Wednesday, 25 December 2024

Japan

Reminiscences from my diary

Dec 25, 2024
Wednesday 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


... कि गुनगुनी धूप में छाँव ढूँढ़कर साइकिल खड़ी की 
और एकाएक बर्फ़ गिरने लगी 

... कि पसरी पड़ी थी दिसंबर की एक दोपहरी 
और फिर बिना साँझ हुए ही रात हो गयी 

... कि एक पहाड़ था, उस पर एक आसमान कुनमुना
फिर कुनमुने आसमान पर एक-चौथाई चाँद टंक गया 
 
... कि एक झील भी थी बहुत बड़ी, बहुत शांत 
फिर बादल आये और झील झिलमिलाने लगी 

... कि  घास हरी पाँव गुदगुदा रही थी
सिहराती हवा चली और हर हरा लाल हो गया 

... सँकरी गलियाँ थी, बेचतीं बेर और गुड़ियाँ 
चुटकी बजी और सामने आ गए करोड़ों बाँस 

... कि कतरा -कतरा बिम्ब उकेरा पानी पर 
भाप उड़ी और मैने खुद को खुद में समेट लिया  

... कि एक सुन्दर रास्ता शहर से दूर ऊपर कहीं ले गया 
हज़ारों पत्थरों के बीच अचानक तथागत प्रकट हो गए 

... कि रंग, रोशनियाँ, दर्पण और दृश्य एक होकर भी एक नहीं 
 फिर भी मौन, मूक, गहन, बँधे किसी कायनात से 

... कि गीत ने भी तो कहा था कहीं - एक स्थिरता ऐसी भी 
जो नहीं बँध पाती हू-ब-हू किसी एक दृश्य में 







Wednesday, 18 December 2024

Shattered-ness

Reminiscences from my diary

Dec 19, 2024
Thursday 0015 IST
Murugeshpalya, Bangalore


वे सभी सपने जिन्हें नींद ठुकरा देती है
आँखों के नीचे गड्ढों में इकठ्ठा हो जाते हैं 

शिद्दत से टूटे दिल के टुकड़े दिखाई नहीं देते
बस साँस - साँस घुंघरू-से खनकते रहते हैं 

चाँद की परछाई कभी यूँ सी पड़ती है
हथेलियों में छाले उग आते हैं 

बंजर धूप में अकेले चलते लोगों की 
एक अलग अजब ख़ुशबू होती है 

बंद पड़े आँगनों में जब बारिश गिरती है 
देर तक डायन - सी भटकती रहती है 

होठों पर एक उदास कालिख़ ठहरी है 
तुम्हारे लिए लिखी कविताओं की राख़ है 












Thursday, 7 November 2024

The Prayers and The Sunflowers

Reminiscences from my diary
Nov 7, 2024 2245 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक दिन यूँ होगा कि 
ब्रह्माण्ड में भटकती 

तुम्हारी और मेरी 
प्रार्थनाएँ 

कबूतरों के पंख 
बन जाएँगी 

और
 
साँकल लगे घरों के 
उजड़े आँगनों में गिरेंगीं 

एक दिन यूँ होगा कि 
ये पंख 

पंखुड़ी-पंखुड़ी बन 
बुनेंगे 

सूरजमुखी 

कि उस दिन 
और उस दिन के बाद के सभी दिन 

सूरजमुखी 
सूरज से नहीं 

सूरज सूरजमुखी की
दिशा से जाना जाएगा 






Friday, 25 October 2024

When two friends met..

Reminiscences from my diary

Oct 25, 2024
Friday 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


वह
अपने सबसे अच्छे दोस्त से 
मुद्दत बाद मिलता है 

वे किस्तों में बातें करते हैं 

वह बहुत खुश है 
वह एक साँस में कई-कई बातें कहना चाहता है
वह एक साँस में कई-कई बातें पूछना चाहता है

वे किस्तों में बातें करते हैं  

सबसे अच्छा दोस्त भी खुश है
सबसे अच्छा दोस्त कम बोलता है 
सबसे अच्छा दोस्त बीच-बीच में घड़ी देखता है 

वे किस्तों में बातें करते हैं 

वह अपने सबसे अच्छे दोस्त को एकटक देखता है 
सबसे अच्छा दोस्त 'यहाँ' से 'वहाँ' नहीं जाना चाहता 
वह अपने सबसे अच्छे दोस्त का सबसे अच्छा दोस्त बनना चाहता है 

वे किस्तों में बातें करते हैं 

क्या किस्तों में बातें करने से 
दूर होने का वक़्त
बहुत दूर चला जाता है? 

