Thursday, 10 October 2019

Siesta Yours, Colors Mine!


Reminiscences from my diary

Oct 10, 2019
Thursday 08:40 PM
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो - मेरे पास  ऊन के गोले हैं
ढेर सारे
और रंग भी अलग - अलग
जो चाहो, वही मिल जायेगा

आसमानी
गेहुँआ
सिन्दूरी
कत्थई

आओ - तुम्हारी नींदें बुनूँ
बताओ - कौन - सा रंग चुनूँ
चाहो तो सारी नींदें एक ही रंग की
चाहो तो रंग - बिरंगी

जामुनी
सुर्ख
पीली
सलेटी

अगर चाहो किसी सपने को अलग से टांकना
तो रंग बता दो अभी
आसानी होगी
सिलाई भरने में

धूसर
गुलाबी
जैतूनी
टकसाल

जान लो -
इस ऊन का रेशा - रेशा
मेरे रोम - रोम का उन्स है
अलाव - सी गर्माहट मिलेगी तुम्हें
कैसा भी हिमपात हो
मौसमी
बारहमासी
कैसा भी
तुम्हारा कोई भी ख़्वाब कभी
ठिठुरेगा नहीं

अब बताओ भी
ज़्यादा मत सोचो
ऐसा न हो कि सोचते - सोचते
एक बार फिर भोर हो जाये !


Wednesday, 11 September 2019

Bermuda in my bottle


Reminiscences from my diary

Tuesday Sep 11, 2019
00:10 am
Murugeshpalya, Bangalore


मैं रोज़ रात
सोने से पहले
कुछ घूँट पानी ज़रूर पीता हूँ
और काँच की इस पुरानी बोतल को
होंठ लगाने से पहले
मैं बत्ती बुझाना नहीं भूलता

रोशनी की बनिस्बत
अँधेरे में पानी पीना
एक तो
मेरी प्यास को
ज़्यादा सुकून पहुँचाता है
और दूसरा
काँच में कैद बरमूडा में
डूबने का खतरा
दूर घर के किसी कोने में छिप जाता है
अगली साँझ फिर लौटकर आने के लिए  ...


Tuesday, 2 July 2019


... while running away to the oblivion


Reminiscences from my diary

July 01, 2019
05:15 pm
GS, 150 ORR, Bangalore.


जितना भी मुझे याद है
वह न पूरी शाम थी,
न पूरी रात !
पता नहीं, घड़ी के डायल में
छोटी सुई कहाँ थी, बड़ी कहाँ !
वह वक़्त, उस वक़्त का होना
दर्ज़ था भी या नहीं, नहीं जानता !
बस -
एक बदहवासी थी
एक घुटन
एक उमस, मानो -
फेफड़ों में साँस ले रहा हो कोई थार
या कोई हिमालय !

और मैं ...
मैं बस भाग रहा था
ऊबड़ - खाबड़ सड़क के दायीं ओर
ऊबड़ - खाबड़ फुटपाथ पर
बेतहाशा भाग रहा था !

शायद कहीं दूर को जाती
आखिरी गाड़ी
स्टेशन छोड़ने वाली थी
या फिर -
सड़क के छोर पर
कोई मुद्दत से इंतज़ार करते - करते
थकता जा रहा था
हो सकता है -
कल्पों का उधार वसूलने कोई
पीछा करते - करते
बहुत करीब आ गया था !

वजह कुछ भी हो सकती है !
मैं नहीं जानता !
मैं जान ही नहीं पाया !
पर एक बात, एक लम्हा याद है !
ठीक से याद है !

जब मैं अपनी सुध - बुध खोया
पत्थर - पत्थर
नुक्कड़ - नुक्कड़
दर-दर लाँघ रहा था तो -
अचानक से ही
सामने से आते तुम टकरा गए थे, और
टकरा गयी थी आँखें -
तुम्हारी और मेरी !

क्या आकाशगंगा में तारे भी
ऐसे ही
टूट जाया करते हैं - अचानक ?

मेरे चेहरे से
कितनी ही ख़ारी बूँदें
छिटक गयीं थीं
तुम्हारी कमीज़ की बायीं आस्तीन पर
शायद !

पर मैं
अभी भी हैरान हूँ यह सोचकर कि -
तुम्हारा चेहरा अचानक से सामने आने पर भी -
मैं चौंका क्यों नहीं !
मेरे पाँव थमे क्यों नहीं !
मैं फिर भी भागता ही क्यों रहा !

