Saturday, 4 June 2016

O, You Beloved Siesta!


Reminiscences from my diary

Monday, Feb 1, 2016
EGL, Bangalore
9 AM

मुख - मंडल पर कोहरा घन कर -
चक्षु में तुम छा जाती।
खेकर  तरणी नील - सलिल में -
तट पर किसी आश्रय पा जाती।
इठलाकर और मुस्काकर तुम -
संज्ञा में हो समा जाती।
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।

स्वप्न - लोक में हृदय नहीं रमता -
पर तुम ब्रह्माण्ड तरा जाती।
तुम अभिरामि , तुमको मैं निहारूँ -
ऐसा सम्मोहित कर जाती।
यूँ तो तुम भगिनी रश्मि की -
पर क्यों उस पर तुम झुंझलाती ?
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।

कुहासों को , अवसादों को तुम -
झट से छू - मंतर कर जाती।
स्पर्श मात्र से मधुरस भरता -
ऐसा कुछ जादू कर जाती।
स्मृतियों पर कसकर अंकुश तुम -
क्षितिज पार मुझे ले जाती।
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।




Ahmedabad


Reminiscences from my diary

Wednesday, March 30, 2016
Ahmedabad Airport
7:35 pm


नया शहर
सपाट सड़कें
तेज़ रफ़्तार
दुस्तर पंथा
मिलनसार लोग

बेहमाया कबूतर
गर्म हवा
सुनसान बगिया
उदास ईटें
तपती छत

अजनबी दोस्त
आधी रात
कोल्ड कॉफ़ी
अकेली सड़क
लम्बा सफर

भव्य इमारत
तंग कमरा
टूटा रोशनदान
बिखरा कांच
मटमैली चादर

अधजले  कश
दो मकड़जाल
पसरा सन्नाटा
बिसराता नाम
खंडित आकांक्षा !






Saturday, 28 May 2016

CRAVINGS



Reminiscences from my diary

July 8, 2010
Thursday, 5:00 pm
Munich Airport, Germany



मन करता है  ...

कभी छू लूँ -
- किसी ऐसे को ,
जो अविरल हो  ...
एक झूठा सच  ...
या फिर ,
यथार्थ, कल्पनाओं का  ... !
जैसे -
किसी गाँव की -
- धूल चाटती पगडण्डी पर पड़ती -
- मटमैली चांदनी  ...
या फिर ,
हरी दूब के किसी सूखे तिनके पर -
- झिलमिलाती,
ओस की कोई बूँद !

लगता है , कभी कभी ,
क्या ज़्यादा मांग रहा है मन ?
शायद हाँ ,
पर फिर  लगता है, नहीं !
ज़्यादा नहीं ,
बस गुम होना चाहता है -
चीड़ के पेड़ों के झुरमुट में -
- फैलें हुए हों , जो कोसों दूर तक  ... 
 या फिर ,
सागर की फेनिल उर्मियों में ,
जो छूती हों -
- किसी एकांत तट के कंकण !


सोचता हूँ, अक्सर -
क्या बस यहीं तक है -
- विचारों का क्षितिज ?
न, नहीं  ... !
पाना चाहता हूँ -
- कबूतर के गिरते किसी पंख पर -
- एक ऊंची उड़ान -
- किसी चमकते तारे तक  ... 
या फिर ,
किसी भयावह कानन में ,
अनगिनत जलते - बुझते जुगनुओं की ,
वही जगमगाहट !

मन कहता है ,
यहाँ बहुत शोर है  ... !
वही आवाज़ें , वही संगीत !
सुनना चाहता हूँ ,
दुर्गम पहाड़ों में -
- चट्टानों में , पत्थरों के बीच -
- किसी की खोई हुई गूँज  ... 
या फिर,
कभी कहीं तेज़ आंधी में -
- टीन की छत पर,
गिरता सलिल , बजता जलतरंग  !

मन करता है  ... 


Sunday, 24 April 2016

The Pain And The Poison


Reminiscences from my diary
Sep 17, 2013
Tuesday 4:30 pm
GS, Bangalore


गीले जंगलों से -
 भीगे झुरमुटों से -
छन - छन कर आती रही ,
वही पुरानी टीस -
और,
मन में, मानस में, काया में,
रूह में भी -
दंश - सी चुभती रही !

आज उस बंजर राह पर -
मुद्दत बाद , अचानक ही -
जब कोई आहट हुई -
तो -
मचल - सी गयी टीस, और -
खोजने लगी -
- उस बटोही को,
हो जिसके पास -
मुक्ति का कोई उपाय !