 

Wednesday, 23 October 2024

My Nani

Reminiscences from my diary

Oct 23, 2024
Wednesday, 2245 IST
Murugeshpalya, Bangalore


नानी 
सिर्फ़ माँ की माँ नहीं होती
 
नानी होती है

हरी अलमारी में छिपाए -
चौलाई के लड्डू 
दलिए की गर्म कटोरी में -
पिघलता गुड़ 
हैंडपंप से भरी गयी -
पानी की तीसरी बाल्टी
पौ फटने पर आँगन बुहारती - 
सींक वाली झाड़ू 
काँस के पतीले में रात भर भीगते राजमा का -
बचा-कुचा पानी 

वह होती है -

एक बेटे की सिकुड़ी टाई के सल निकालती -
लोहे की भारी इस्त्री 
दूसरी बेटी के तेल से चुपड़े बालों में -
गुंथा हुआ लाल रिबन 
छोटे नाती के कम होते जेब-खर्च में -
चुपचाप से जुड़ता पचास का नोट 
बड़ी पोती की बेस्वाद चाय में पड़ती -
चुटकी भर दालचीनी 
नाना की एक आवाज़ पर ठुमकती-ठुमकती
एक प्यारी गुड़िया  

और नानी होती है 

पूस की धूप का निवाच 
रातरानी की बिखरी गंध 
तकिये पर सिमटी नींद 
कहानियों की खोई परी 
किताबों में सहेजे बुकमार्क्स 

एक दिन अचानक 

माँ की माँ का 
होने से न हो जाना
माँ के होने और 
माँ के न होने के बीच की दीवार में
दरीचें चिन जाता है 

Tuesday, 15 October 2024

My address, eternal

Reminiscences from my diary

October 15, 2024
Tuesday, 2200 IST
Murugeshpalya, Bangalore


सफ़ेद चौखम्बा
और 
प्रशांत महासगार 
के बीच 

बुराँश के पेड़ों से घिरा 
रंग-बिरंगी दूब का 
एक मैदान है 

यहाँ ऐसे ही किसी का आ जाना वर्जित है 

यह मैदान पता है 
उनका 
जो 

गुनगुनाते हैं पुरवाई के गीत हर मौसम 
पीते हैं अंजुली-अंजुली बारिश 
लिखते हैं बिन पते की चिट्ठियाँ 
फूलों की क्यारियों से चुनते हैं कबूतरों के बिखरे पंख
कविताओं के हिस्से न आये शब्दों की पीड़ा सहलाते हैं 
रोते-रोते कर लेते हैं अन्न को ग्रहण
हर विरह हर रुस्वाई को काँच पर चलकर जीते हैं 
पाकर खोने के दुःख को सुन्न होकर आसमान-सा ओढ़ते हैं 
अनवरत प्रतीक्षा में बाँध देते हैं चौखट-चौखट आँखें, कतरा-कतरा हूक 
और फिर साध लेते हैं मौन हर गोधूलि
गहन स्वप्नों में आँकते हैं प्रेमी और प्रेम
हर साँस, साँस खोजते हैं 
रूमी ढूँढ़ते हैं हद तक, और हो जाते हैं शम्स-शम्स 

यह वही मैदान है 
जहाँ 
कल्पों से आँख मूँदे 
तथागत भी 
कभी-कभी यूँ ही 
रो पड़ते हैं 


Tuesday, 8 October 2024

Pondicherry & My Melancholy

Reminiscences from my diary

Tuesday, Oct 08, 2024
2100 IST
Murugeshpalya, Bangalore 


कबीर की मछलियाँ 
मछलियों की
बूँद-बूँद प्यास

रेत के बनते - ढहते घर 
ढहते दरवाज़े, खिड़कियाँ 
और छत 

नारियल के कुछ हरे 
कुछ सूखे 
पेड़ों का झुरमुट 

पानी के साथ आते 
पानी में ही लौट जाते 
टुकड़े-टुकड़े सीपी और शंख 

डूबते सूरज का 
कुछ लाल, कुछ पीला ओढ़े
एक बेचारा झुटपुटा  

चुप में बँधे दो हाथ 
दूर तक चलते चले जाते 
चार पाँव

दूर  
बहुत दूर जाती 
एक अकेली नाव 

न सीपी, न नाव 
न पेड़, न पाँव 
एक किनारा ऐसा भी 

मेरी उदासी समुद्र का समुद्र होना है !

