Friday, 4 February 2022

Hugs

Reminiscences from my diary

Feb 05, 2022
Vasant Panchmi
Bangalore airport


तुम्हारा 
बेहद इत्मिनान से
गले लगाना
और कुछ देर
गले लगाए रखना
मुझे बेहिसाब सुकून देता है! 

कुछ ऐसा-सा सुकून 
जो
दिसंबर की मनाली में
चीड़ के ऊपर टंके
पूरे चाँद को देखते हुए
अलाव सेकने पर मिले! 

उन चंद पलों में बुनी हुई
गर्माहट
मुझे 
काफ़ी वक़्त तक 
हर तरह की 
ठिठुरन से
बचाये रखती है! 

Friday, 17 December 2021

Not a pole star

Reminiscences from my diary

Dec 17, 2021
Friday 07:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore


तारों को टूटता देखने पर 
मन्नतों का जंगल रोपना 

मन्नतों के टूटने पर 
आप सितारा बन जाना 

फिर आप टूटकर 
किसी और की मन्नत में पिर जाना 


सैयारगी 
दीवानगी का 
आखिरी पड़ाव है !

Friday, 10 December 2021

Un-knitted!

Reminiscences from my diary

Dec 10, 2021
Friday 02:00 pm
ORRB, GS, Bangalore

कभी कभी कुछ यूँ होता है कि मज़बूत, कसी हुई गिरहों का एक छोर किसी ऐसे के हाथ लग जाता है कि धीरे धीरे - धीरे धीरे आप खुलने लगते हैं। पुल के उस पार से धागा खिंचता है और इधर ... इधर गिरहें ढीली पड़ने लगती हैं।  गाहे - बगाहे किसी की निजता आपकी निजता तक पहुँचने का सेतु पा जाती है और शुरू हो जाता है पग - पग नपता सफ़र। आपको लगता है आप खुल रहे हैं, परत दर परत सुलझ रहे हैं, आपकी रूह को, आपकी मुश्क़ को आख़िरकार बंद पिटारे से निजात मिलती जा रही है और आप बसंत में घुल रहे हैं।  

और यहीं  ... बस यहीं आप धोख़ा खा जाते हैं। आप जिसे खुलना समझते हैं, वह हमेशा ही खुलना नहीं होता। 

आप असल में उधड़ रहे होते हैं ...

धागा - धागा  ..
रेशा - रेशा  ..
लम्हा - लम्हा  .. 

उधड़न की कसक आपको चकमा दे जाती है। आपको पतझड़ की घुटन भी वसंत की बयार लगती है। मुझे कई बार लगता है कि खुलने और उधड़ने का अंतर उतना ही महीन है जितना एक साँस का होने और न होने तक का फ़ासला। 

ख़ैर  .. एक वक़्त, एक उम्र के बाद इस अंतर का, इसके होने का फ़र्क़ नहीं पड़ता। खुलें या उधड़ें  - दोनों में ही वापसी की कोई सम्भावना नहीं। छूटी हुई ख़ुशबू वापिस बसेरा कभी नहीं पाती ! और उधड़ी ऊन से बुने स्वेटर में भी पहले जैसा निवाच रहता है भला ?



Friday, 15 October 2021

Chaos! 

Reminiscences from my diary

Oct 14, 2021
Thursday, 2345
Zostel, Ooty


मैं कई बार 
अजीब - से 
अनमनेपन से
बेचैन हो उठता हूँ ! 
मैं नहीं जानता खुद को 
यहाँ तक कि
नहीं पहचानता अपना शरीर 
जैसे, अभी अभी
कुछ पढ़ते हुए 
मेरी उँगली, बिना वजह
गर्दन पर चलने लगी 
पर मैं 
नहीं पहचान पाया 
अपना नाखून या 
अपनी त्वचा या
अपना स्पर्श ! 

हैरानियत है ! 

