Tuesday, 13 August 2024

The lost bridge of hopes

Reminiscences from my diary

Tuesday, Aug 13, 2024
2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक पुल था
 
आस से बना 
आस पर टिका 

डोर-डोर 
पग-पग 

फिर एक बार 
बिना तारीख़ की 
साँझ आई 

पुल टूट गया 

कतरा -कतरा 
लम्हा-लम्हा 

सुनते हैं 
जान-माल की 
कोई हानि नहीं हुई 

बस कुछ 
आत्माएँ 
जो पलतीं थीं
आस की 
दो से कहीं ज़्यादा आँखों में 

जैसे 
बीहड़ों में 
दो से कहीं ज़्यादा मकड़ियाँ 

बेघर हो गईं और 
भटकतीं रहीं 

पुल -पुल 
आस-आस 

थक-हार हर रात 
लौटती रहीं 
टूटे ठौर के 
मलबे पर 

कहने वाले
यह भी कहते हैं कि 

एक भोर
अचानक 
नीचे बहती बिना नाम की 
नदी ने 
तरस खाकर 

उन सभी आत्माओं को 
दे दी थी 
अपने भँवर में
सात जन्मों की पनाह 





Tuesday, 23 July 2024

Eight (dis)connected sentences - part 3 of infinity

Reminiscences from my diary

July 23, 2024
Tuesday 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम 
मेंह भरे बादलों को 
और नज़दीक से देखने के लिए 
चुपचाप चढ़ जाते 
बंद दरवाज़ों वाली छतों पर 

हम 
पराए मुल्क की बारिशों में 
तसल्ली से भीगते 
और भीगते हुए याद करते
अपनी ज़मीन, अपना पानी, और माएँ 

हम  
रविवारों को भी मिलने चले जाते 
शनिदेव से 
और जला आते 
सरसों का दीया एक  

हम 
टूटी फूटी बसों में 
यूँ ही चढ़ जाते और
कंडक्टर के पास आने पर 
फट से हाथ पकड़ कूद जाया करते 

हम 
ठण्ड से काँपती शामों में 
घूमा करते स्कूटर पर
और गर्दन के ज़रिये सींचते 
एक दूसरे की आँच 

हम 
डर जाया करते 
एक दूसरे की नाराज़गी से 
और फिर हँसाने का, मनाने का 
करते भर-भर जतन 

हम 
चादर की सिलवटों में ढूँढा करते
एक दूसरे की करवटें 
और करवटों में खोजते 
एक दूसरे के सपने

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़ 
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

Sunday, 30 June 2024

Cherrapunji -2

Reminiscences from my diary

June 27, 2024
Thursday, 1800 IST
Cherrapunji, Meghalaya


बहुत समय तक 
बादल चिपके रहे 

काया से 
रूह से 
काया से रूह तक जाती
हर चौखट से 

समय का माप 
नहीं याद 

शायद पैंतालीस मिनट 
या कुछ देर 
या एक कल्प 
या हमेशा से 
हमेशा तक 

एक बादल 
या दो 
या एक बादल के दो टुकड़े 
या कई बादल 
और कई बादल के कई टुकड़े 

परत-दर-परत 

सुध आती रही 
जाती रही 
जैसे कौंधती बिजली 

न रोशनी 
न अँधेरा 

जब छँटे 
रेशा - रेशा भर गए 
ओस 

अब आलम यूँ कि 

पलकों पर बारिशें 
कानों में झरने 
गालों पर छींटें 
होठों पर सीलन 

मैं अब 
पानी से लबालब 
एक गहरा काला बादल हूँ 

बरस रहा हूँ 
भटक रहा हूँ 
बीहड़ सुनसान
गहरे गीले जंगलों में 
साँस खोजती पगडंडियों पर 

यहाँ दूर दूर तक 
बस पानी है 

यहाँ दूर दूर तक 
बस मैं हूँ 



Sunday, 23 June 2024

Cherrapunji - 1

Reminiscences from my diary

June 24, 2024
Monday 1145 IST
Cherrapunji, Meghalaya

कल गुवाहाटी से शिलॉन्ग, और फिर शिलॉन्ग से चेरापूँजी के सफ़र में बीते कई सफ़र साथ-साथ चले  ... 

