Friday, 31 January 2020

Who presents the autumn?


Reminiscences from my diary

January 31, 2020
08:30 pm
Murugeshpalya, Bangalore

सुना है, कल ही -
वसंत -
दहलीज़ लाँघकर -
आँगन - आँगन आया है !

आया है क्या ?
तुम ही बता दो !
मैं देख नहीं पा रहा हूँ !

क्या कह रहे हो ?
फिर से कहो ज़रा !

क्या ?
मैं क्यों नहीं देख पा रहा हूँ ?

अरे !
यह तुम पूछ रहे हो ?
तुम ?
कमाल है !

तुमने जाते हुए -
जो मौसम -
मेरी खिड़की की टूटी जाली से बाँधा था -
उसने -
अपने सूखे पत्तों से -
मुझे, मेरी आँखों को -
मेरी साँस - साँस को -
मेरे रेशे - रेशे को -
परतों परत -
ढक दिया है -
जकड़ दिया है -
लहू - लुहान कर दिया है !
मेरे बदन पर बस ख़रोंचे हैं -
ज़ख्म हैं -
रिसता खून है -
रिसते खून के निशान हैं !

पत्ते - पत्ते पर दीमक लगी हुई है !
मेरा घर - आँगन दीमक - दीमक हो गया है !

सुनो !
तुम्हें हर वसंत मुबारक !
पर यह तो बताओ -
ऐसे पतझड़ का उपहार भी कोई देता है भला ?


Friday, 24 January 2020

The wounds of the silence


Reminiscences from my diary

Jan 24, 2020
Friday, 07.00 pm
Murugeshpalya, Bangalore

एक बात बताऊँ तुम्हें?

यहाँ अचानक से काम करते-करते
एक बार फिर
मेरा मौन, मुझ पर
हावी हो रहा है ...
झटपटा रहा है
रोना चाहता है
चीखना चाहता है
चिल्लाना चाहता है
फटना चाहता है
मिटना चाहता है...
पर तुम ही कहो -
ऐसे कैसे इजाज़त दे दूँ इसे!

आखि़र मैंने खुद भी तो -
कितनी ही बार चाहा है
अपने मौन में डूबना, और -
कितनी ही बार -
इसने मुझे तारा है!
कितनी ही दफ़ा -
मेरे चारों ओर
मकड़जाल-से कोलाहल में
मेरे मौन ने मुझे -
कैवल्य-सा सुकून दिया है!

खुद को खुद से अलग करना
इतना आसान थोड़े ही है!

यूँ भी,
मैं जितनी कोशिश करता हूँ -
अपने मौन को कम करने की
इसे सहलाने की
इसे बहलाने की
इससे बतियाने की
इसका विस्तार, उतना ही-
बढ़ता चला जाता है!

जब कभी
गाहे बगाहे
मुस्कराहट दस्तक देती है
तो न जाने
कहाँ से बहकर
मेरा मौन
मेरे अधरों पर
मेरी आँखों में
टिक बैठता है, और न जाने -
किस दिशा में, किस काल में
ले जा पटकता है मुझे!

लोग पूछते हैं, ठिठोली करते हैं -
अरे! क्या हुआ अचानक?
और मैं -
कुछ नहीं कह पाता!
शब्द बाँध देता है वह!
मुझे बाँध देता है वह !
एक अजीब - सी थकान का -
आलम रहता है हर घड़ी!

मैं पहरों पहर ठूँठ - सा जीता हूँ!
मैं पहरों पहर ठूँठ - सा मरता हूँ!

सुनो! तुम मेरे मूक मौन की आवाज़ बनोगे क्या?

Thursday, 23 January 2020

अमृता की कविताएँ  (7 / 8)

अनाम

मैं एक बैरंग चिट्ठी हूँ
ज़रा ख़्यालों का वजन ज़्यादा था
और खुदा ने टिकट कुछ कम लगाई थी
सो इस दुनिया में मुझे किसी ने डाकखाने से छुड़ाया नहीं  ...