आज जब फिर से टीस तड़पी -
तो एक बार, फिर -
- मथने लगी ,
निराशा के ताने बाने में -
- उम्मीद के कच्चे धागे !
भभक - सी गयी -
- उंस की , आशा की -
एक लौ !
फिर चुनने का मन किया -
उसी बंजर राह में बिखरे -
- उन सुन्दर पलों को !

अरसे बाद -
हूक भरी टीस ने  ...
सवेरा नया लगा, और खुशबू -
जानी पहचानी !
एक नए दर्द की लालसा -
हल्का -हल्का डर -
और,
न जाने कितने सवाल -
मूक , निरुत्तर !
सोचते - सोचते -
तड़पते - मचलते - मुस्कुराते -
दंश पी गयी अपना -
टीस -
नीलकंठ हो गयी आज !










Sunday, 17 April 2016

Why do I write?


Reminiscences from my diary

January 6, 2016
Wednesday, 4 pm
IGI Airport, Delhi

Waiting for flight to Bangalore

जब भी कोलाहल के बीचों - बीच एकाकी - सा सिकुड़ा मैं शून्य में कुछ खोजता रहता हूँ , शून्य को निहारता रहता हूँ और फिर शून्य से ही आँख - मिचौनी खेलता रहता हूँ ; जब कभी दसों दिशाओं में असंख्य अपरिचित चेहरों को देखता हूँ ; जब कभी समय एक अजीबोगरीब - सी मृगतृष्णा - सा मुझे अपने पीछे भगाकर सलिलहीन मरू के मध्य छोड़ कहीं लुप्त हो जाता है , तब  ... तब यूँ ही एक ख्याल , ख्याल नहीं , एक प्रश्न - और वह भी नूतन नहीं, पुरातन  - मेरे मस्तिष्क पर कौंध जाता है , जिसका उत्तर समय स्वयं तो नहीं देता पर निमित्त बन करोड़ों विचार  दे जाता है , मानो प्रश्न का रहस्य एक उत्तर न होकर एक ब्रह्माण्ड हो - आद्यांत ब्रह्माण्ड - और हर तारक - एक परत , रहस्य की एक परत !

सवाल यूँ तो कुछ ज़्यादा कठिन नहीं, महज़ इतना ही है कि हम लिखते क्यों हैं !वैसे मानता हूँ  की व्यष्टि से समष्टि बनती है पर मेधा पर विश्वास करूँ तो नहीं मानता कि यहाँ बात समष्टि पर कुछ प्रतिपादित करने की है।  अतः प्रश्न यदि इतना भी हो कि मैं लिखता क्यों हूँ , तो भी काफी है, और यदि इस आसान से सवाल का आसान सा जवाब पा जाऊं , तो फिर कहने ही क्या !

कहीं सुना था या फिर हो सकता है कि कहीं पढ़ा हो - ऐसे ही किसी प्रश्न के दार्शनिक विवेचन की खोज में 'अज्ञेय' जी ने कभी कहीं कुछ लिखा था।  अवसर मिल पाता पढ़ने का तो हो सकता है कि यह पल , यह क्षण शब्दों में न ढल पाता।  अतः नहीं जानता कि इस  प्रश्न पर उनके विश्लेषण को न पढ़ पाना अच्छा हुआ या नहीं !

मन की सुनूँ और सुनकर गौर करूँ तो पाता हूँ कि जहाँ  तक मेरी बात है , मैं तब लिख पाता हूँ जब हृदय की आर्द्रता अपने गागर को पार कर जाती है।  कई लोग, कई आम लोग ऐसे भी हैं जो प्रसन्नता और सौहार्द के क्षणों को शब्दों के माध्यम से कैद करना चाहते हैं और काफी हद तक सफल भी रहते हैं।  सही भी है क्योंकि यदि ऐसा न हुआ होता तो साहित्य का सारा श्रेय दीन - दुखियों को जाता और यह संसार आंसुओं के सागर में कब का डूब चुका होता ! ऐसे में सांसारिक संतुलन का श्रेय प्रसन्नात्माओं को दिया जाता है और दिया जाना चाहिए भी !