Monday, 16 September 2024

I cry sometimes when I see you

Reminiscences from my diary

Sept 16, 2024
Monday, 2222 IST
Murugeshpalya, Bangalore


रोज़ की तरह 
घर के पीछे की गली में 
रात की सैर पर निकला 

चलते-चलते 
गुलमोहर और नीम के 
झुरमुटों से होते हुए 
नज़र पड़ गई 
पूरे चाँद पर 

एकाएक 
पता नहीं क्या हुआ 
मैं रो-सा पड़ा 

हालाँकि 
ऐसा पहली बार नहीं हुआ 

आँसू यूँ ही 
तब भी लुढ़क पड़े थे 

जब 
पूस की एक रात 
शॉल में लिपटा 
पहाड़ों से घिरा मैं 
तारों सने आसमान में 
नहीं ढूँढ पाया था 
ज़रा-सा भी 
चाँद 

या जब 
फाल्गुन की पूनम से 
दो-तीन रात पहले 
चाँद को देखते-देखते 
दिखने लगे थे 
तुम्हारे 
बेढंगे
ऊबड़ -खाबड़ 
नाख़ून 

या जब 
सामने पाया था 
गहरा काला समुद्र 
केंकड़ों और कंकणों से बचता 
बिन मोबाइल बिन टॉर्च 
नंगे पाँव 
सिर्फ़ आधे चाँद के सहारे
पहुँच पाया था
अपने सराय 

आँख तो तब भी भर गई थी 
शायद
जब माँ ने
किसी एक जन्मदिन से पहली रात  
झूठ-मूठ 
चाँद को
अपनी ओक में ले 
मेरी हथेलियों में लुढ़का दिया था 

मैं सोचा करता हूँ कभी-कभी 

वे जो चाँद पर
पानी खोज रहे हैं 
कैसे ढूँढ पाएँगे 
इन आँखों को 
इन आँखों की 
चोरी को !



Tuesday, 13 August 2024

The lost bridge of hopes

Reminiscences from my diary

Tuesday, Aug 13, 2024
2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक पुल था
 
आस से बना 
आस पर टिका 

डोर-डोर 
पग-पग 

फिर एक बार 
बिना तारीख़ की 
साँझ आई 

पुल टूट गया 

कतरा -कतरा 
लम्हा-लम्हा 

सुनते हैं 
जान-माल की 
कोई हानि नहीं हुई 

बस कुछ 
आत्माएँ 
जो पलतीं थीं
आस की 
दो से कहीं ज़्यादा आँखों में 

जैसे 
बीहड़ों में 
दो से कहीं ज़्यादा मकड़ियाँ 

बेघर हो गईं और 
भटकतीं रहीं 

पुल -पुल 
आस-आस 

थक-हार हर रात 
लौटती रहीं 
टूटे ठौर के 
मलबे पर 

कहने वाले
यह भी कहते हैं कि 

एक भोर
अचानक 
नीचे बहती बिना नाम की 
नदी ने 
तरस खाकर 

उन सभी आत्माओं को 
दे दी थी 
अपने भँवर में
सात जन्मों की पनाह 





Tuesday, 23 July 2024

Eight (dis)connected sentences - part 3 of infinity

Reminiscences from my diary

July 23, 2024
Tuesday 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम 
मेंह भरे बादलों को 
और नज़दीक से देखने के लिए 
चुपचाप चढ़ जाते 
बंद दरवाज़ों वाली छतों पर 

हम 
पराए मुल्क की बारिशों में 
तसल्ली से भीगते 
और भीगते हुए याद करते
अपनी ज़मीन, अपना पानी, और माएँ 

हम  
रविवारों को भी मिलने चले जाते 
शनिदेव से 
और जला आते 
सरसों का दीया एक  

हम 
टूटी फूटी बसों में 
यूँ ही चढ़ जाते और
कंडक्टर के पास आने पर 
फट से हाथ पकड़ कूद जाया करते 