***
अमृता की कविताएँ  (6 / 8)

स्टिल लाइफ़

यह जलियाँवाला -
और उसकी दीवार में
चुपके से बैठे गोलियों के छेद
यह साइबेरिया -
और उसकी ज़मीन पर
चीखों के टुकड़े बर्फ़ में जमे
कंसन्ट्रेशन कैम्प -
इंसानी माँस की गंध
भट्टियों की राख में सोयी
यह करागुयेवाच -
जिसकी कुल आबादी
एक पत्थर के बुत में सिमटी
यह हिरोशिमा है -
जो एक कोने में एक फटे हुए
दस्तावेज़ की तरह पड़ा है
और यह प्राग -
जो साँस रोके आज
सेंसर की मुट्ठी में बैठा है।
हर चीज़ चुप और अडोल है
सिर्फ़ मेरी छाती में से
एक गहरी साँस निकलती है
और धरती का एक टुकड़ा
हिल - सा जाता है।

***
अमृता की कविताएँ (5 / 8)

राजनीति 

सुना है राजनीति एक क्लासिक फिल्म है 

हीरो : बहुमुखी प्रतिभा का मालिक 
रोज़ अपना नाम बदलता 

हीरोइन : हुकूमत की कुर्सी वही रहती है 

एक्स्ट्रा : राज्यसभा और लोकसभा के मेम्बर 

फाइनेंसर : दिहाड़ी के मज़दूर, कामगर और खेतिहर 
(फाइनेंस करते नहीं, करवाए जाते हैं)

संसद : इंडोर शूटिंग का स्थान 

अख़बार : आउटडोर शूटिंग के साधन 

यह फिल्म मैंने देखी  नहीं 
सिर्फ़ सुनी है 
क्योंकि सेंसर का कहना है -
'नॉट फॉर एडल्ट्स' !

***

अमृता की कविताएँ  (4/8)

अमृता प्रीतम

एक दर्द था -
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पिया है
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं -
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाड़ी हैं  ...!

***
अमृता कविताएँ  (3/8)

मैं

आसमान जब भी रात का
और रोशनी का रिश्ता जोड़ता  ...
सितारे मुबारकबात देते हैं
क्यों सोचती हूँ मैं
अगर कहीं  ...
मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती  ...

जिस रात के होठों ने कभी
सपने का माथा चूमा था
सोच के पैरों में उस रात से
इक पायल - सी बज रही है  ...

इक बिजली जब आसमान में
बादलों के वर्क़ उलटती है
मेरी कहानी भटकती है -
आदि ढूंढती है, अंत ढूंढती है  ...

तेरे दिल की एक खिड़की
जब कहीं बज उठती है
सोचती हूँ, मेरे सवाल की
यह कैसी जुर्रत है !

हथेलियों पर
इश्क़ की मेहँदी का कोई दावा नहीं
हिज्र का एक रंग है
और तेरे ज़िक्र की एक खुशबू  ...

मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती  ...

***

अमृता की कविताएँ  (2 /8)

कुफ़्र

आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन खरीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की

सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली

आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चांदनी पी ली

यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे

***

अमृता की कविताएँ  (1/8 )


रसीदी टिकट

ज़िन्दगी जाने कैसी किताब है,
जिसकी इबारत अक्षर-अक्षर बनती है
और फिर अक्षर-अक्षर टूटती,
बिखरती और बदलती है  ...
और चेतना की एक लम्बी यात्रा के बाद
एक मुकाम आता है, जब -
अपनी ज़िन्दगी के बीते हुए काल का,
उस काल के हर हादसे का,
उसकी हर सुबह की निराशा का,
उसकी हर दोपहर की बेचैनी का,
उसकी हर संध्या की उदासीनता का,
और उसकी जागती रातों का,
एक वह जायज़ा लेने का सामर्थ्य
पैदा होता है, जिसकी तशरीह में
नए अर्थों का जलाल होता है, और -
जिसके साथ हर हादसा एक वह
कड़ी बनकर सामने आता है,
जिस पर किसी 'मैं' ने पैर रखकर
'मैं' के पार जाना होता है  ...

***
अमृता की डायरी 'रसीदी टिकट' से ~


(1)
लोग कहते हैं, रेत  रेत है, पानी नहीं बन सकती ! और कुछ सयाने लोग उस रेत को पानी समझने की गलती नहीं करते ! वे लोग सयाने होंगे, पर मैं कहती हूँ - जो लोग रेत को पानी समझने की ग़लती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कमी रही होगी  ...

