Monday 28 August 2017

A beautiful Safarnama...



Reminiscences from my diary

March 3, 2017 Friday
03:30 pm
GS, CD, Bangalore


यूँ तो मैं एक बार पहले लिख चुका हूँ अल्मोड़ा के सफ़र के बारे में, पर लगता है मानो उन चंद शब्दों में शायद ही उतना उकेर पाया हूँ जितना चाहता था ! अभी भी उस सफ़र की असंख्य स्मृतियाँ मुझे घेरे रहती हैं और बरबस ही मेरी आँखों में चमक और अधरों पर मुस्कान ले आती हैं।  अब तक के जीवन के सबसे खूबसूरत लम्हों में शामिल हो गया है यह सफ़र।  २ दिसंबर की कंपकंपाती सर्दी , हम पाँच साथी, एक 'कोज़ी ' -सी गाड़ी, हिंदी गाने और बातें ही बातें ! कहाँ से शुरू करूँ और किन शब्दों में ढालूँ इस सफ़रनामे को ! दिल्ली से शुरुआत की, रामपुर का नाश्ता, बढ़ते - घटते - भटकते रास्ते, कितने ही पार होते छोटे - बड़े गाँव, मंज़िल बताते लोग, कभी बंजर तो कभी चहचहाती सड़कें, कभी धूल भरा गुबार तो कभी हरी छतरियाँ  ... मैदानों को पार करते - करते कब हम पहाड़ों को छू गए - पता ही नहीं चला !

हवा सर्द से और सर्द होती जा रही थी  ... रास्ते संकरे से और संकरे होते जा रहे थे   .... सफ़र खूबसूरत से और खूबसूरत होता जा रहा था  ... न हिंदी गानों की कोई कमी थी, न हम पाँचों की बातों की ! तभी पता चला, काठगोदाम में हैं हम ! अंदर तक अतीत की एक ललक भभक उठी।  कितनी ही बार ज़िक्र आया है इस जगह का ! कितनी ही बार मैंने काठगोदाम शिवानी की आँखों से देखा है।  एक अलग - सी धूप चमकती - सी दिखाई देती है इन पहाड़ों में।  एक अलग - सी सादगी बसती दिखाई देती है यहाँ के लोगों में , उनकी जीवन - शैली में।  

एक लक्ष्य सामने था हम लोगों के।  अँधेरा होने से पहले, या कम - से - कम अँधेरा घना होने से पहले अपने अल्मोड़ा के 'होम - स्टे ' पहुंचना ! नयी , अनजानी जगह थी और दिसंबर की कड़कड़ाती सर्दी ! ज़्यादा रोमांच परेशानी ला सकता है और इस बात से हम पाँचों सहमत थे ! गाड़ी की रफ़्तार सावधानी से बढ़ी। अब हम सबका ध्यान आस - पास पसरी शांत नैसर्गिकता अपनी ओर आकर्षित कर रही थी।  उथली पर तेज़ गति वाली नहरें, धूप में आराम फरमाती घास, कुछ चमकते तो कुछ धूमिल - से पहाड़, कुछ हरी तो कुछ बंजर पहाड़ियाँ, नदियों के किनारों पर बिखरे कंकण  - प्रकृति की हर एक इकाई उसकी सुंदरता की इकाई में असंख्य शून्य जड़ रही थी! रास्ते में पता चला कि कुछ दूरी पर बहुत लज़ीज़ दाल के पकौड़े मिलते हैं।  यूँ तो वैसे भी हम सभी एक गर्म चाय की प्याली के लिए तड़प रहे थे।  पकौड़ों की दुकान आई, गाड़ी नहर किनारे लगाई, कमर सीधी की और हम सब टूट पड़े पकौड़ों पर ! 

कब पैंतालीस मिनट बीत गए, पता ही नहीं चला ! सूरज ढलता जा रहा था और मंज़िल अभी भी ज़्यादा पास नहीं थी ! एक बार फिर गाड़ी ने अपनी रफ़्तार पकड़ी। ढलते सूरज की बिखरी लालिमा आँखों में संजोये और लता - जगजीत - रफ़ी के मधुर गीतों को हिमालय की सर्द हवा में घोले हम निकल पड़े अल्मोड़ा की डगर !

सच! जितनी सुन्दर मंज़िल निकली, उतनी ही या फिर यह कहूँ कि उससे भी सुन्दर था - हम पाँचों का यह सफ़रनामा !













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