हम 
ठण्ड से काँपती शामों में 
घूमा करते स्कूटर पर
और गर्दन के ज़रिये सींचते 
एक दूसरे की आँच 

हम 
डर जाया करते 
एक दूसरे की नाराज़गी से 
और फिर हँसाने का, मनाने का 
करते भर-भर जतन 

हम 
चादर की सिलवटों में ढूँढा करते
एक दूसरे की करवटें 
और करवटों में खोजते 
एक दूसरे के सपने

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़ 
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

Sunday, 30 June 2024

Cherrapunji -2

Reminiscences from my diary

June 27, 2024
Thursday, 1800 IST
Cherrapunji, Meghalaya


बहुत समय तक 
बादल चिपके रहे 

काया से 
रूह से 
काया से रूह तक जाती
हर चौखट से 

समय का माप 
नहीं याद 

शायद पैंतालीस मिनट 
या कुछ देर 
या एक कल्प 
या हमेशा से 
हमेशा तक 

एक बादल 
या दो 
या एक बादल के दो टुकड़े 
या कई बादल 
और कई बादल के कई टुकड़े 

परत-दर-परत 

सुध आती रही 
जाती रही 
जैसे कौंधती बिजली 

न रोशनी 
न अँधेरा 

जब छँटे 
रेशा - रेशा भर गए 
ओस 

अब आलम यूँ कि 

पलकों पर बारिशें 
कानों में झरने 
गालों पर छींटें 
होठों पर सीलन 

मैं अब 
पानी से लबालब 
एक गहरा काला बादल हूँ 

बरस रहा हूँ 
भटक रहा हूँ 
बीहड़ सुनसान
गहरे गीले जंगलों में 
साँस खोजती पगडंडियों पर 

यहाँ दूर दूर तक 
बस पानी है 

यहाँ दूर दूर तक 
बस मैं हूँ 



Sunday, 23 June 2024

Cherrapunji - 1

Reminiscences from my diary

June 24, 2024
Monday 1145 IST
Cherrapunji, Meghalaya

कल गुवाहाटी से शिलॉन्ग, और फिर शिलॉन्ग से चेरापूँजी के सफ़र में बीते कई सफ़र साथ-साथ चले  ... 

ढेर सारा भूटान  
बहुत सारा रानीखेत
थोड़ा-थोड़ा स्कॉटलैंड
कुछ-कुछ मसूरी
यहाँ-वहाँ बैजनाथ
मुट्ठी-भर ऊटी
चुटकी भर वरकला 

रास्ते भर कभी खिड़की का शीशा चढ़ाता, कभी उतारता। मुझे दिखते रहे  ... 

एक कान में क्रॉस लटकाए लड़के 
आलूबुखारा बेचती लड़कियाँ 
अपने पिताओं के साथ मछली-काँटा लिए जाते बच्चे 
घरों से ताकते कई-कई रंगों के जर्मेनियम 
दीवारों से उगते सफ़ेद-गुलाबी जंगली फूल 
कहीं से भी प्रकट होते छोटे-छोटे तेज़ झरने 
रंग-बिरंगी छतरियाँ 

गाड़ी के अंदर भी पानी टिप-टिप बरस रहा था, गाडी के बाहर भी। इन पाँच घंटों में मैं सोचता रहा  ... 

कब सुने थे आखिरी बार मोहरा और फूल-और-कांटे के गाने 
क्या ये पहाड़ियों के बीच में बादल हैं, या बादलों के बीच में पहाड़ियाँ 
क्या यहाँ से दी गयी पुकारें लौटती हैं कभी, या पहुँच जाती हैं सीधे देवताओं तक 
क्या यहाँ के लोग जानते भी हैं चाँद-तारों के बारे में 
क्या यायावरों के भी घर होते हैं 
क्यों है मुझे बारिश से बेहिसाब मोह, बरसात का भी नशा होता है भला 
ऐसा क्या है जो इतनी समानताओं के बाद भी इस यात्रा को कर रहा अलग, ख़ास, बहुत अलग, बहुत ख़ास 

इस एक पल जब सुबह के ११.३० बज रहे हैं और मूसलाधार बरसात मुझे और मेरी डायरी को हर ओर से भिगो रही है तो समझ आ रहा है क्यों अलग है यह ट्रिप बाकी यात्राओं से। खैर  ... 

