भूटान की इस घाटी में मैंने बुद्ध को अपनी श्वास में घुला पाया है। यूँ तो मुझे किसी भी धर्म से कोई परहेज़ नहीं  ... या यूँ कहूं  ... अकबर के दीन-ए -इलाही - सा ही मुझे अपना धर्म लगता है जिसमें हर धर्म, हर ईश्वर, हर गुरु को एक सा माना गया  ... पर यहाँ धर्म की परिभाषा सुनकर अच्छा लगा ! दोचुला - पास पर उस बौद्ध धर्म के अनुयायी ने कहा कि धर्म जन्मात नहीं होता ! न ही धर्म का मतलब पूजा करना है ! धर्म का तात्पर्य तो जीने के मार्ग से है ! "It is a way, an art of living!" यह जीवन जीने की कला है !

बुद्ध के सन्देश लिखे हरे, लाल, सफ़ेद, पीले रंगों के छोटे - छोटे झंडे और उन छोटे - छोटे झंडों की बड़ी - बड़ी लड़ियाँ यहाँ वहाँ देखने को मिली।  और फिर एक नज़ारा था आँखों के आगे जब न जाने किस वेग से चलती इन चिलचिलाती हवाओं से ये झंडे एक साथ एक दिशा में उड़ रहे थे मानो उन झंडों पर यहाँ की लिपि में लिखे उन सारे मन्त्रों को दिशाओं में घोलने का  ... कर्त्तव्य कहूँ या अधिकार  ... बस इन्ही के पास है ! अब तक सिर्फ तस्वीरों में देखा था यह सब और आज जबकि अपनी आँखों से इन्हे देखा और उँगलियों से इन्हे छुआ तो लगा मानो एक अलग तरह की कायनाती हवा मेरी संज्ञा में घुलकर मेरी रूह के एक हिस्से को कायनाती कर गयी और वह कायनाती हिस्सा शायद ज़िद कर रहा है ! ज़िद - यहाँ कहीं किसी छोटी - सी कुटिया में रहने की  ... यहाँ की हवा में साँस लेने की  ... यहाँ के किसी 'ज़ॉन्ग' में कुछ वक़्त बिताने की  ... पहाड़ की चोटी पर बसे बुद्ध की उस अखंड प्रतिमा से ढेरों ढेर बातें करने की  ... यहाँ के पहाड़ों पर आती - जाती गुनगुनी गुनगुनाती धूप में आँखें मूंदे झपकी लेने की  ... यहाँ की खून जमाती सर्दी में दाँत किटकिटाने की  ... यहाँ के लोगों की तरह रोज़ मीलों चलने की  ... पहाड़ियों के बीच कभी भी, कहीं भी अपना मार्ग बनाती, कल - कल करती छोटी - बड़ी धाराओं में पाँव डालकर घंटों बैठने की  ...

... लग रहा है इस ज़िद का ओर तो है पर छोर कोई नहीं !

धुंध और सर्दी उँगलियों को कँपाने लगी हैं शायद ! लिखना तो काफी चाहता हूँ - दोचुला पास के बारे में  ... पुनाखा के उस बौद्ध चैत्य के बारे में  ... उस सुनहरे बुद्ध के बारे में  ... सुनहरे बुद्ध से ऊंचाई में टक्कर लेते उन बर्फीले पहाड़ों के बारे में  ... उस हरे - नीले पानी वाली नदी पर बने उस झूलते  पुल के बारे में  ...

... पर कब लिखूँगा, पता नहीं ! अभी तो एलिफ शफ़ाक़ की नज़रों से इस्तानबुल देखने का मन है !

... बाकी फिर कभी !

















Saturday, 3 March 2018

Holi



Reminiscences from my diary

Oct 29, 2013
Tuesday
GS, Bangalore


कितनी अजीब बात थी  ...
फ़ाग का दिन था -
- और मैं रंग ढूंढने निकल पड़ा !
रंग - जिससे मानस सजा था !
रंग - जिसने मानस रंगा था !
रंग - जो जम गया था -
रंग - जो बस गया था -
रूह तक !
वही रंग   ... !
जो अब फीका सा पड़ने लगा था -
- थकने सा लगा था !

जब भी किसी गली से गुज़रा -
- तरह तरह के रंगों ने -
- कोशिश की -
- साज़िश की -
इस रंग को रंगने की !
पर क्या मेल उनका ?
वे क्या ही रंग पाते इसे -
- खुद ही फीके पड़ गए इसके आगे !

नुक्कड़ों पर पाँव रखा -
तो मानो पानी के घड़े भी -
- ताक में थे -
- पर न  .... !
 रंग निकला ही बहुत पक्का !

