Saturday, 9 October 2021

The first evening in Ooty

Reminiscences from my diary

Saturday, Oct 09, 2021
0630 pm
Zostel, Ooty


हवा इतनी सर्द है कि शरीर की सिरहन भी सिहर रही है। मैं हालाँकि जस-का-तस खड़ा हूँ। जैकेट नहीं, टोपी नहीं, मफ़लर नहीं  ..  बस वही मैरून चैक की पूरी आस्तीन की हल्की गर्म शर्ट,  जो पिछले आठ सालों से मेरे साथ - साथ चल रही है, मुझे ओढ़े हुए है।  कुछ चीज़ें ऐसे ही, बिलकुल ऐसे ही अचानक आपसे टकराती हैं और बस आपकी हो जाती हैं मानो इनका होना सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके लिए ही है। यह चुभती शर्ट भी मुझे हमेशा ऐसी ही लगी। खैर ... डूब चुके सूरज को तलाशती - सी उसकी महीन लाली में रंगी यह कँपकँपाती हवा भी मुझे फिलहाल ऐसी ही लग रही है - अपनी ! सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी मानो मेरी ही राह तक रही थी अब तक और आज जाकर इसे चैन आएगा। 

आस - पास के लैंप-पोस्ट जल चुके हैं। लैंप-पोस्ट चाहे कितने भी सुन्दर हों, मुझे कभी अपने नहीं लगे।  जिसे भोर नहीं गोधूलि पसंद हो, रश्मियाँ नहीं जुगनू पसंद हों, पसंद हो काले-गहरे बादलों से घिरा आसमान, पसंद हों दिन को दिन में ही रात बनाती घटाएँ, उसे यह कृत्रिम रोशनी पसारते लैंप-पोस्ट कैसे पसंद आएँगे ! इनका जलना, इनका होना मुझे सुकून नहीं देता। सुकून तो मिलता है उस ऊपर टंगे - टंके चाँद से। आज का चाँद बहुत बारीक है, जैसे ईद का चाँद हुआ करता है।  और उस पर भी हल्के कोहरे, हल्के फाहों की हल्की चादर।  ठिठुरता चाँद, ठिठुरता मैं  ... ठिठुरते हम ! चाँद को कह सकता हूँ अपना ! कहता ही हूँ हमेशा ! इसकी तासीर ही ऐसी है कुछ ! कितनों का अपना बना बैठा है यह चाँद, गिनती करने बैठूँ तो तारे कम पड़ जाएँ ! उस पर चाँद पहाड़ों का हो तो चार चाँद लग जाते हैं चाँद में - फिर पहाड़ चाहे हिमालय हों या नीलगिरि !

आसमान में इस समय तीन रंग आपस में खेल रहे हैं - नीला, काला, लाल। पता नहीं कब कौन किस पर हावी हो रहा है ! अभी - अभी तो पिछले पन्ना लिखते समय काला ज़्यादा, नीला कम था, और अब देखो ! बाईं तरफ़ लाल ज़्यादा और दाईं तरफ़ नीला, बीच में काला ठिठोली करता शायद सोच रहा है कि दाएँ जाऊँ या बाएँ या फिर पसरा रहूँ वहाँ जहाँ हूँ !

एक शब्द है अंग्रेज़ी का 'सिल्हूट' जो मुझे हमेशा से ही बहुत पसंद है, तब से जब मुझे इसका मतलब भी ठीक से नहीं पता था ! हिंदी में शायद 'छाया चित्र' कहेंगे। इस समय जहाँ से जहाँ तक भी नज़र दौड़ा रहा हूँ, सिल्हूट ही सिल्हूट हैं - पहाड़ों के, पेड़ों के, झाड़ियों के, घरों के, घरों की छतों के, बिजली के खम्बों के, टॉवरों के, लोगों के - सिर्फ़ सिल्हूट ! मैं सोच रहा हूँ कि जो स्मृतियाँ गाहे - बगाहे आपके मन मानस पर दस्तक देती हैं, देती ही चली जाती हैं, एक शांत पल में उफ़ान ले आती हैं - वे असल में स्मृतियाँ होती हैं या स्मृतियों के सिल्हूट ! अगर सिल्हूट हैं तो क्या उनमें इतना सामर्थ्य है कि वे पूरे के पूरे चेहरे आँखों में उतार पाएँ ; एक पूरा गुज़रा पल, समय, अतीत वैसा का वैसा ही आपके सामने खड़ा कर दें और आप सच में मानने लगें कि आप समय के किसी दूसरे ही आयाम में हैं ? और अगर स्मृतियाँ हैं तो फिर धुँधली क्यों पड़ जाती हैं ? क्यों बीता समय, बीते चेहरे हवा के साथ हवा, धुंध के साथ धुंध, बादल के साथ बादल बन जाते हैं ?