मेरे कॉटेज का नाम है 'रिमपौंग' ! कमरे को पार कर एक दरवाज़ा है जो खुलता है पीछे की बालकनी पर - मेरी बालकनी ! वहीँ बैठा कुछ-कुछ भीग रहा हूँ, कुछ-कुछ लिख रहा हूँ। पूरा जंगला, सारे खम्बे, दीवारें, घाटी की ओर ले जाती सीढ़ियाँ - सब अलग-अलग जंगली फूलों, काई, बेलों से ढके हैं।  सब कुछ तर है - हर पत्ता, हर फूल, हर पंखुड़ी, हर पेड़, हर टहनी, हर कोना, हर पत्थर, हर चट्टान। ..! नीचे छोटी सी नदी है - असल में नदी नहीं, "स्ट्रीम" - अपने पूरे वेग में बहती।  इसकी आवाज़ रात भर मेरी गहरी नींद से दिन-भर के सफ़र की थकान चुनती रही। दूर - दूर तक फैली हैं शांत, मौन, सुन्दर, भीगी, हरी-हरी खासी की पहाड़ियाँ !

इन पहाड़ियों ने अभी दस मिनट पहले मेरे लिए ढेर सारे बादल भेजे हैं - आधे रास्ते आ चुके हैं। बादल इतने नीचे हैं और इतने पास भी, कि उन्हें छू लूँ , चख लूँ, भर लूँ अपने बस्ते में  ... 

टीन की छत पर बूँदें टप-टप गिर रही हैं 
सामने वहीँ 'स्ट्रीम' कल-कल बह रही है 
झींगुर अपनी झंकार में व्यस्त हैं 
मन और मौन अपना ही संगीत बुन रहे हैं 
दूसरी कुर्सी पर रखी निर्मल की 'एक चिथड़ा सुख' हवा के साथ फड़फड़ा रही है 
दूर कहीं कोई फरीदा ख़ानुम की आवाज़ में सुन रहा है 'मेरे हमनफ़स मेरे हमनवां ..'

 

मैं इतना खुश हूँ कि मर ही न जाऊँ  ... 




















Saturday, 1 June 2024

Nine (dis)connected sentences - part 2 of infinity

Reminiscences from my diary

June 01, 2024
Saturday 2000 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम 
ओस से भीगे, कोहरे से सने लॉन की 
हरी बैंच पर बैठ 
शॉल में लिपटे 
बिना वजह ठिठुरा करते 

हम 
निदाघ की दोपहरी 
अक्षरधाम के झरोखों से आती 
ठंडी फुहारों वाली हवा 
भरते थे अपनी जेबों में 

हम 
हो जाया करते थे मायूस 
जब कभी रख देते 
शाख से टूटे फूलों पर 
गलती से पाँव  

हम 
पीठ पीछे बस्ता लटकाये 
अक्सर पहुँच जाया करते थे 
अपने पसंदीदा प्रोफ़ेसरों से 
बतियाने, 'दुःख' बाँटने 

हम 
कभी-कभी पाँव-पाँव चलते हुए 
सुना करते थे रेडियो पर 
अस्सी-नब्बे के दशक के 
सदाबहार गाने 

हम 
बौराए थे रात के तीसरे पहर 
दिल्ली की जलती-बुझती
रंगीन रोशनियों को देख 
आसमान के किसी कोने से 

हम 
चखते एक दूसरे की 
अनामिका से 
साईं की विभूति, और बाट जोहते 
चमत्कारों की 

हम 
आस-पास न रहने पर 
बाँधते अपने-अपने 
खिड़की दरवाज़ों पर 
एक-दूसरे का इंतज़ार

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़ 
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

Friday, 24 May 2024

Ten (dis)connected sentences - part 1 of infinity

Reminiscences from my diary

May 24, 2024
Friday 2100 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम
मसरूफ़ियत में भी 
एक-दूसरे की आवाज़ों में 
रखा करते थे 
अपनी-अपनी भोर