जब चौराहे आए -
- तो मानो दिशाओं को भी -
- मिल गया हो अवसर -
- मुझे दिगंबर करने का !
पर यह रंग वे भी नहीं उतार पायीं !

ढूंढते ढूंढते जब -
- पेड़ों के झुरमुटों से गुज़रा -
- तो लताओं ने भी -
- कोशिश की -
- जी जान से -
- रंगे मानस को अपने जाल में -
- उलझाने की  ...
रंग को मानस से अलग करने की !
नादान थीं - नहीं समझ पायीं -
- मानस तो पहले ही -
- उलझा था -
रंग में , रंग से !
हार गयीं , वे भी -
- और जाने दिया मुझे -
- और मानस को भी !

दिन बीतता गया -
- कोशिशें हारती गयीं -
साज़िशें हारती गयीं -
न समीर उड़ा पाया -
न सलिल बहा पाया -
गोधूलि ने अपना आँचल बिछा दिया -
तारे धीरे धीरे टिमटिमाने लगे -
पूरा चाँद अपने पर इतराने लगा -
पाँव थक गए थे -
या थके जान पड़ते थे -

तभी आवाज़ आयी -
रंग की थी -
पहचानता था इसे !
कहने लगा - मैं अभी हूँ !
रहूँगा  ... कुछ समय और !
इतना भी फ़ीका नहीं पड़ा हूँ !
 पर अगर मिट जाऊं -
- तो ढूंढ लेना फिर -
शायद मिल जाऊँ -
- अगले वसंत के फाल्गुन !




Wednesday, 7 February 2018


The birthday rain


Reminiscences from my diary

Feb 7, 2018
Wednesday 07:00 PM
Murugeshpalya, Bangalore


कैसा संजोग है, या यूँ कहूँ कि कैसा सुखद संजोग है कि आज तुम्हारा जन्मदिन है और आज ही तुम्हें सपने में देखा और आज बारिश भी हो रही है।  जानते हो न ! बारिश की हर बूँद, हर छींट में मैं तुम्हारा अक्स देखता हूँ। क्यों देखता हूँ -  अगर यह पता होता तो बात ही क्या थी ! शायद तुम्हारे नाम के साहित्यिक अर्थ से जुड़े सभी तत्व मुझे अपने लगते हैं और बारिश उस सूची में पहला स्थान पाती है। 

देर रात जब तुम्हें जन्मदिन की बधाई दी, तब पता नहीं था कि तुरंत जवाब आएगा ! पर तुम्हारा जवाब आया - बहुत अच्छा लगा।  लगा, अधरों की मुस्कराहट पर लगा बाँध टूट गया ! जानते हो - मैंने सोचा था तुम्हें कोई कविता लिखकर तुम्हारे दिन की बधाई दूँ।  हालाँकि, जानता हूँ कि तुम इन बातों से, इन बेकार की बातों से - कविताओं से, कविताओं में सजते अलंकारों से, उपमाओं से, रूपकों से अभिन्न रहते हो। फिर भी कोशिश करता रहा - हल्की सर्द रात के सर्द पहर की ठिठुरन में देर तक कोशिश करता रहा।  पर वही हुआ, जो हमेशा होता आया है।  हार गया।  तब भी हारा था, आज भी हार गया। तब से अब तक हारता ही तो आया हूँ।  क्यों कभी मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं होता ? देखो, एक कविता भी नहीं लिख पाया तुम्हारे जन्मदिन पर ! लेकिन मज़े की बात तो तब हुई जब बहुत सीधी - सी, साधारण - सी बधाई देने पर तुमने मुझे शब्दों का खिलाड़ी ठहरा दिया ! तुम कह गए कि मैं शब्दों के साथ अच्छे से खेलना जनता हूँ।  ठीक है, मान लेता हूँ।  तुम कह रहे हो तो ठीक ही कह रहे होंगे।  पर, जब भी फुर्सत मिले तो एक बात बताना - क्या तुम्हें हमेशा सिर्फ़ शब्द ही दिखाई दिए ? या फिर, तुम मेरे शब्दों के ताने - बाने में इतना उलझ गए कि कुछ और देख ही नहीं पाए ? क्या कभी बीते सालों का कोई भी वाक़या, कोई किस्सा, कोई सफ़र, कोई राह, कोई बात, कोई हँसी, कोई आँसू, कोई दिन, कोई रात, कोई बारिश, कोई गली, कोई नुक्कड़, कोई किताब, कोई तुम, कोई मैं - याद नहीं आते, अचानक कौंध नहीं जाते ? अगर नहीं, तो ज़रूर तुम्हारे दिल की खाई बहुत बहुत गहरी है दोस्त जो एक पूरा युग निगल गई। 