ऐसी हैरत मुझे
तब भी होती है
जब मैं अपनी ही
किसी तस्वीर से 
रु ब रु हो उठता हूँ ! 
तस्वीर के अंदर का मैं
और तस्वीर के बाहर का मैं
एक होने चाहिए
एक नहीं तो
कमसकम एक - से तो
होने ही चाहिए 
हालाँकि उन्हें जोड़ता
कोई पुल 
नहीं दिखता मुझे ! 
मेरी आँखें शायद
पहचान जाती हैं
तस्वीर के किरदार को
पर बूझती रहती हैं
अपना ही ठौर
मानो अभी जहाँ हैं
वह हो बस एक सराय ! 
और आँखें जानती हैं कि
सराय नहीं होते घर ! 

कभी कभी
यह कश्मकश
हावी हो जाती है
मेरी ही साँस पर
पर जब बेवजह बेठौर
किसी पगडंडी को नापते
गौर करता हूँ
अपनी साँस पर
तो बस कश्मकश पाता हूँ
साँस नहीं ! 

यह जो मैं
लिख रहा हूँ
क्या यह मैं
लिख रहा हूँ ? 

मैं मोक्ष की नई परिभाषा
लिखना चाहता था
मृत्यु की नहीं ! 

Tuesday, 12 October 2021

The bones of memories

Reminiscences from my diary

Oct 12, 2021
Tuesday 2310
Zostel, Ooty


सुनो !
मैं चाहता हूँ कि
वे सभी बचे - कुचे लोग -
- जिनकी बची - कुची यादों में 
मैं कहीं - न - कहीं अब भी हूँ -
मुझे भुला दें !

क्यों तुम मुझे 
ऐसी समीधा नहीं देते 
जो 
अपार्थिव हो चुकी स्मृतियों को, 
स्मृतियों की अस्थियों को -
- चटका दें 
और 
ऐसे भस्म करें कि -
न जल 
न वायु 
न अग्नि 
न पृथ्वी 
न आकाश 
कोई भी न बूझ पाए राख का ठौर !

सुनो !
ऐसा हो पाने पर ही 
मैं रच पाऊँगा 
मोक्ष की एक नई परिभाषा !
 

Saturday, 9 October 2021

The first evening in Ooty

Reminiscences from my diary

Saturday, Oct 09, 2021
0630 pm
Zostel, Ooty


हवा इतनी सर्द है कि शरीर की सिरहन भी सिहर रही है। मैं हालाँकि जस-का-तस खड़ा हूँ। जैकेट नहीं, टोपी नहीं, मफ़लर नहीं  ..  बस वही मैरून चैक की पूरी आस्तीन की हल्की गर्म शर्ट,  जो पिछले आठ सालों से मेरे साथ - साथ चल रही है, मुझे ओढ़े हुए है।  कुछ चीज़ें ऐसे ही, बिलकुल ऐसे ही अचानक आपसे टकराती हैं और बस आपकी हो जाती हैं मानो इनका होना सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके लिए ही है। यह चुभती शर्ट भी मुझे हमेशा ऐसी ही लगी। खैर ... डूब चुके सूरज को तलाशती - सी उसकी महीन लाली में रंगी यह कँपकँपाती हवा भी मुझे फिलहाल ऐसी ही लग रही है - अपनी ! सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी मानो मेरी ही राह तक रही थी अब तक और आज जाकर इसे चैन आएगा। 