तुमने -
पीछे मुड़कर मुझे देखा या नहीं, पता नहीं !
मुझे देखकर अपना रास्ता बदला या नहीं, पता नहीं !
मेरा पीछा किया या नहीं, पता नहीं !
मेरा नाम याद करने की कोशिश की या नहीं, पता नहीं !
और 'गर नाम याद आया तो मुझे पुकारा या नहीं, पता नहीं !

लेकिन जो पता है, वह यह कि -
आँख खुलने पर
एक बार फिर
तुम्हारा होकर भी न होना, और
तुम्हारा न होकर भी होना
मेरी दिन भर की
मेरी उम्र भर की
कसक बन गया !



Thursday, 16 May 2019

My blood, red!

Reminiscences from my diary

May 16, 2019
Thursday, 7 pm
Murugeshpalya, Bangalore


स्ट्रीट लाइट को लाल से हरा होता देखते - देखते
और ज़ेबरा - क्रॉसिंग पर चलते - चलते
मेरा बायाँ हाथ
एक दुनिया समाये -
- बाएँ काँधे झूलते बस्ते में
दस का नोट टटोल रहा था !

अचानक ही कुछ चुभा !
कुछ नुकीला, कुछ पैना !
हाथ बाहर निकाला तो देखा -
तर्जनी के नाखून के पास
खून चमक आया था !
एकाध कोशिका लहूलुहान हुई थी शायद !
दर्द हुआ भी और नहीं भी !

आज मुद्दत बाद मैंने अपना खून चखा !

बस्ते में झाँका तो पाया -
कॉम्बिफ्लेम के पत्ते का कोना अभी भी घूर रहा था !
चौदह में से -
- तेरह गोलियों से खाली वह पत्ता
वापिस बस्ते में इसलिए डाल दिया कि
आज नहीं तो कल, वक़्त - बेवक़्त,
मुझे इसकी ज़रुरत पड़ेगी ही !

गुलमोहर के गलीचे नापते नापते
सोच रहा हूँ -
कैसे एक कतरे लहू से
एक किस्सा, एक कविता, एक पल उपज जाते हैं !





Monday, 22 April 2019

Salvation from the colors!

Reminiscences from my diary

Apr 22, 2019
Monday, 10:00 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पता है तुम्हें ? घर के सामने जाती, या सामने से आती गली में करीब आठ से दस पेड़ हैं।  पर गली को सही मायनों में रंगीन बनाने का दायित्व उनमें से दो पर है - कनेर और गुलमोहर  ... पीला कनेर और केसरी गुलमोहर ... गुलमोहर के सामने कनेर और  कनेर के सामने गलमोहर  ... छोटा कनेर और छोटे से थोड़ा बड़ा गुलमोहर !

कब वसंत बीता, कब निदाघ ने सहसा प्रहार किया, पता ही नहीं चला ! यूँ भी बड़े शहरों की चकाचौंध में मौसम जैसी छोटी बातों पर अमूनन ध्यान नहीं जाता ! इन दिनों बाज़ार में अफ़रा - तफ़री है कि सावन चौखट लाँघने ही वाला है ! शायद, इसी लिए शामें सुन्दर हो चली हैं।  सूरज की पिघलती सिन्दूरी और बालों को सहलाती बयार आजकल गोधूलि का शृंगार करती हैं।  लेकिन, मेरी शामों की सुंदरता की इकाई में असंख्य शून्य जड़ जाते हैं पीले कनेर और केसरी गुलमोहर के गलीचे !

जब भी कभी एक हाथ से गिरे कनेर को और दूसरे से गुलमोहर के फूल को उठाता हूँ तो एक पल लगता है मानो ईश्वर की सर्वाधिक सुन्दर कृतियों में से दो मेरे हाथों में है  ... मानो मेरे नाखूनों के पास की कोशिकाओं को कुछ पीला, कुछ लाल करने के लिए ही ये फूल ज़मीन पर गिरे हैं  ... मानो अगर मैं शिव की ग्रीवा से वंचित इन फूलों का स्पर्श न करूँ तो मेरे दिन को कैवल्य न मिले ! और जब - जब इन फूलों को उठाता हूँ और उठाने के बाद ऊपर फैली शाखाओं को देखता हूँ तो बूझने लग जाता हूँ उस शाखा को जिसने इनको खुद से अलग कर दिया !

