Sunday, 2 October 2016

The balloon - seller


Reminiscences from my diary

July 22, 2016
Wednesday
Chandigarh Airport


रिक्शा से स्टेशन जा रहा था  ...
भोर अभी पूरी तरह से -
- खिली नहीं थी, शायद,
या फिर -
खिल गयी थी और खिलकर भी -
- घने घने गहराए बादलों से -
- हार मान गई थी !

मन में , मस्तिष्क में -
कुछ गणित सा ,
कुछ जोड़ - घटा -
कुछ हिसाब - किताब चल रहा था !

यूँ तो तनख्वाह बहुत ज़्यादा कम नहीं -
पर फिर भी -
कितने खर्च -
ये हिसाब , वो हिसाब -
कैसे बचाऊँ -
कैसे बढ़ाऊँ -
भविष्य मुँह बाए खड़ा है -
और समय -
न जाने कब से पंख लगाकर -
- उड़ रहा है !
उड़ा ही जा रहा है !

निवेश भी करना है -
कहाँ करूँ -
कैसे करूँ -
कितना करूँ !
करोड़ों सवाल !
बिन जवाब के सवाल !
सवाल ही सवाल !

तभी, रिक्शा - वाले ने -
बचाते - बचाते भी -
एक गड्ढे से -
क्रूर साक्षात्कार करा ही दिया !

ध्यान टूटा !
सवाल इधर - उधर बिखरे !
भविष्य भी भविष्य में लीन हुआ -
-और नज़र पड़ गई दाईं ओर -
- बंद पड़ी उस लकड़ी की दुकान की -
- मुंडेर पर बैठे -
उस गुब्बारे वाले पर !

कितनी तन्मयता से गुब्बारे फुला रहा था !
एक, फिर दो, फिर तीन  ...
कितनी फुर्ती !
फुला - फुलाकर अपनी लकड़ी पर टांग रहा था !
होठों पर मुस्कान - सी थी -
- और शायद कोई गीत !

एक ओर यह गुब्बारे वाला था -
जो शायद तीन वक़्त का खाना भी -
खा पाएगा या नहीं -
पता नहीं !
कितने गुब्बारे बिक पाएंगे आज -
पता नहीं !
कौन से नुक्कड़ पर ज़्यादा बच्चे मिलेंगे -
पता नहीं !
सवाल तो इसके ज़हन में भी होंगे  ...
कई होंगे -
शायद मेरे सवालों से कम -
या फिर ज़्यादा !
पर  ...
कितना अंतर था हमारे सवालों में -
सिर झुक गया मेरा -
और मेरे सवालों का भी !

और जवाब नहीं चाहियें अब ,
या यूँ कहूँ -
सवालों को मेरे , शायद ,
सभी जवाब मिल गए !

कुछ देर बाद गौर किया -
तो मैं -
मुस्कुरा रहा था, और -
बिसरा - सा कोई गीत -
गुनगुना रहा था !







Sunday, 18 September 2016


... and then, I remember you, again!


Reminiscences from my diary

April 30, 2012
09:30 AM

In flight from Bangalore to Delhi



जब शहतूत की गीली डाली से,
हर फल पक - पक  गिर जाता है !
तब टीस मचल जाती मन में,
और फिर से तू याद आता है !




जब भोर की पहली रश्मि, मेरे, 
गालों को छू जाती है !
पीछे - पीछे बैरन हवा भी ,
मुझसे लड़ने आ जाती है !
पर तू नहीं आता , तेरा स्पर्श -
रह रह मुझको तड़पाता है !
खुल जाती अधमुंदी आँखें तब ,
और फिर से तू याद आता है !



सावन की पहली बारिश जब,
मिट्टी को महकाती है !
और पपीहे की पीहू भी -
कानों में घुल जाती है !
पर तेरी ख़ामोशी से -
- सावन सूना पड़ जाता है !
बूँदें आंसू बन जाती हैं -
और फिर से तू याद आता है !


गुलमोहर के फूलों से जब,
पग पग यूँ सज जाता है !
हर वल्लरी पाती आश्रय, और, 
हर विटप भी खिल जाता है !
तब तेरी मुस्कान मेरी इन -
- आँखों में लौट आती है !
स्मृतियाँ कुछ बौरा जातीं-
और फिर से तू याद आता है !