आस - पास के लैंप-पोस्ट जल चुके हैं। लैंप-पोस्ट चाहे कितने भी सुन्दर हों, मुझे कभी अपने नहीं लगे।  जिसे भोर नहीं गोधूलि पसंद हो, रश्मियाँ नहीं जुगनू पसंद हों, पसंद हो काले-गहरे बादलों से घिरा आसमान, पसंद हों दिन को दिन में ही रात बनाती घटाएँ, उसे यह कृत्रिम रोशनी पसारते लैंप-पोस्ट कैसे पसंद आएँगे ! इनका जलना, इनका होना मुझे सुकून नहीं देता। सुकून तो मिलता है उस ऊपर टंगे - टंके चाँद से। आज का चाँद बहुत बारीक है, जैसे ईद का चाँद हुआ करता है।  और उस पर भी हल्के कोहरे, हल्के फाहों की हल्की चादर।  ठिठुरता चाँद, ठिठुरता मैं  ... ठिठुरते हम ! चाँद को कह सकता हूँ अपना ! कहता ही हूँ हमेशा ! इसकी तासीर ही ऐसी है कुछ ! कितनों का अपना बना बैठा है यह चाँद, गिनती करने बैठूँ तो तारे कम पड़ जाएँ ! उस पर चाँद पहाड़ों का हो तो चार चाँद लग जाते हैं चाँद में - फिर पहाड़ चाहे हिमालय हों या नीलगिरि !

आसमान में इस समय तीन रंग आपस में खेल रहे हैं - नीला, काला, लाल। पता नहीं कब कौन किस पर हावी हो रहा है ! अभी - अभी तो पिछले पन्ना लिखते समय काला ज़्यादा, नीला कम था, और अब देखो ! बाईं तरफ़ लाल ज़्यादा और दाईं तरफ़ नीला, बीच में काला ठिठोली करता शायद सोच रहा है कि दाएँ जाऊँ या बाएँ या फिर पसरा रहूँ वहाँ जहाँ हूँ !

एक शब्द है अंग्रेज़ी का 'सिल्हूट' जो मुझे हमेशा से ही बहुत पसंद है, तब से जब मुझे इसका मतलब भी ठीक से नहीं पता था ! हिंदी में शायद 'छाया चित्र' कहेंगे। इस समय जहाँ से जहाँ तक भी नज़र दौड़ा रहा हूँ, सिल्हूट ही सिल्हूट हैं - पहाड़ों के, पेड़ों के, झाड़ियों के, घरों के, घरों की छतों के, बिजली के खम्बों के, टॉवरों के, लोगों के - सिर्फ़ सिल्हूट ! मैं सोच रहा हूँ कि जो स्मृतियाँ गाहे - बगाहे आपके मन मानस पर दस्तक देती हैं, देती ही चली जाती हैं, एक शांत पल में उफ़ान ले आती हैं - वे असल में स्मृतियाँ होती हैं या स्मृतियों के सिल्हूट ! अगर सिल्हूट हैं तो क्या उनमें इतना सामर्थ्य है कि वे पूरे के पूरे चेहरे आँखों में उतार पाएँ ; एक पूरा गुज़रा पल, समय, अतीत वैसा का वैसा ही आपके सामने खड़ा कर दें और आप सच में मानने लगें कि आप समय के किसी दूसरे ही आयाम में हैं ? और अगर स्मृतियाँ हैं तो फिर धुँधली क्यों पड़ जाती हैं ? क्यों बीता समय, बीते चेहरे हवा के साथ हवा, धुंध के साथ धुंध, बादल के साथ बादल बन जाते हैं ?

खैर  ... बस सोच रहा हूँ ! जवाब नहीं ढूँढ रहा हूँ ! शायद एक उम्र के बाद आप कुछ सवालों को वैसा ही रहने देना चाहते हैं ! नीचे घाटी में रोशनियाँ झिलमिला रही हैं शायद कुछ देर तक इन्हें ही देखता रहूँगा बिना कुछ सोचे, बिना कुछ कहे... 











Thursday, 12 August 2021

Consciousness? 

Reminiscences from my diary
Thursday, 11.30 pm
Saharanpur

मेरी चेतना 
समाधि है
एक औघड़ 
सूफ़ी की

जिसकी
अधमुंदी आँखों में
बिखरा है एक
खुला आकाश

जिसने
कतरा कतरा होकर
भरी है
एक सुरंग

सुनो! 
उस सुरंग के ओर छोर
किसी शम्स की
आँखों में खुलते हैं!