Wednesday 26 December 2018

Odds of a December afternoon


Reminiscences from my diary
Dec 26, 2018 03: 30 PM
GS,  CD,  Bangalore

तुम्हारा मेरे पास आना -
मुझसे मिलना, मेरे साथ -
वक़्त गुज़ारना, हँसना, बतियाना, सकुचाना -
यह सब मेरे लिए 'शायद' था !
कल्पनाओं - सा शायद !
मिथ्याओं - सा, मिथकों - सा शायद !
अधजगी रात के अधपके सपने - सा शायद !
यह शायद यकीन बने - चाहा हमेशा था, पर -
यह शायद यकीन बनेगा - माना कभी नहीं था !

... पर फिर एक दिन आया !
किसी भटकती आकाश गंगा के
भटकते पिंड - सा
एक कायनाती दिन !
टूटी खिड़की की जंग लगी जाली से घुसता
भोर की धूप के टुकड़े - सा
एक उजला दिन !
कल्पों से मेंह की राह तकते
बंजर मरु को मुक्ति देता
सलिल से सीला दिन !

... उस दिन,
तुम वाकई मेरे पास आए -
मुझसे मिले, मेरे साथ -
वक़्त गुज़ारा, हँसे, बतियाए, सकुचाए ...!
उस दिन -
तुम 'शायद' नहीं, यकीनन एक यकीन थे !

मानो या न मानो -
उस दिन, मैंने -
हर नक्षत्र -
हर गंगा -
हर शिव से प्रार्थना की थी कि -
दिन थोड़ा ठहर जाए -
वक़्त थोड़ा ठहर जाए -
तुम थोड़ा ठहर जाओ ...
... पर दिन तो दिन था -
उसको गौधूलि से पहले बीतना था, और वह बीत गया !
तुम भी तुम थे -
तुम्हें जाना ही था, और तुम चले गए !


... पर जानते हो ?
तुम जाते - जाते अपने कण - कण को -
मेरे कण - कण में बिखरा गए ...
मेरे बंद कमरे की गंध में -
बिस्तर की सिलवट में -
दर्पण के अक्स में -
दीये की लौ में -
शेल्फ़ से झाँकती किताबों में -
गुड़ की मिठास में -
पानी के झूठे गिलास में -
बाल्कनी में सजे नींबू की नारंगी में -
माथे पर बिखरे मेरे बालों में -
उँगलियों में, नाखूनों में -
दाएँ काँधे के तिल में -
गर्दन से छाती को आती और बाएँ मुड़ जाती नसों में -
मेरे बदसूरत शरीर में -
शरीर के हर रेशे में -
रेशों के अरण्य में कहीं छिपी दबी रूह में -
हाँ !
तुम जाते - जाते अपने कण - कण को -
मेरे कण - कण में बिखरा गए !

... और फिर -
साँझ ढलते - ढलते -
रात आते - आते -
मुझे अपना यकीन -
कल्पनाओं - सा, मिथ्याओं - सा लगने लगा !
तुम्हारे अचानक से होने की और फिर अचानक से -
न होने की -
मेरी कसक -
मेरा यकीन बन गई !

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