***


(2)
सूरज के डूबने से मेरा कुछ रोज़ डूब जाता है, और उसके फिर आकाश पर चढ़ने के साथ ही मेरा कुछ रोज़ आकाश पर चढ़ जाता है।  रात मेरे लिए सदा अँधेरे की एक चिनाब - सी रही है, जिसे रोज़ इसलिए तैरकर पार करना होता है कि उसके दूसरे पार सूरज है  ...

***


(3)
मेरा सूरज बादलों के महल में सोया हुआ है
वहाँ कोई खिड़की नहीं, दरवाज़ा नहीं, सीढ़ी भी नहीं
और सदियों के हाथों ने जो पगडण्डी बनाई है
वह मेरे पैरों के लिए बहुत संकरी है  ...

***


(4)
इस दास्ताँ की इब्तदा भी ख़ामोश थी, और सारी उम्र उसकी इन्तेहाँ भी ख़ामोश रही।  आज से चालीस बरस पहले जब लाहौर से साहिर मुझसे मिलने आता था, आकर चुपचाप सिगरेट पीता रहता था।  राखदानी जब सिगरेटों के टुकड़ों से भर जाती थी, वह चला जाता था, और उसके जाने के बाद मैं अकेली सिगरेट के उन टुकड़ों को जलाकर पीती थी।  मेरा और उसके सिगरेट का धुआँ सिर्फ़ हवा में मिलता था, साँस भी हवा में मिलते रहे, और नज़्मों के लफ़्ज़ भी हवा में  ...

सोच रही हूँ, हवा कोई भी फ़ासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फ़ासला तय किया करती थी, अब इस दुनिया और उस दुनिया का फ़ासला भी ज़रूर तय कर लेगी  ....

***


अमृता के कुछ खत, इमरोज़ के नाम ~


(1)
इमा,

इस बार
ब्रश में
होली का रंग
भरकर लाना  ...
तुम्हारे सफ़ेद हाथों की कसम  ...

आशी  [09.02. 1968]

***


(2)
जीती,

तुम जितनी सब्ज़ी लेकर दे गए थे, वे ख़तम हो गयी हैं।
जितने फल लेकर दे गए थे, वे भी ख़तम हो गए हैं !
फ्रिज खाली पड़ा है !

मेरी ज़िन्दगी भी खाली होती हुई लग रही है।  तुम जितनी साँस छोड़ गए थे, वे ख़तम हो रही हैं।

जीता, मेरे इस ऊपर लिखे ख़त को लेकर दुःखी मत होना।  रात के गहरे अँधेरे में लिखा था।

मैं उदास हूँ, लेकिन तुम्हारे काम का ख़्याल आता है, तो अपने अकेलेपन को बहला लेती हूँ।  वैसे नहीं मालूम यह उम्र का तकाज़ा है या ज़िन्दगी के बाकी रहते थोड़े दिनों का एहसास।

जीती, अगर वहाँ काम का कोई भविष्य दिखाई देता है तो ज़रूर स्ट्रगल करना, वरना व्यर्थ में मत भटकना।  यहाँ घर बैठे हमें सूखी दाल - रोटी भी बहुत है।  आज मैं अस्सी बरस की या पिछले ज़माने की औरत की तरह बातें कर रही हूँ।

शायद शाश्वत यही होती है।

वही शाश्वत
माजा [26.09.1968]

***


(3)
इमा,

कल तुम्हारा कमरा बंद रखा था।
आज बहुत दिल घबराया, तो कमरा खोल दिया  ...

पर सारे फ़र्श पर फैली हुई और छत तक पसरी हुई चुप नहीं टूटती !

तुम्हारी
एमी  [12.07.1975]

***


(4)
.... ,

यहाँ मैं इस तरह अकेली पड़ी हूँ जैसे अंधे की माँ उसे मस्जिद में अकेला छोड़ आए !

टूट जाएँ रेलगाड़ियाँ, जो तुम्हें लौटाकर नहीं लातीं !