खैर  ... तुमसे शिकायत करना मैंने काफ़ी पहले बंद कर दिया था  - बंद नहीं, तो कम - से - कम काफ़ी कम कर दिया है।  मैंने अपने अंदर तुम्हारी दो रूहों को पाल लिया है - एक वह जिसे मैं पूरी तरह से जानता था और दूसरी वह, जिसे मैं तो क्या वह खुद भी नहीं जानती। 

बात इत्तेफ़ाक़ से शुरू की थी ! दो सुन्दर संजोगों की बात ! पहला तो यह कि तुम्हारा जन्मदिन है और आज ही तुम मुझसे मिलने आये - क्या सपना था, याद नहीं है - बहुत कोशिश की, फिर भी याद नहीं आया ! बस इतना याद है कि तुम थे ! मैं था या नहीं - ये भी नहीं पता - पर तुम थे ! पर सपना तो सपना था ! तुम अचानक आए और चले गए।  पर आज अचानक यूँ बिन मौसम के, बिन सावन के बारिश होगी - इसकी उम्मीद, इसका ख़्याल दूर - दूर तक नहीं था ! तुम्हारा अचानक यूँ अपने जन्मदिन पर मुझसे मिलने आना, मेरी डायरी के पन्नों पर स्याही के साथ खेलना, मेरी बालकनी के हर पौधे के हर पत्ते पर आकर बैठना - मुझमें कितना उन्माद भर रहा है, काश मैं इस पर कोई कविता लिखकर तुमसे साझा कर पाता ! खैर  ... 

आओ ! तुम्हारी पसंद का कोई गाना सुनें !
आओ ! तुम्हारा जन्मदिन मनाएँ !












Thursday, 25 January 2018

Scattered across the dark



Reminiscences from my diary

Friday Jan 26, 2018
01:50 AM
Murugeshpalya, Bangalore


कोरे कोहरे में गुमा पिटारा -
- चूर - चूर हो जाएगा !
नीर आँख का रिस - रिस कर  -
- सावन - सावन हो जाएगा !
शोर में घुटता मौन एक दिन -
- चीत्कार बन जाएगा !
बिसरा अमृत यूँ अचानक -
- गरल - गरल कर जाएगा !

कितने मिहिरों ने ढापा अब तक -
- पर कब तक छिप पाएगी ?
आज याद रात में बिखरी है तो -
- दूर तिमिर तक जाएगी !


नीड़ को जाता पंछी क्या -
- कुछ देर यहाँ सुस्ताएगा ?
क्यारी - क्यारी में दबा बीज -
- क्या कोई सलिल सिंचाएगा ?
क्या पलस्तर झड़ती दीवारों पर -
- रंग नया चढ़ पाएगा ?
क्या फिर अजान की आवाज़ों में -
- अबीर फ़ाग का छाएगा ?

क्या वो अटरिया सप्तर्षि से -
- फिर कभी बतियाएगी ?
आज याद रात में बिखरी है तो -
- दूर तिमिर तक जाएगी !

हर पल, हर दिन फिर कोई क्या -
- यूँ बिन बात हँसाएगा ?
कभी शरारत, कभी ठिठोली -
- कभी गालों को फुलायेगा ?
क्या दीप जली उन रातों में -
- कोई गरम कोट फिर भाएगा ?
और दूर बिन कहे जाने पर फिर -
- दिल को तर कर जाएगा ?

क्या फिर से नौ पन्नों की चिट्ठी -
- मेरे पते पर आएगी ?
आज याद रात में बिखरी है तो -
- दूर तिमिर तक जाएगी !

क्या पौष का ढलता सूरज फिर -
- सीली मिट्टी नहलाएगा ?
क्या सकुचाता - सा बूढा वट -
- फिर और पास आ जाएगा ?
क्या हवा में घुलते शब्दों से -
- हर तिनका फिर रंग जाएगा ?
और बहमाया - सा कोई कबूतर -
- अपना पंख भुलाएगा ?

क्या फिर सुजाता किसी बुद्ध को -
- मुक्ति - मार्ग दिखाएगी ?
आज याद रात में बिखरी है तो -
- दूर तिमिर तक जाएगी !











Sunday, 31 December 2017

Will the new year be really new?



Reminiscences from my diary

Dec 31, 2017
Sunday 11:45 PM
Murugeshpalya, Bangalore


पिछली कुछ शामों से चर्चा है कि -
कल की तारीख़ -
एक नयी - नवेली भोर लाएगी  ...
एक नया रोशन दिन  ...
एक खूबसूरत - सी नयी शाम  ... !