सर्दी की ठंडी रातों में जब,
छत पर तारे गिनता हूँ !
और मेघों की छाया में जब,
चन्दा से बातें करता हूँ !
पर क्यों तेरा साया, तेरा -
- चेहरा नहीं दिख पाता है !
छा जाता तब कोहरा घन घन -
और फिर से तू याद आता है !











Monday, 12 September 2016

Listen! Go away, please!



Reminiscences from my diary

Sep 9, 16 Friday
4 pm, GS, CD, Bangalore

सुनो,
ये जो तुम , गाहे - बगाहे -
- मुझसे बात करने की कोशिश करते हो -
- मत किया करो !

तुम्हें , शायद, कभी कभी -
यह ख्याल गहरा जाता है कि -
- तुम्हारे दूर जाने से -
मुँह मोड़ने से -
सामने होकर भी साथ न होने से -
बहुत अपने से बहुत पराया कर देने से -
मैं -
हैरान, परेशान हूँ -
दुःखी हूँ -
उदास हूँ   ... !
अगर ऐसा है, तो मत सोचो ये सब !

तुम हमेशा से ही -
'प्रगतिशील' रहे हो !
आगे बढ़ना -
और आगे बढ़कर, गुज़रे कल को -
चिता देना -
तुम्हारी आदत रहा है शायद !
आखिर तुमने भी सलिल - सा ही -
- स्वाभाव पाया है !

और, जब से -
यह बात समझा हूँ ,
तब से -
तुमसे कोई शिकायत नहीं रही !
तुम्हारे वजूद का -
तुम्हारे होने या न होने का -
- अब मुझपर शायद कोई असर नहीं होता !

हाँ, इस दौरान -
- एक अच्छी बात हुई है -
- और वह ये कि -
मेरी खुद से पहचान कुछ और गहरी हो गयी है !

खैर  ...
रही बात, बीते दिनों की -
बीती बातों की -
तो सुनो !
वह इमारत भी गिर चुकी है !
और, आधी - पौनी यादों का खंडहर भी -
चरमरा रहा है !
कभी भी ढह जाएगा !

इसी लिए कहता हूँ -
सुनो!
तुम बस आगे बढ़ो !
और, ये जो मेरा बचा - कुचा अस्तित्व -
- तुम्हें , गाहे - बगाहे -
घेर लेता है -
इसे भी जला दो !
तुम्हें तुम्हारे राह तकता मैं -
- अब कभी नहीं मिलूंगा !

















Friday, 2 September 2016

Gali Khatriyan, Abupura, Muzaffarnagar!


Reminiscences from my diary

Aug 2, 2016
Friday, 1:25 AM
IGI Airport, Delhi

Waiting for the flight to Bangalore...

मुज़फ्फरनगर की उस संकरी गली के अंत में बाहर से मामूली -से दिखते उस घर की दहलीज़ में घुसते ही लगता था मानो सैकड़ों वर्षों से पिंजरे में कैद किसी पंछी को अनायास ही अनंत व्योम मिल गया हो ! एक अलग महक , एक अलग एहसास, एक अलग ख़ुशी ! अक्सर अँधेरे में जीती उस दहलीज़ में रोशनी  के सैकड़ों बल्ब - से जल उठते थे हम बच्चों के शोर से, और माँ की आँखों की चमक  ... मैं शायद सब कुछ शब्दों में बयान कर हूँ पर उन दो आँखों की अप्रतिम चमक नहीं !

दहलीज़ पार करते ही खुला आँगन पलकें बिछाए हमारी राह तकता मिलता था।  खुला आँगन , खुले आँगन में पसरी धूप , एक कोने में ऐंठा - सा खड़ा हरे रंग का हैंडपंप, बाईं ओर से ऊपर जाने वाला चौड़ा जीना, उस चौड़े जीने की गहरी लाल सीढ़ियां और आँगन द्वार के ठीक सामने उस बड़े चौड़े जीने से सहमाया एक छोटा खड़ा जीना और सकुचाती - सी ही उस जीने की पलस्तर झाड़ती सीढ़ियाँ।  यूँ तो दोनों ही सीढ़ियाँ ऊपर ले जाती थीं पर फिर भी मुझे उन हल्की सफ़ेद चूना झाड़ती सीढ़ियों से कुछ अलग - सा लगाव था।