खैर  ... बात समष्टि की नहीं है।  मैंने गौर किया है कि जब स्मृतियों के प्राचीन प्रेत मेरे वर्तमान को परेशान करने लगते हैं , जब समय का चक्र बीते कल के लोगों के समय के चक्रों से पीछे रह जाता है , जब मन का गवाक्ष मात्र एक ही दिशा में खुला रह जाता है , जब खण्ड - खण्ड बिखरा अस्तित्व पुनः जीवन पाने की लालसा रखने लगता है , जब जिजीविषा जिजीविषा न होकर एक मरीचिका रह जाती है , जब हृदय दम निकलने की कगार पर आ पहुँचता है , जब सृष्टि के पञ्च - तत्त्व साज़िश रचकर भूतकाल को जीवंत कर मेरे आज को भस्मीभूत कर जाते हैं , तब  ... तब, सघन निशा के गहराते उस जाल में अक्खर - अक्खर मिलकर मेरी भोर रच जाते हैं , मानो दम तोड़ती काया को संजीवनी मिल गयी हो ! कलम मानो किसी परी की छड़ी बनकर आती है और भूत को भूत रहने में सहायता करती है।  और, ये पन्ने  ... मानो कब से मेरी ही राह तक रहे थे कि कब मेरा मानस भीगे और कब मैं उन्हें रंगूँ !

और सच, जब इन्हें रंगता हूँ तो मानो मेरी रूह में एक  नूतन संज्ञा का संचार होता है ! अधरों पर हल्की - सी मुस्कान और हृदय में स्मृतियों के झंझानल पर एक मीठा अंकुश - बस तब लगता है कि शायद लिखने से अच्छा और कोई विकल्प नहीं और डायरी से अच्छी और कोई सहचारिणी नहीं !







Thursday, 4 February 2016

YOU, THE SHAMS, IN ME!


Reminiscences from my diary
Nov 23, 2015  ( Happy Udaan Day, Happy birthday Siddharth )
Murugeshpalya, Bangalore


आज बैठे बैठे ,
यूँ ही -
अपनी बारीकियों पर -
- गौर किया ,
तो उनमें -
- तुझे घुला हुआ पाया  ...
... मानो ,
मैं  एक कतरा बूँद -
-और ,
मुझमें समाया तू -
- समंदर - सा !
मेरी हर एक हरकत -
मेरी हर एक बरकत -
मानो -
- तुझसे आती हो -
-और ,
तुझमें ही लौट जाती हो  ...
... जैसे,
तू तू नहीं -
मैं हो -
मुझे जीता - सा -
मुझमें जीता - सा !
मेरे युग , जैसे -
- तुझमें सिमटे हों ...
... और ,
हर  श्वास के साथ -
ऐसा लगा जैसे -
- तुझे अपनी रूह में घोला हो  ...
... और ,
खुद को , शून्य में -
- पिघलाया हो !
जानता हूँ ,
मेरे जिस्म,
और मेरी आत्मा के  -
- हर अणु को -
- तेरा सलिल सींचता है !
तुझमें , तेरी हवा में रमता है !
काश !
तू भी, कभी -
यूँ ही -
मेरी बारीकियों में -
- अपना अक्स देख पाता !


Friday, 15 January 2016

Baba ... 

Reminiscences from my diary
Nov 26, 2006
12:30 AM
Saharanpur

शाम में टहलते हुए बरबस ही नज़र पड़ गयी एक मोटी उँगली थामे उस नन्हे हाथ पर  ... ज़रूर पार्थ के दादाजी हैं ! और फिर समय की सबसे छोटी इकाई जितना ही समय लगा मेरे बाबा को मुझ तक पहुँचने के लिए ! देखा तो मेरे बाबा भी मेरे साथ चल रहे थे !

सच, जीवन के वे पंद्रह बरस और  इन बरसों का हर लम्हा स्मृतियों की एक सुदीर्घ श्रृंखला बना गया जो मुझे अपने कल से और उस कल में जीते बाबा से हमेशा ही जोड़े रखता है ! यूँ तो बाबा के हर रूप पर , उनकी हर याद पर , स्मृतियों की इस श्रृंखला की हर कड़ी पर मन भाव - विह्वल हो उठता है , पर एक रूप ख़ास तौर पर ऐसा है , जिस पर मन बलिहारी हो हो जाता था  - तब भी , और आज सोचता हूँ, तो आज भी !

