Saturday 5 August 2017

The dying day


Reminiscences from my diary

August 1, 2017
05:00 pm


कुछ यूँ - सा बीता आज का दिन, मानो -
एक बोझ हो  ...
और बोझ भी ऐसा कि -
- साँस भी साँस न ले पाए जैसे -
- किसी ने हिमालय खड़ा कर दिया हो -
- उसकी छाती पर !
एक मशक्क़त - सी करनी पड़ी आज -
- जीने के लिए !
एक -आधा लम्हा तो ऐसा भी लगा कि -
- बस ! अब और नहीं !
एक भी और साँस खींचना अब दूभर है !
फेफड़े -
- कभी चलते - चलते रुक रहे थे, और कभी -
- रुक - रुक कर चल रहे थे !

कुछ यूँ - सा बीता आज का दिन, मानो -
- एक उधार हो, एक क़र्ज़  ...
... जिसे चुकाना हो हर हाल में !
रोते - रोते -
मरते - मरते -
जीते - जीते -
मर कर भी न मरते हुए -
जी कर भी न जीते हुए -
मानो -
कोई लम्हा है -
- जिसकी बेशकीमती उधारी है जन्मों की  ...
... जो हवा पर सवार है, और बस -
- दस्तक देने ही वाला है !
और, अगर -
- उसे ब्याज सहित मूल न मिला तो -
- वह मुझे शाप देगा शायद !
ऐसे ही दिनों का शाप !
ऐसे ही जीने का शाप !

कुछ यूँ - सा बीता आज का दिन, मानो -
भटक गया हो -
- किसी रेगिस्तान में  ...
और तड़प रहा हो, चिल्ला रहा हो -
एक बूँद सलिल के लिए -
एक बूँद इश्क़ के लिए !
ऐसा लगता रहा जैसे -
- आस - पास कोई नहीं है !
बस यह दिन है -
- चिलचिलाती धूप में तपता हुआ !
चारों ओर बस मरीचिकाएँ -
- और हर कदम के साथ धँसते -
- इस दिन के पाँव !

शाम ढल आई है, पर -
आज के दिन का असर -
कुछ यूँ - सा हुआ है कि -
अजब - सी रवानी है  ...
अजब - सी जद्दोजहद !
अब तो बस रात का इंतज़ार है !
क्या पता-
- रात के गहराते अँधेरे और चिल्लाते सन्नाटे में -
- मेरे दिन को सुकून मिल जाए !
















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