छन से आंगन पार सीढ़ियाँ चढ़ ऊपर पहुँचकर नाना - नानी से लिपट जाता था।  "गॉड ब्लेस् यू माय सन !" की झड़ी लगा देते थे नाना।  माथे पर उनका चुम्बन और गालों पर उनकी हथेली की थपकियाँ - संसार के समस्त सुन्दर अनुभव इस स्पर्श में निहित थे।  नाना का हंसमुख , सदाबहार चेहरा देखकर अधरों पर स्वतः ही एक अलौकिक मुस्कान बिखर जाया करती थी।  नानी अक्सर रसोई से आती हुयी दिखती थी।  सादी साड़ी, माथे पर बड़ी - सी लाल बिंदी और खुली बाहें - मुस्काती , लजाती कृष्णवर्णा मेरी नानी नाना के पास आती और नाना के बाहुपाश से मुझे छीनकर अपने आलिंगन में भर लेती।

सीढ़ियां चढ़ने पर एक खुली छत मूक - बधिर पर प्रसन्न बालिका - सी पलकें बिछाए मिलती।  उस खुली छत के एक छोर पर रसोई थी जहाँ नानी का निर्विरोध शासन था।  रसोई के बराबर में एक वाशबेसिन था।  आज तक नहीं जान पाया कि वह वाशबेसिन कभी दीवार की तरह सफ़ेद था भी या नहीं।  मैंने तो उसे हमेशा ही पान की पीक से रंगा ही पाया था।

रसोई के ठीक सामने बड़ा कमरा था - बड़ा इसलिए क्योंकि दो कमरों में सब इसे बड़ा मानते थे।  यहाँ भी अपवाद था मैं शायद ! औरों को छोटा लगने वाला कमरा ही मुझे हमेशा बड़ा लगा।  उस छोटे- से बड़े कमरे में ही मैं हमेशा सोया हूँ शायद।  एक डबल - बेड , ब्लैक एंड वाइट छोटा - सा टी.वी. , लकड़ी का एक दीवान और दो कुर्सियां - बस इन्ही सब चीज़ों से सजा होता था वह कमरा।  एक और चीज़ है जो मेरे इस कमरे का अनभिज्ञ अंश रही हमेशा - चौलाई के लड्डू।  डबल - बेड के बगल वाली अलमारी के ऊपर वाले खाने में नानी हमेशा हम बच्चों के लिए चौलाई के लड्डू रखती थी  ...

आज ये सब चंद पन्नों में लिखते - लिखते हर एक पल के साथ , हर एक शब्द के साथ अपने ननिहाल की वही गंध कितनी समीप पा रहा हूँ मैं।  ऐसा लग रहा है वह छत , वह दालान , वह हैण्ड - पंप , छोटे - से बड़े कमरे की वह अलमारी , वहां बिखरे चौलाई के कुछ दाने, आँगन की हर ईंट मुझसे मिलने आई हो और शिकायत कर रही हो कि मुद्दत हो गयी है तुमसे मिले हुए , तुम्हे देखे हुए।  इस भागती - दौड़ती , भूलती - भुलाती ज़िन्दगी में अगर कुछ मिनट निकाल पाओ तो बंजर पड़ी , धूल चढ़ी उस दहलीज़ को एक बार फिर देख आना  ! शायद दम  तोड़ती लौ एक बार फिर भभक जाए !





Saturday, 13 August 2016

That dying breath of mine!



Reminiscences from my diary

Aug 11, 2016
Thursday, 11:30 AM

In train from SRE to NDLS!


मेरी एक श्वास -
- न जाने , कब से -
बिलख रही है -
तड़प रही है !
बस एक ही ख्वाहिश रखती है -
तेरी !
पर क्या करे -
बदकिस्मत है !
तुझे देखने की चाह -
एक पहर से दूसरे पहर -
दूसरे से तीसरे -
और धीरे धीरे -
शून्य में खोती जा रही है !