कल गुलज़ार आया था, "सुना , आपकी तबीयत ठीक नहीं है।  ख़बर लेने आ गया।  क्या बात है ?"

मैंने जवाब दिया, "वैसे तो ठीक हूँ, पर शाम को दर्द शुरू हो जाता है, जैसे ही सूरज डूबता है।"

गुलज़ार हँसने लगा, "पुराने समय में किसी ने 'काल' को पाये से बाँधा था, आप सूरज को पाये से बाँध लीजिये।  इसे मत डूबने दीजिये।"

मैंने उसे बताया, "वह तो मैंने बाँध रखा है, शाम को जब जीती का ख़त आता है, तो वह सूरज ही तो होता है।"

सच जीती, तुम्हारा ख़त शाम का सूरज ही तो होता है।

क्या मैं कम करामाती हूँ ! मैं भी सूरज कोण पाये से बाँध सकती हूँ  ...

साँस साँस से तुम्हारा इंतज़ार हूँ  ...

तुम्हारी अपनी
....   [03.01. 1969]


***

अमृता के कुछ सपने ~

(1)
रात आधी बीती होगी
थकी - हारी
नींद को मनाती आँखें
अचानक व्याकुल हो उठीं

कहीं से आवाज़ आई -
"अरे, अभी खटिया पर पड़ी हो !
उठो ! बहुत दूर जाना है
आकाश गंगा को तैरकर जाना है !"

मैं हैरान होकर बोली -
"मैं तैरना नहीं जानती,
पर ले चलो,
तो आकाश गंगा में डूबना चाहूँगी !"

एक ख़ामोशी - हल्की हँसी
"नहीं, डूबना नहीं, तैरना है  ...
मैं हूँ न  ..."

और फिर जहाँ तक कान पहुँचते थे
एक बाँसुरी की आवाज़ आती रही  ..."

***

(2)
एक अजीब घटना थी -
कि सारा दिन घर से धूप और
अगरबत्तियों की खुशबू आती रही -
जिस कमरे में जाऊँ; खुशबू थी -
हालाँकि कहीं कोई अगरबत्ती नहीं जली हुई थी !
हैरान होकर अपना बदन सूंघा -
सारे बदन से वह महक आ रही थी  ...

सारा दिन यह आलम रहा -
पर संध्या होते ही यह महक खोने लगी -
इमरोज़ को भी यह बताने से झिझक गई
कि वह हँस देंगे  ...

***

(3)
जैसे एक साया - सा देखा -
कि एक जगह शिव धूनी सेक रहे हैं -
मैं बाईं तरफ़ उनके पास बैठी हूँ -
और दाईं तरफ़ पार्वती नृत्य कर रही हैं  ...

***

(4)
अभी गुज़रती रात में देखा -
कोई तीन बच्चे आए -
एक - सी सूरत लिए,
हँसते - हँसते -
उनके हाथों में फूलों का
एक - एक गजरा था -
वे तीनों गजरे मेरे पैरों को बाँध गए  ...

सुबह काका श्री का टेलीफोन आया
मैं हैरान - सी बैठी थी -
रात की घटना सुनाई -
वह हँस दिए -
वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश थे
... हैरान - सी बैठी हूँ  ...

***

(5)
देखा -
सामने साईं खड़े हैं -
मैंने उनके मस्तक पर तिलक लगाया
लम्बी दिशा का, वर्टिकल !
साईं उसी तरह खड़े रहे  ...
फिर देखा -
कोई हाथ नहीं था -
पर मेरे मस्तक पर उसी तरह का तिलक
लगा हुआ था, लम्बी दिशा का -
ख़ुदाया ! तेरी तू जाने !
मैं नहीं जानती  ...

***


Tuesday, 14 January 2020

The right alternative!

Reminiscences from my diary

Jan 14, 2020
Tuesday, 10:20 pm
Murugeshpalya, Bangalore


तुम्हें जीना 
तुम में जीना 
तुम्हारे संग जीना 
या बस, जीना ... 
मैं आज भी बूझ रहा हूँ -
- अपनी साँस का ठिकाना !

ख़ैर -
मेरी छोड़ो !
तुम बताओ !
तुम 'गर होते-
- तो कौन -सा विकल्प चुनते ?