सावन की फुहारों में , मदमस्त बयार के साथ में , जब तहमद और अपने पसंदीदा कागज़ी रंग के कुर्ते में, हाथ में छतरी लिए वह बाहर से पान चबाते हुए आते थे , और 'बाबा' पुकारने पर 'बेटा जी' कहकर गले लगा लेते थे , तो ऐसा लगता था कि जीवन का चरम सुख मिल गया हो ! बाहों का वह घेरा आज तक अपना सामिप्य प्रदान करता है मुझे ! बाबा की यह छवि मन को अनायास ही आह्लादित कर देती है और ऐसा प्रतीत होता है मानो समय ठहर गया हो और ले गया हो मुझे सावन की उन्ही फुहारों में , उसी मदमस्त बयार के बीच , उन्ही बाहुपाश में , और गूंजने लगता है एक स्वर  .... 'बेटा जी' ... !

रौबीला व्यक्तित्व , कोमलता और कठोरता का अद्भुत समन्वय , दुनियादारी की उत्तम तहज़ीब , औरों की सहायता , और अपने पोता - पोती से सबसे अधिक लगाव  - ऐसे थे मेरे बाबा ! यूँ तो ताऊजी के दोनों बेटे हमसे बड़े थे , पर बाबा ने कभी देहरादून जाकर उनके पास रहने के लिए  नहीं कहा। बाबा के लिए तो बस उनके ये पोता - पोती ही सब कुछ थे। कैसे भुला दूँ गोधूलि के वे कालांश जब तैयार होकर वे हम दोनों को अपने साथ घुमाने ले जाते थे - रानी बाज़ार के पातालेश्वर मंदिर में 'भगवान जी' को फूल चढ़ाना , फिर मंदिर के बाहर वाली दुकान पर 'गोली वाला लिम्का' पीना , लौटते हुए 'टॉफियां ' और 'इमली के गोले' खरीदना , 'पतली गली ' वाले रास्ते से लौटना , लौटते हुए 'गफ्फार पानवाले ' से मिलना  ... न, क्यों भूलूँ इन सब को मैं !

भुलाये नहीं भूलता उनका वह हृदयग्राही रूप जब सूट-बूट पहने ,  करीने से टोपी मफलर लगाये वह चौक में जाने के लिए तैयार होते थे और छोटी - सी आयु के यह कहने पर कि - बाबा, काला टीका लगा लो , कहीं आपको नज़र न लग जाये - वह आयु को गले से लगा लेते थे और निहाल हो जाते थे - इतने 'हैंडसम ' थे मेरे बाबा !

रोज़ देर शाम को जब मैं 'इन्सुलिन' लेकर चौक में जाता था, बाबा अपने 'बेस्ट फ्रेंड' इंजीनियर अंकल के  गप्पे मारते मिलते थे।  'जैन साब ' ... हमारे अंकल 'जैन साब' की दुकान और उस दुकान का चबूतरा रोज़ शाम उनकी महफ़िल जमने का अड्डा होते थे।  कितनी सुन्दर थीं वे शामें , वे हंसी - ठहाके , वे बातें ! लौटते हुए बाबा हमेशा मेरे दाईं तरफ चलते थे और अपना बायां हाथ मेरे कंधे पर रखकर ढेर सारी बातें करते थे , 'मुझे कोका-कोला' और खुद 'फैंटा' पीते थे।  आज तक मुझे अपने बाएं कंधे पर उनका स्पर्श अनुभव होता है और जानता हूँ, हमेशा होता रहेगा !

कितने 'एक्टिव' थे मेरे बाबा !   जो भी काम करना है, वह करते थे - परिस्थितियां चाहे कैसी भी हों ! कोई आलस्य नहीं, कोई निराशा नहीं , समय अनुकूल हो या प्रतिकूल - अपनी अंतश्चेतना को हमेशा तंदरुस्त रखते थे।  सुबह उठकर दूध लेने जाते थे - गर्मी हो या सर्दी , मौसम ख़राब हो या तबियत - उनकी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आता था।  अपना काम  गुनगुनाते रहते थे।  सवेरा होने पर मुझे उठाने का काम उन्ही का था।  मंदिर से लौटने के बाद नाश्ता करते और साइकिल पर बाज़ार की तरफ निकल जाते थे।  लौटने पर गली के बाहर से ही मुझे चार बार पुकारते थे - "शानू बाबू ,  शानू जी  .... शानू जी , शानू बाबू " - दुनिया के सभी मिष्ठानों में इतनी मिठास नहीं होगी जितनी मीठी उनकी आवाज़ होती थी।  उनके होने का यह एहसास अप्रतिम थे - तरसते हैं ये कान उसी गूँज, उसी आवाज़ के लिए।

