Wednesday, 27 January 2021

Listen O Moon!

Reminiscences from my diary

Jan 27, 2021
Wed, 10:40 pm
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो चँदा !
फ़र्ज़ करो
कोई लगभग पूरा हो 

लगभग

और
लगभग पूरा होने से 
पूरा पूरा होने तक का सफ़र
कुछ-एक प्रकाश - वर्ष जितना हो जाए ?

कितनी भटकन होगी !
कितनी तड़पन होगी !

सुनो चंदा !
अब यूँ करो कि
फ़र्ज़ करो या न करो 
पर
तुम्हारी तकदीर 
उन सैकड़ों अधूरों की
तकदीरों से 
कुछ-एक प्रकाश वर्ष गुना
ज़्यादा पूरी है !


Monday, 11 January 2021

The palms

Reminiscences from my diary

Jan 11, 2021
Monday, 09:55 pm
Murugeshpalya, Bangalore


एक पल है 
कहीं किसी आयाम में 
अटका हुआ 

एक पल, जब 
तुम्हारी हथेलियों पर 
रोपा था मैंने 
अपना कैवल्य 

मायाजाल - सी रेखाओं में 
तुम्हारी 
मकड़जाल - सा मानस 
मेरा 
बहा था
जैसे धमनियों में रक्त 
बहते - बहते 
हो गया था 
भागीरथी 

अस्तु !
तुम्हारी उँगलियाँ, एकाएक 
हो गयीं थीं 
शिव .. 

Friday, 1 January 2021

O, my dear friend!

Reminiscences from my diary

Jan 01, 2021
Friday, 10:55 pm
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो !
आज उदास लग रहे हो तुम 
बहुत उदास !
मानो, तुम -
तुम नहीं !
कल तो कितना खिल रहे थे 
खिला रहे थे !
क्या हुआ अचानक ?
मुझे बताओ !
मैं भी तो सब कुछ कहता हूँ तुमसे !

कल रात तो तुमने -
कितनी ही आतिशबाजी देखी होगी 
कितने ही रंग 
कितनी ही रोशनी 
कितनी ही चमक 
कितना ही उल्लास 
कितनी ही आशाएँ !
शाम से ही झूम रहे थे तुम तो, कल !

फिर क्या हुआ ?
बेचैन क्यों दिख रहे हो ?
तुम तो जानते हो, कितनी ही आँखें -
तुमसे उजास पाती हैं !
यूँ दिखोगे तो कितनी ही बेबसी -
ठहर जाएगी उनमें !
है न ?

मुझे लग रहा है -
मेरी फितरत का भूत चढ़ गया है तुम्हारे सिर 
और यह तो ठीक बात नहीं है !

अब सुनो, चुपचाप !
चाहते हो 'गर तुम -
मैं न करूँ शिव से शिकायत तुम्हारी, तो -
एक लम्बी साँस लो 
झटको यह चोला, और -
वैसे ही हो जाओ, जैसे हो तुम !
फबती नहीं है तुम पर उदासी !

न जाने कितने ही कवि 
तुम्हारे तुम होने की राह में 
अपनी कलम बिछाए बैठे होंगे !


Monday, 28 December 2020

The poor clock!


Reminiscences from my diary

Dec 28, 2020
Monday, 10:20 pm
Murugeshpalya, Bangalore


एक घड़ी है 
आम - सी
और चूँकि आम - सी है 
उसे आम घड़ियों की ही तरह 
चलते रहना चाहिए 
अनवरत !

कुछ पत्थर हैं 
या यूँ कह लीजिये 
कंकण हैं 
महीन - महीन 
पर ऐसे कि 
जीना मुहाल कर दें 
जैसे पथरी !

घड़ी ठीक से चल नहीं पाती 
जब तब
भटक जाती है 
अटक जाती है 
पग-पग पत्थर-पत्थर 
मानो 
उचटी नियति
जब तब 
मुट्ठी भरती है 
और बिखरा देती है 
बालू, बजरी, कंकण !

सुनो !
ऐसे ही, एक बार 
कतरा कतरा 
कंकण कंकण 
बना था 
एक हिमालय !

 

Wednesday, 9 December 2020

The creeping of the silence!