हम 
एकटक ताका करते थे कई कई रात
चाँद को
और उसके आस-पास गुज़रते 
हवाई-जहाज़ों को 

हम 
अपनी उँगलियों से 
दिल्ली मेट्रो की खिड़की पर पड़ती 
बूंदों के
ढूँढा करते थे घर

 हम 
अक्सर एक ही थाली से 
मिल-बाँटकर 
खा लिया करते थे  
कभी दोपहरी कभी रात 

हम 
मन पर डेढ़ मन पत्थर रख 
सुना करते थे 
एक दूसरे की 
पसंद न आने वाली ग़ज़लें-गाने 

हम 
हर साँझ ढले 
आमने-सामने बैठ 
पढ़ा करते थे इत्मीनान से 
गीता के अध्याय 

हम 
रखते थे आँसू 
एक दूसरे के कन्धों पर 
और फिर पोंछ दिया करते थे 
अपनी आस्तीनों से 

हम
बातों के गुच्छे लिए नापा करते थे 
निडर
अधबसे शहर की सड़कें
गलियाँ और पगडंडियाँ  

हम 
अर्पित किया करते थे 
साथ-साथ 
मृत्युंजय को 
बेल-पत्र 

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़  
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

Wednesday, 15 May 2024

Yet Another Moon-Sonata


Reminiscences from my diary

May 13, 2024
Monday 2315 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कल रात 
मैं जागृति से निकला ही था जब -
मैत्रैयी ने पूछा अचानक -
"आज का चाँद देखा?"
मैंने खुद से कहा -
"मैंने तो कब से चाँद नहीं देखा"

एक ज़ुस्तज़ू सी उठी  
एक बेचैनी 
और मैं -

बस - स्टैंड के पास 
फुटपाथ पर खड़ा 
उचक - उचक 
ढूँढने लगा 
ऊँची बालकनियों के पीछे 
तितर - बितर आसमान में 
एक टुकड़ा चाँद 

बौराया जान 
पलट - पलट देखने लगे थे लोग 
बीड़ी फूँकता आदमी 
सवारी खोजता ऑटो
बस का इंतज़ार करती लड़की 
जूस पीते बच्चे 

और फिर अचानक से दिख ही गया 
खूबसूरत 
बेहद खूबसूरत 
अचूक सफ़ेद 
अर्धगोलाकार 
मानो प्रकार से खींचा गया 
आधे से थोड़ा कम 
चाँद 

मुझे यूँ लगा कि 
साँस को
साँस मिली हो 
जैसे मिला हो बेतरतीब अरमानों को 
एक ठौर, एक सराय 

बहुत देर तक मुस्कुराता रहा 
वहीँ खड़ा - खड़ा 
सींचता रहा 
कतरा - कतरा सुकून 

सुनो -

तुम भी
देख पाओ तो 
ज़रूर देखना -
गुज़रा कल 
और 
गुज़रे कल का 
आधा चाँद ! 


Monday, 6 May 2024

The salvation in your palms

Reminiscences from my diary

May 06, 2024
Monday 2045 IST
Murugeshpalya, Bangalore


सपना ही रहा होगा शायद 

जहाँ तक नज़र दौड़ाऊँ 
बर्फ़ ही बर्फ़
पानी में तैरती  
आसमान से गिरती 
ज़मीन पर ठहरती 
बर्फ़ 
इतनी बर्फ़ कि 
पाँव धँस - धँस जाएँ 
कुछ नज़र न आए 
चारों मौसम मानो 
शीत
कई कई शीतों की 
मन-मन बर्फ़ 
आँख लाल 
कान लाल 
नाक लाल 
साँस लाल 
होंठ सफ़ेद 

मैं बर्फ़ -
हो ही रहा था कि 
अचानक 
तुमने अपनी 
हथेलियों की ओक 
मेरी 
हथेलियों के नीचे 
रख दी 