हर एक श्वास के साथ -
मेरी वह बदकिस्मत श्वास -
मिन्नतें करती फिरती है -
हर पल से -
बीतते समय के हर अणु , हर इकाई से -
कि  बस ! एक बार और -
हाँ, बस एक बार -
तेरा दरस दिख जाए !
एक बार और -
तुझे जी भर के निहार पाए !
एक बार और -
तेरी श्वास में घुल जाए !
एक  बार और -
तेरे स्पर्श में सिमट जाए !

मोक्षदायिनी गंगा के -
- सलिल में,  सदा के लिए -
- तर जाएगी  ...
... यदि ऐसा हो पाया !

हिमालय में बैठे -
- किसी अघोरी की चिलम में -
- आद्यांत रम जाएगी  ...
... यदि ऐसा हो पाया !

गोविन्द को अलंकृत करते -
- वैकुण्ठ में किसी कमल - सी -
- चिरायु हो जाएंगी  ...
... यदि ऐसा हो पाया !

एक बार फिर जी उठेगी मेरी श्वास!
अमर हो जाएगी मेरी श्वास !
अमर हो जाएगी मेरी श्वास !





Saturday, 23 July 2016

...Yet again! I cried, it rained!



Reminiscences from my diary

July 19, '16
11 am
GS, CD, Bangalore

जब भी कभी -
हृदय की आर्द्रता,
और उसकी तीव्रता -
यहाँ - वहाँ बिखरे हर गागर में -
सिमटकर भी नहीं सिमट पाती -
- और आँखों तक छलछला उठती है  ... 

तब  ... 
तब, नयन ही नहीं -
वरन्
मन, मस्तिष्क और ग्रीवा की -
- हर नाड़ी -
- चीत्कार कर उठती है 
और ध्वस्त होने की सीमा तक -
- आ पहुँचती है !

उस एक क्षण -
न जाने कितने ही युग -
जो रुग्ण - से -
जीर्ण - शीर्ण - से -
मृतप्राय - से -
शून्य में सुषुप्त थे -
जीवंत हो उठते हैं ,
और,
आँखों में भर जाते हैं !

हर एक स्मृति ,
हर एक दंश ,
हर एक पीड़ा ,
हर एक कथा ,
हर एक विरह -
- सजीव हो उठता है -
- और फिर तब -
तब -
मैं टूटकर रोता हूँ -
बहुत रोता हूँ -
हर कतरा रोता है -
हर श्वास रोती है -
हर स्मृति रोती है -
हर दंश रोता है -
हर पीड़ा रोती है -
हर कथा रोती है -
हर दिशा से आती बयार रोती है -
हर कोने में पसरा अंधकार रोता है !

और , ऐसे ही -
पहर, बदहवास - सा -
बीतता जाता है  ... 
फिर एक पल -
जब चेतन होता हूँ -
और सिसकियाँ अल्प -विराम लेती हैं -
तो ध्यान, बाहर से आती -
जानी - पहचानी  - सी -
आवाज़ पर जाता है !

एक बार फिर -
हैरान रह जाता हूँ -
जब पाता हूँ कि -
बाहर -
बिन सावन का सलिल -
पूरे वेग से बरस रहा है !









Saturday, 9 July 2016

...when I saw your picture!


Reminiscences from my diary

Apr 7, '16 11:50 am
GS, CD, Bangalore


गाहे - बगाहे , जब भी कभी -
मेरी नज़र -
तेरी किसी तस्वीर  पड़ती है -
तो मन में -
एक हूक - सी उठ जाती है  ...
एक सिरहन - सी दौड़ जाती है  ...
हर रोम में !
तेरे जाने के बाद -
हर एक पल -
जो मुझसे गुज़रा है -
- सजीव हो उठता है,
और -
मेरे शरीर, मानस और आत्मा में -
तेरी विरह का दंश फूँक जाता है !
काश! कोई कायनाती हवा चलती -
या फिर -
कोई गंगा ऐसी उतरती -
जिसका सलिल -
मेरे यथार्थ को समेटे -
इन एकाकी युगों में से -
कुछ लम्हों को -
तुझ तक ले जाता ,
और,
गाहे - बगाहे -
तेरी नज़र भी -
मेरी किसी तस्वीर पर पड़ जाती !