कभी कुछ, कभी कुछ - रोज़ हम बच्चों के लिए कुछ - न - कुछ लाते थे।  मंगलवार के दिन 'मंगल बाज़ार' से मेरे लिए ढेरों ढेर नंदन, चम्पक, चन्दामामा , सुमन - सौरभ आदि किताबें लाते थे।  वही तो थे  जिनसे मैंने कहानियों के किरदारों से बातें करना सीखा ! रोज़, दिन में बाज़ार से आने के बाद , तहमद बदलकर , बड़ी कुर्सी पर बैठकर , चश्मा लगाकर, खीरा खाते हुए अखबार पढ़ते थे - एक  और छवि जो रूह तक घुली हुयी है। जहाँ दो बजे , वह टी.वी.  देखते हुए हमारे स्कूल से आने का इंतज़ार करते रहते थे और जब तक हम दोनों स्कूल से नहीं आते थे, खाना नहीं खाते थे।  हम दोनों से सलाद की थाली वह स्वयं लगाते थे।  आयु से लड़ाई होने पर हमेशा उसी का पक्ष लेते थे और कहते - कोई बात नहीं, छोटी बहन है। दिवाली हो या फिर नव वर्ष का आगमन, हमेशा हम दोनों को अपने साथ ले जाते थे और ' टीचर्स' के लिए 'ग्रीटिंग कार्ड्स' दिलवाते थे। शायद इसी लिए आज भी 'ग्रीटिंग कार्ड्स' बहुत पसंद हैं मुझे !

बीमार होने पर हमारा पूरा ख्याल रखना , कभी कहीं जाने पर हमारे लौटने की राह देखना , हमारे बिना मन न लगना , रोज़ रात में टी.वी. पर होने वाली नोक-झोंक , गर्मियों में  बड़े कमरे में कूलर के सामने सोना , सर्दियों में छत  पर बैठकर नाश्ता करना , दाढ़ी बनाना , रात में बिजली न होने पर लालटेन की रोशनी में एक साथ खाना खाना - सच असंख्य पल हैं, असंख्य स्मृतियाँ ! क्या -क्या और कैसे एक - एक को पन्नों पर उकेर दूँ!

 सर्दियों में  रजाई में बैठकर मूंगफली कहते थे और हम दोनों को छील - छील कर खिलाते रहते थे और कहानियां सुनाते रहते थे।  आज भी सर्दी की वह एक शाम पाने के लिए सब कुछ अर्पण कर सकता हूँ। उन्होंने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि पापा हमारे साथ  वक़्त बिताते हैं और पढ़ाई के अतिरिक्त कोई और बात नहीं करते थे।  वास्तव में अपने शैशव पर नज़र डालूं तो बस बाबा ही नज़र आते हैं।  

लिखते - लिखते एक और शाम दस्तक दे गयी है - जब मुझे स्कूल के जूते और घड़ी दिलवाने 'नया बाज़ार' ले गए थे - पांच सौ अस्सी रुपए के बाटा के जूते - आज भी मैंने अपने पास रखे हुए हैं।  कितना डांटा था पापा ने मुझे इतने महंगे जूते खरीदने के लिए , पर हमेशा की तरह बाबा ने सब सम्भाल लिया था।  

जब भी हम 'गुगाल' के मेले गए , उन्ही के साथ।  हर साल वह ही मेला घुमाते, झूले झुलाते ,  'ऑरेंज - बार' खिलाते , 'सर्कस' दिखाते - स्वर्णिम समय था वह, जब उनका प्रत्यक्ष सानिध्य मिला था ! छोटी होली से पहले हमारे लिए गुब्बारे, रंग, पिचकारी लाते थे।  फाल्गुन का आरम्भ उनके माथे पर लाल टीका लगाकर मैं ही करता था और वह छत के कमरे के दरवाज़े खोलकर अखबार पढ़ते हुए होली की फ़िज़ाओं का आनंद लेते थे। धनतेरस के दिन बुरादा लाकर खुद रंगते थे , धूप में रंगों को सुखाते थे और फिर मेरे और आयु के आँगन में रंगोली बनाने पर झूम से जाते थे  ... 

दो बज गए हैं। सुबह जल्दी उठना है !  विराम देना होगा , वैसे भी ये पिटारा कभी खाली नहीं वाला! आज के मरुस्थल के लिए बाबा न सही, उनकी स्मृतियों का सलिल ही सही , तर जाता हूँ उनके ख्याल से ही !