ढेर सारा भूटान  
बहुत सारा रानीखेत
थोड़ा-थोड़ा स्कॉटलैंड
कुछ-कुछ मसूरी
यहाँ-वहाँ बैजनाथ
मुट्ठी-भर ऊटी
चुटकी भर वरकला 

रास्ते भर कभी खिड़की का शीशा चढ़ाता, कभी उतारता। मुझे दिखते रहे  ... 

एक कान में क्रॉस लटकाए लड़के 
आलूबुखारा बेचती लड़कियाँ 
अपने पिताओं के साथ मछली-काँटा लिए जाते बच्चे 
घरों से ताकते कई-कई रंगों के जर्मेनियम 
दीवारों से उगते सफ़ेद-गुलाबी जंगली फूल 
कहीं से भी प्रकट होते छोटे-छोटे तेज़ झरने 
रंग-बिरंगी छतरियाँ 

गाड़ी के अंदर भी पानी टिप-टिप बरस रहा था, गाडी के बाहर भी। इन पाँच घंटों में मैं सोचता रहा  ... 

कब सुने थे आखिरी बार मोहरा और फूल-और-कांटे के गाने 
क्या ये पहाड़ियों के बीच में बादल हैं, या बादलों के बीच में पहाड़ियाँ 
क्या यहाँ से दी गयी पुकारें लौटती हैं कभी, या पहुँच जाती हैं सीधे देवताओं तक 
क्या यहाँ के लोग जानते भी हैं चाँद-तारों के बारे में 
क्या यायावरों के भी घर होते हैं 
क्यों है मुझे बारिश से बेहिसाब मोह, बरसात का भी नशा होता है भला 
ऐसा क्या है जो इतनी समानताओं के बाद भी इस यात्रा को कर रहा अलग, ख़ास, बहुत अलग, बहुत ख़ास 

इस एक पल जब सुबह के ११.३० बज रहे हैं और मूसलाधार बरसात मुझे और मेरी डायरी को हर ओर से भिगो रही है तो समझ आ रहा है क्यों अलग है यह ट्रिप बाकी यात्राओं से। खैर  ... 

मेरे कॉटेज का नाम है 'रिमपौंग' ! कमरे को पार कर एक दरवाज़ा है जो खुलता है पीछे की बालकनी पर - मेरी बालकनी ! वहीँ बैठा कुछ-कुछ भीग रहा हूँ, कुछ-कुछ लिख रहा हूँ। पूरा जंगला, सारे खम्बे, दीवारें, घाटी की ओर ले जाती सीढ़ियाँ - सब अलग-अलग जंगली फूलों, काई, बेलों से ढके हैं।  सब कुछ तर है - हर पत्ता, हर फूल, हर पंखुड़ी, हर पेड़, हर टहनी, हर कोना, हर पत्थर, हर चट्टान। ..! नीचे छोटी सी नदी है - असल में नदी नहीं, "स्ट्रीम" - अपने पूरे वेग में बहती।  इसकी आवाज़ रात भर मेरी गहरी नींद से दिन-भर के सफ़र की थकान चुनती रही। दूर - दूर तक फैली हैं शांत, मौन, सुन्दर, भीगी, हरी-हरी खासी की पहाड़ियाँ !

इन पहाड़ियों ने अभी दस मिनट पहले मेरे लिए ढेर सारे बादल भेजे हैं - आधे रास्ते आ चुके हैं। बादल इतने नीचे हैं और इतने पास भी, कि उन्हें छू लूँ , चख लूँ, भर लूँ अपने बस्ते में  ... 

टीन की छत पर बूँदें टप-टप गिर रही हैं 
सामने वहीँ 'स्ट्रीम' कल-कल बह रही है 
झींगुर अपनी झंकार में व्यस्त हैं 
मन और मौन अपना ही संगीत बुन रहे हैं 
दूसरी कुर्सी पर रखी निर्मल की 'एक चिथड़ा सुख' हवा के साथ फड़फड़ा रही है 
दूर कहीं कोई फरीदा ख़ानुम की आवाज़ में सुन रहा है 'मेरे हमनफ़स मेरे हमनवां ..'

 

मैं इतना खुश हूँ कि मर ही न जाऊँ  ... 




