सपना ही रहा हो
ऐसा ज़रूरी नहीं 

तुम्हारी आँच 
मेरी धमनियों का 
कैवल्य है 



Wednesday, 1 May 2024

Finally I can cry again


Reminiscences from my diary

May 01,2024
Wednesday 1930 IST
Murugeshpalya, Bangalore


अमृता हाथ में 
चेरापूंजी आँख में 
हूक साँस में 

कि अचानक 

आज की साँझ 
मेरी दहलीज़ पार कर 
मेरी 
नज़र उतार गई 

अब हो यूँ रहा कि 

सावन बीनूँ 
या 
बुल्ले शाह सुनूँ 

माँ का बनाया नमक चखूँ 
या 
ताकूँ सूखे गुलाब

मेरे 
आँसू
उमड़
उमड़
जाएँ 



Friday, 19 April 2024

The home for the lost

Reminiscences from my diary

Apr 20, 2024
Saturday 0045 
Murugeshpalya, Bangalore


सब कुछ बीत जाने के बाद के 

खालीपन में 

रहती हैं 

एक रंग की तितलियाँ 
घर ढूँढती चीटियाँ 
मुट्ठी भर सूखे कनेर 
एक टूटा तारा 
पतझड़ की आस 
रतजगे 
ढेर सारा पानी 
 
और 

बंजर नज़्में 

Friday, 1 March 2024

The celebration of your absence

Reminiscences from my diary

Friday, Mar 01, 2024
2300 IST
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो
एक बार की बात है! 

चाँद के
न दिखने वाले सिरे पर 
एक कील गाड़ी थी मैंने
और वहाँ से

एक डोर 
खींच दी थी 
सीधा अपनी आँख की 
कोर तक! 

तब से अब तक 
हर रात 

निकलता है
जुगनुओं का एक कारवाँ
आँख और चाँद के बीच 
पड़ गई गिरहों से

फिर
बेहद इत्मिनान से 
तुम्हारे आने की
बाट जोहता है

फिर
थोड़ी देर बाद

उतने ही इत्मिनान से 
तुम्हारे 
न होने का 
जश्न मनाता है ! 



Wednesday, 14 February 2024

बसंत पंचमी 

Reminiscences from my diary
Feb 14, 2024 Wednesday, 2340 IST
Murugeshpalya, Bangalore


बचपन से ही आज का दिन मुझे बहुत हसीन लगता है, अजीबोग़रीब सुकून भरा ! ऐसा क्यों - यह मैं बूझे नहीं बूझ पाता ! बस कुछ चमक होती है, कुछ मुस्कुराहट, कुछ कसक, कुछ बौराहट!  

मुझे अपना स्कूल याद आता है 
आधे दिन की छुट्टी याद आती है 
स्कूल - वैन याद आती है 
वैन में बजते रवींद्र जैन के गाने याद आते हैं 

आज भोर होते ही बालकनी में आया। नज़र भर भर देखने लगा बोगेनविलिआ के गुलाबी गुच्छों को, अपनी हथेलियों में भरने लगा सूखे पुदीने की गमक !

मुझे पुराने घर की छत याद आती है 
पलस्तर झड़ती दीवारें याद आती हैं 
एलो वीरा, सदाबहार के गमले याद आते हैं
उनके पास हजामत करते, ऐनक लगाए बाबा याद आते हैं

गुजराती ननिहाल होने पर भी मुझे पतंग उड़ाना नहीं आ पाया। इस बात का हालाँकि कोई मलाल नहीं कि मलाल करने को पिटारे में और भी वीराने हैं। 

मुझे अपना घंटों आसमान देखना याद आता है 
मुझे मेरी उँगलियों से गुज़रते मांझे याद आते हैं 
दिन भर में अकेले लूटी पाँच-छः पतंगें याद आती हैं 
इस लूट का अपने साथ जश्न मनाना याद आता है 

आज के दिन मेरा शून्य अक़्सर कई शून्यों से भर जाता है। मेरी नज़र किस शून्य को टक-टक एकटक ताकती है, मैं नहीं जानता, जानने की कोशिश भी नहीं करता। हवा में तैरती मिलती है एक ज़ुस्तज़ू !

मुझे पीला कुर्ता याद आता है 
सरस्वती के आगे दीया जलाना याद आता है 
दीया-बाती के बाद की खूबसूरत साँझ याद आती हैं 
मुझे एक ख़ाक़ हुआ दोस्त याद आता है 

Saturday, 10 February 2024

A Synonym of Death

Reminiscences from my diary

Feb 11, 2024
Sunday 0124 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक तारा था 
एक रात अचानक
टूटा  
और फिर 
धीरे - धीरे
मर गया 

एक तारा था 
मर गया एक रात 
यूँ ही 
और फिर 
टुकड़ा - टुकड़ा 
टूट गया 

मरना 
और
टूटना 
पर्याय नहीं लगते

न लगना
न होना तो नहीं

Saturday, 13 January 2024

Listen O Moon!