Reminiscences from my diary

Dec 09, 2020
Wednesday, 10:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore

सन्नाटा !
आसमान जितना सन्नाटा !
बीहड़ में कल्पों से पलते किसी मकड़जाल में -
दम ठहरने के बाद जैसा सन्नाटा !

जितना सन्नाटा, उतना ही कोलाहल !
जितना कोलाहल, उतना मौन !
जितना मौन, उतने शब्द !
जितने शब्द, उतने घाव !
जितने घाव, उतने धागे !
जितने धागे, उतनी टीस !
जितनी टीस, उतने पतझड़ !
जितने पतझड़, उतने सावन !
जितने सावन, उतना नीर !
जितना नीर, उतनी स्मृतियाँ !
जितनी स्मृतियाँ, उतना ही सन्नाटा !

कांसे के प्याले पर धुंध-सी बहती धुन के -
अचानक बिखरने के बाद जैसा सन्नाटा !
आसमान जितना सन्नाटा !
सन्नाटा !

Thursday, 3 December 2020

The New Moon

Reminiscences from my diary

Dec 03, 2020
Thursday, 11:15 pm
Murugeshpalya, Bangalore


मैं यूँ ही 
बिना वजह 
एकटक 
देखे जा रहा था चाँद को !
शायद 
चाँद भी 
यूँ ही 
बिना वजह 
देखे जा रहा था मुझे !
बीच - बीच में 
यूँ ही 
बिना वजह 
मुस्कुरा उठते थे हम दोनों ही 
शायद !

फिर 
निदाघ की एक साँझ 
अचानक ही 
बिना वजह 
उतर आयी आँख में !

तुमने 
अपनी बंद मुट्ठी 
मेरी हथेलियों की ओक पर 
पलट दी थी 
यूँ ही !

"यह रहा आज की रात का चाँद - तुम्हारा"
"मेरा ???"
"हाँ ! रखो ! तुम्हारा हुआ!"

हँसते हँसते बौरा गए थे 
हम दोनों या तीनों ही !

सुनो! सुन रहे हो तो !
सच कहो !
ठिठोली की थी न !
मैं बूझ चूका हूँ !

अमावस की रात भी चाँद खिला करते हैं भला ?


Sounds at 2 AM


Reminiscences from my diary


Nov 30, 2020


Reminiscences from my diary

Monday, 2.15 am

Murugeshpalya, Bangalore


इस एक पल -

अचानक ही घड़ी पर नज़र पड़ गयी! 

रात के दो बज गए हैं! 


ओह! 

दो! 

यह तो बहुत कम समय रह गया भोर होने में! 


पर नींद? 

उफ्फ़! 

ज़रूर आते - आते नींद की कहीं आँख लग गयी है! 


इस एक पल -

सन्नाटा पसरा हुआ है! 

नीरव! 

नीरस! 

निर्जन! 

हालांकि -

मुझे महज़ दो आवाज़ें -

साफ - साफ सुनाई दे रही हैं! 


एक आवाज़ तो अपनी साँस की ही है! 

मुद्दत बाद गौर कर रहा हूँ कि -

कैसे मेरी साँस -

अंदर - बाहर 

आते - जाते 

शोर मचा रही है! 


"मैं भी हूँ, मैं भी हूँ.."

"जानता हूँ रे! तभी तो मैं हूँ!"


दूसरी आवाज़ -

झींगुरों की है! 


दो हैं? 

दस हैं? 

या फिर तारे जितने? 

पता नहीं! 

और -

यह भी नहीं पता कि -

असल में -

है कहाँ यह टोली! 

कमरे में तो नहीं है! 

ज़रूर बाल्कनी में -

मनी-प्लांट 

या ऐलोवीरा

या फिर निम्बोली के आस - पास कहीं - 

झनक रहे हैं! 


खैर .. 

इस एक पल -

यही दो आवाज़ें हैं ! 

हाँ! 

बस दो! 

बाकी तो बस वही -

सन्नाटा! 

मौन - मूक सन्नाटा! 


अरे!

तुम भी हैरान हो गए क्या? 

कहो तो! 

वैसे -

मैं भी हूँ -

हैरान! 

मैं खुद -

काफी देर से टटोल रहा हूँ

इधर - उधर ताके जा रहा हूँ

पर -

मेरे रतजगे में -

आज 

तुम्हारी आवाज़ -

दूर - दूर तक नहीं है..!