Saturday, 1 June 2024

Nine (dis)connected sentences - part 2 of infinity

Reminiscences from my diary

June 01, 2024
Saturday 2000 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम 
ओस से भीगे, कोहरे से सने लॉन की 
हरी बैंच पर बैठ 
शॉल में लिपटे 
बिना वजह ठिठुरा करते 

हम 
निदाघ की दोपहरी 
अक्षरधाम के झरोखों से आती 
ठंडी फुहारों वाली हवा 
भरते थे अपनी जेबों में 

हम 
हो जाया करते थे मायूस 
जब कभी रख देते 
शाख से टूटे फूलों पर 
गलती से पाँव  

हम 
पीठ पीछे बस्ता लटकाये 
अक्सर पहुँच जाया करते थे 
अपने पसंदीदा प्रोफ़ेसरों से 
बतियाने, 'दुःख' बाँटने 

हम 
कभी-कभी पाँव-पाँव चलते हुए 
सुना करते थे रेडियो पर 
अस्सी-नब्बे के दशक के 
सदाबहार गाने 

हम 
बौराए थे रात के तीसरे पहर 
दिल्ली की जलती-बुझती
रंगीन रोशनियों को देख 
आसमान के किसी कोने से 

हम 
चखते एक दूसरे की 
अनामिका से 
साईं की विभूति, और बाट जोहते 
चमत्कारों की 

हम 
आस-पास न रहने पर 
बाँधते अपने-अपने 
खिड़की दरवाज़ों पर 
एक-दूसरे का इंतज़ार

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़ 
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

Friday, 24 May 2024

Ten (dis)connected sentences - part 1 of infinity

Reminiscences from my diary

May 24, 2024
Friday 2100 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम
मसरूफ़ियत में भी 
एक-दूसरे की आवाज़ों में 
रखा करते थे 
अपनी-अपनी भोर

हम 
एकटक ताका करते थे कई कई रात
चाँद को
और उसके आस-पास गुज़रते 
हवाई-जहाज़ों को 

हम 
अपनी उँगलियों से 
दिल्ली मेट्रो की खिड़की पर पड़ती 
बूंदों के
ढूँढा करते थे घर

 हम 
अक्सर एक ही थाली से 
मिल-बाँटकर 
खा लिया करते थे  
कभी दोपहरी कभी रात 

हम 
मन पर डेढ़ मन पत्थर रख 
सुना करते थे 
एक दूसरे की 
पसंद न आने वाली ग़ज़लें-गाने 

हम 
हर साँझ ढले 
आमने-सामने बैठ 
पढ़ा करते थे इत्मीनान से 
गीता के अध्याय 

हम 
रखते थे आँसू 
एक दूसरे के कन्धों पर 
और फिर पोंछ दिया करते थे 
अपनी आस्तीनों से 

हम
बातों के गुच्छे लिए नापा करते थे 
निडर
अधबसे शहर की सड़कें
गलियाँ और पगडंडियाँ  

हम 
अर्पित किया करते थे 
साथ-साथ 
मृत्युंजय को 
बेल-पत्र 

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़  
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

Wednesday, 15 May 2024

Yet Another Moon-Sonata


Reminiscences from my diary

May 13, 2024
Monday 2315 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कल रात 
मैं जागृति से निकला ही था जब -
मैत्रैयी ने पूछा अचानक -
"आज का चाँद देखा?"
मैंने खुद से कहा -
"मैंने तो कब से चाँद नहीं देखा"

एक ज़ुस्तज़ू सी उठी  
एक बेचैनी 
और मैं -

बस - स्टैंड के पास 
फुटपाथ पर खड़ा 
उचक - उचक 
ढूँढने लगा 
ऊँची बालकनियों के पीछे 
तितर - बितर आसमान में 
एक टुकड़ा चाँद 

बौराया जान 
पलट - पलट देखने लगे थे लोग 
बीड़ी फूँकता आदमी 
सवारी खोजता ऑटो
बस का इंतज़ार करती लड़की 
जूस पीते बच्चे 

और फिर अचानक से दिख ही गया 
खूबसूरत 
बेहद खूबसूरत 
अचूक सफ़ेद 
अर्धगोलाकार 
मानो प्रकार से खींचा गया 
आधे से थोड़ा कम 
चाँद 

मुझे यूँ लगा कि 
साँस को
साँस मिली हो 
जैसे मिला हो बेतरतीब अरमानों को 
एक ठौर, एक सराय 

बहुत देर तक मुस्कुराता रहा 
वहीँ खड़ा - खड़ा 
सींचता रहा 
कतरा - कतरा सुकून 

सुनो -

तुम भी
देख पाओ तो 
ज़रूर देखना -
गुज़रा कल 
और 
गुज़रे कल का 
आधा चाँद !