Reminiscences from my diary

Jan 14, 2024
Sunday, 0015 IST
Murugeshpalya, Bangalore


बहुत दिनों के बाद रात की सैर वापस शुरू की। पूस की सर्द हवा में फैली रात-रानी का ज़ायका ले ही रहा था कि अचानक से ख़्याल आया - 

अरे! 
मैंने
कब से
नहीं देखा
तुम्हें !!

ऐसे
कैसे ... 

... जब यह ख़्याल आया  कि मैंने तुम्हें कब से नहीं देखा तो मैं घबरा-सा गया। यूँ तो कितने ही दिन बीत गए बिना कुछ लिखे हुए - न कश्मीर और उसके पीर-पंजलों के बारे में लिख पाया , न इमरोज़ के जाने का ग़म उकेरा, न रूमी के आने की ख़ुशी ज़ाहिर की, न ही रानीखेत की पगडंडियों में एक बार फिर खोने के बारे में डायरी से कुछ साझा किया ! बस एक लिस्ट बनाता जा रहा था कि जब मन करेगा तब लिखूँगा ! पर अभी इस एक पल  ... 

... जब यह ख़्याल आया कि मैंने तुम्हें कब से नहीं देखा तो मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ ! मन कर रहा है कि तुम्हें इतनी चिट्ठियाँ लिखूँ , इतने पोस्टकार्ड भेजूँ कि तुम्हारी नाक में दम कर दूँ। कितने ही दिन बीत गए तुमसे बात किये हुए, इतनी बातें इकट्ठी हैं कि कहाँ से शुरू करूँ, नहीं जानता ! ख़ैर  ... मैं तो मैं  ... मैं तुम्हें नहीं देख पाया तो मियाँ तुम ही देख लेते !! इतनी तो साझेदारी है ही अपनी ! या तुम बस गुलज़ार के ही हो ? यूँ न करो ! आख़िर मैंने भी बड़ी शिद्दत से तुम्हें कितनी ही जगह टाँका है, तुम्हें उन सब जगहों का वास्ता ... 

... जब यह ख़्याल आया कि मैंने तुम्हें कब से नहीं देखा तो एक आँख से बेचैनी फूट रही है और एक से शिकायत। तुम्हें तो पता है कि कैसे दोनों आँखों के रास्ते तुम मेरे पोर-पोर में उजास भरते हो, उन्माद भरते हो, भरते हो उम्मीद, मन की हूकों को सहने का लेप ! तब भी तुम गायब रहे ? वह भी इतना सारा ? अब तुम भी यूँ करोगे तो कैसे साँस आएगी ? आड़ा-तिरछा, आधा-पौना मुँह ही दिखा देते ! अब समझा कि आजकल आँख का पानी इतना खारा क्यों है  ... 

... जब यह ख़्याल आया कि मैंने तुम्हें कब से नहीं देखा तो बहुत-सी यादें - जो तुमने मुझसे लेकर अपने पास अपनी कोटरों में सहेजकर रख लीं थीं - अचानक ही सुलगने लगीं हैं, और मुझे लगता है सुबह तक मेरी हथेलियों पर छाले होंगे।  पर तुम्हें क्या ? तुम रहो अपने कोप-भवन में ! अल्मोड़ा के साफ़ आसमान में करोड़ों तारों की टिमटिमाहट की तारीफ़ की थी मैंने।  तुम्हें नहीं पूछा था।  कहीं इसलिए तो  ... 

... जब यह ख़्याल आया कि मैंने तुम्हें कब से नहीं देखा तो मैं शिव को अर्ज़ी लगा रहा हूँ कि मना लें तुम्हें  ... कि एक बार फिर तुम मेरे साथ-साथ रहो, मेरे साथ-साथ चलो  ... कि फिर से मेरे साथ गली में बिखरी रात-रानी की गंध चखो  ... कि फिर से मेरे साथ डॉक्टर-साब के घर के बाहर बिखरे हरसिंगार के फूल चुनो  ... कि फिर से मेरा सपना बनो  ... और फिर से, एक बार फिर से मेरी भोर बुनो  ....