जब से सुना है -
- एक उधेड़बुन में हूँ !
मेरी सुबह नयी कैसे होगी ?
कल क्या नींद में डूबे तुम -
- मुझे नींद से जगाने आओगे ?
कल क्या फिरआँख मलते - मलते, तुम्हारी कोई पलक -
- मेरे तकिये पर आकर ठहर जायेगी ?
क्या कल सुबह, मेरी कॉफ़ी का मग -
- तुम्हारे चाय के प्याले से गुफ़्तगू करेगा ?

नहीं न  ... !

फिर मेरी भोर नयी - नवेली कैसे हुई ?

दिन भी तो वैसा ही होगा !
मेरे जैसा !
अपने में ही डूबा - सा !
पुरानी किताबें -
पुराने अख़बार -
पुराने गाने -
पुरानी यादें !
नया तो तब होता, जब -
कभी तेज़, कभी गुनगुनी होती धूप में -
तुम और मैं -
पुरानी सड़कों को सजाते पुराने किताबघरों की -
- ख़ाक छानते फिरते !
पर अब क्या नयी सपाट राहों का मुसाफ़िर -
- पुरानी पगडंडियों को पहचान पायेगा ?

नहीं न  ... !

फिर मेरा दिन नया और रोशन कैसे हुआ ?

और जब वही पुरानी भोर होगी -
वही पुराना दिन होगा -
तो फिर नयी गोधूलि की उम्मीद कैसे करूँ ?
क्या कल शाम, मेरी आँख की कोर में -
- कोई नमी आकर नहीं ठहरेगी ?
क्या कल शाम, मेरे पाँव रोज़ की तरह -
- अपनी कॉलोनी की हरी संकरी गलियाँ नहीं नापेंगे ?
क्या कल की शाम तुम मेरे साथ -
- मेरी ही कोई कविता सुनोगे ?
क्या कल की शाम तुम मुझसे -
- अपनी आपबीती साझा करोगे ?

नहीं न  ... !

फिर मेरी शाम नयी और खूबसूरत कैसे हुई ?

लोग भी न  ... !

आखिर पहली जनवरी को भी -
- सलिल बरसता है भला  ... !





Friday, 20 October 2017


My bloody fist!


Reminiscences from my diary

Sunday Oct 1, 2017
10:30 PM
Murugeshpalya, Bangalore


 जिस एक पल तू मुझे -
- हमेशा के लिए छोड़कर गया था -
उस एक पल को -
- मैंने कसकर अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया था !
दूर तक जाती तेरी गाड़ी को -
- एकटक देखा था मैंने !
कितनी ही देर बीच सड़क पर खड़ा रहा था मैं !
एक आँख जम - सी गयी थी,
और दूसरी आँख का पानी रुका ही नहीं था !

...और फिर अचेतन देह और अचेतन रूह का बोझ उठाये मेरे कदम -
- जब वापिस लौटे -
- तो मेरे कमरे से पहले -
- तेरे कमरे के दरवाज़े पर रुक गए थे !
उस एक पल, मेरी उँगलियों ने तेरे कमरे के दरवाज़े को -
- ऐसे छुआ था, जैसे तेरे बिखरे बाल सहला रही हों !

... और फिर कमरा अंदर से बंद कर -
- कितनी ही देर अपनी बंद मुट्ठी को देखता रहा था मैं !
कितनी भारी लगी थी उस कमरे की हवा !
हवा क्या, तेरी मुश्क ही तो थी !
कैसे अपने नाखूनों से तेरे कमरे की दीवारों को -
- कुरेदता रहा था घंटों, मानो -
अपने कुछ निशान तूने मेरे लिए छोड़े हैं, और वे निशान -
- इन दीवारों में छिपे हुए हैं !
घंटों तेरे बिस्तर की मैली चादर को लपेटकर -
- आँख खुले मुर्दे सा -
- लेटा रहा था मैं !
और फिर अचानक से,  उन सिलवटों को नोचने लगा था मैं !
शायद तूने अपनी नींदें छोड़ी थीं उनमें !

तेरी बिखरी किताबों के बिखरे पन्ने -
झूठा गिलास -
एक दो पुराने कपड़े -
कुछ अधजली अगरबत्तियाँ -
कुछ बिखरी राख -
सब कुछ सीने से चिपकाए -
अपनी बंद मुट्ठी को देखता रहा था मैं !

कब वह दिन बीता  ...
कब वह बदहवास - सी शाम आई  ...
खबर ही नहीं लगी थी !

 वह दिन, वह शाम -
- मेरी मुट्ठी को लहूलुहान कर चुके हैं !
खून रिस रिसकर सूख गया है !
पस रिस रिसकर जम गयी है !
हर लकीर तड़प रही है !
कभी तो आ और -
मेरी मुट्ठी को उस लम्हे से आज़ाद करा जा !

क्या एक और एहसान नहीं करेगा मुझपर ?