... और तब, तब एक गवाक्ष खुलता है  ...  मस्तिष्क में या हृदय में, पता नहीं  ... जहाँ से मैं खोजने लग जाता हूँ निस्संगता को, निस्संगता के अर्थ को, शाब्दिक अर्थ को, व्यावहारिक अर्थ को  ... और कब निस्संगता के दर्शन का ताना - बाना मेरी श्वास पर हावी होने लग जाता है, मैं जान नहीं पाता !

खैर, दम घुटने की लत सी लग गयी है, तुम तो जानते ही हो ! वैसे एक बात और जान लो  ...

... कुछ समय बाद ही मुझे ये फूल अच्छे नहीं लगते, सुन्दर नहीं लगते ! घर आकर जब यह पीला और यह लाल- सा रंग अपनी उँगलियों से छुड़ाने के लिए पानी का सहारा लेता हूँ, तो कुछ कोशिश, कुछ समय लगता है रंग को पानी में घुलने में... कुछ समय लगता है रंग को मेरे हाथ से छूटने में...

... और उस कुछ समय के अंतराल में मुझे वे गुलमोहर कौंधा जाते हैं जो तुमने मेरी हथेलियों पर मसले थे ! जानता हूँ और मानता भी हूँ कि बीहड़ों में फूलों के अंजुमन की एक झलक भी भगीरथ को मिली मुक्ति - सी होती है ! पर अंततः बीहड़ बीहड़ होता है ! अपने रंगों को निगलने का श्राप है उस पर !

सुनो... !

तुम भी इस श्राप से डरो ! मेरी हथेलियों पर जमा तुम्हारे गुलमोहरों का रंग कांच हो चला है ! दो विकल्प देता हूँ तुम्हें - या तो अपना रंग मुझसे छुड़ा ले जाओ, अपने साथ बहा ले जाओ , या फिर मुझे मेरी हथेलियों से रिहाई दे दो !

जान लो कि तुम्हारे ऐसा करने पर ही मैं बूझ पाऊँगा उस टहनी को जहाँ से गिरा पीला कनेर या केसरी गुलमोहर मेरी उँगलियों पर खुद को हमेशा के लिए छोड़ जाता है  ... !


Monday, 8 April 2019

Nainital


Reminiscences from my diary

March 17, 2019
11:30 pm
Blessings Home-stay, Nainital


कुछ किताबें हिंदी की
अंग्रेज़ी की भी, कुछ से ज़्यादा , शायद
और सामने की दीवार पर मकड़जाल ताकता
मोठे चश्मे वाला कुबड़ा मालिक !

***

पार्किंग के पास बड़ी, पुरानी मस्जिद
मस्जिद से थोड़ी आगे गुरुद्वारा
फिर कुछ और कदम आगे नैनी का प्राचीन मंदिर
और दूर से इन तीनों की कतार ताकता एक बूढ़ा भिखारी !

***

माल रोड के भव्य, पाँच सितारा - से रेस्टॉरेंट
बड़े - बड़े तवों पर सकते पनीर के पूड़े, आलू की टिक्कियाँ
गर्मागरम चाय और कॉफ़ी की मशीनें, और दूर -
पत्थर पर बैठा, मूँगफलियाँ बेचता एक भूखा मुल्लाह !

***

साँझ के फाहों से छनकर आती लाल रोशनी
पानी में तिरते दिखते चीड़
रंगीन फूलों की छोटी - बड़ी क्यारियाँ
उनसे रंगों की ही होड़ करता कूड़े का एक ढेर !

***

एक और सफ़र तुम्हारे साथ
एक और सफर तुम्हारे बिना
और हर सफर की तरह ही
अजनबी चेहरों में मिलते - खोते, खोते - मिलते तुम !

***




The Labyrinth


Reminiscences from my diary

Apr 08, 2019
11:50 pm
Murugeshpalya, Bangalore


मैं अक्सर दूर रहता हूँ
बहुत अजनबियों से ही नहीं
बहुत अपनों से भी !
अपेक्षाएँ दोनों को हैं या हो सकती हैं !
अपेक्षाएँ दोनों से हैं या हो सकती हैं !
एक उम्मीद से कई निराशाएँ उपज जाती हैं अक्सर !
और फिर, उम्मीदों के ताने - बाने को -
- तार - तार करते हैं -
हताशाओं के कुलाबे !

सुनो !
घने बीहड़ों में पलते घने मकड़जालों में -
कभी - कभी
साँस भी रुक जाया करती है !