खैर  ... बस सोच रहा हूँ ! जवाब नहीं ढूँढ रहा हूँ ! शायद एक उम्र के बाद आप कुछ सवालों को वैसा ही रहने देना चाहते हैं ! नीचे घाटी में रोशनियाँ झिलमिला रही हैं शायद कुछ देर तक इन्हें ही देखता रहूँगा बिना कुछ सोचे, बिना कुछ कहे... 











Thursday, 12 August 2021

Consciousness? 

Reminiscences from my diary
Thursday, 11.30 pm
Saharanpur

मेरी चेतना 
समाधि है
एक औघड़ 
सूफ़ी की

जिसकी
अधमुंदी आँखों में
बिखरा है एक
खुला आकाश

जिसने
कतरा कतरा होकर
भरी है
एक सुरंग

सुनो! 
उस सुरंग के ओर छोर
किसी शम्स की
आँखों में खुलते हैं! 

Sunday, 1 August 2021

Ashes to words

Reminiscences from my diary

Aug 01, 2021
Sunday, 0900 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पता नहीं कब कहाँ 
कौन सा तारा टूटा कि 
एक ख्वाहिश मन में पिर गई !
पिरती ही चली गई !

यूँ तो मैंने अमरपक्षी होना कभी नहीं चाहा पर 
यह ज़रूर चाहने लगा हूँ कि 
अग्निदाह के बाद एक चमत्कार हो
और मेरी राख़ से उपजें 
शब्द!
शब्द जो बनते बनते बन जाएँ 
एक किताब!
कविता! कहानी! कहकहा! कुछ भी!
बस एक किताब!

ऐसा होने से एक उम्मीद तो रहेगी कि 
अगली बार ही सही 
क्या पता 
कभी कहीं 
किसी अमलतास के नीचे 
किसी सफ़र में
किसी खिड़की पर गर्दन टिकाये 
किसी आँसू की सीलन में 
पढ़ा जाऊँ
गढ़ा जाऊँ!


Friday, 2 July 2021

The cobweb of memories

Reminiscences from my diary

July 02, 2021
Friday, 11:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore

मैं कई बार अनमनी-सी टीस से बेचैन हो उठता हूँ।  बहुत बेचैन ! कभी भी  .. किसी भी पहर  .. किसी भी जगह  .. काम करते वक़्त  .. चलते वक़्त  .. पढ़ते वक़्त  .. कुछ न करते वक़्त  .. कभी भी ! पर इस बेचैनी, इस कसक की वजह ढूँढने में मुझे ज़्यादा वक़्त नहीं लगता।  हालाँकि मैं कभी भी बिलकुल सटीक कारण नहीं ढूँढ पाया हूँ। महज़ इतना समझा हूँ कि बात स्मृतियों से जुड़ी है। सहस्र दंश लिए फिरता हूँ इनका ! पर क्यों ? नीलकंठ तो बस एक हो ही होना था ! ऐसे अंतरालों में मैं सोचा करता हूँ कि स्मृतियों के जंजाल का कौन सा तार मेरी छाती पर हिमालय खड़ा करता है; क्या उम्र के साथ ये तार तार-तार हो जाते हैं; क्या मैं वाकई चाहता हूँ कि ये हवा हो जाएँ; हो गयीं `गर ये हवा तो क्या मैं इनसे उपजी टीस के बिना अपनी जिजीविषा सींच पाऊँगा; कहीं ये मात्र भ्रम तो नहीं मानों हो बस मरीचिका; और छलावा ही हैं तो इतनी बार छलने क्यों आती हैं; तो क्या मैं इतने समय से किसी थार को नाप रहा हूँ  ... कितने ही सवाल .. कितने ही ऊबड़ - खाबड़ - अनगढ़ सवाल बुन जाते हैं अपने आप ही  .. उधड़न हो कभी कोई तो साँस में साँस आए !

छटपटाहट के पशमीने में लिपटा मैं यह भी सोचता हूँ कि इतने भरे मन और मस्तिष्क के साथ क्या हम अपना आज आज की तरह जी पाते हैं या जी सकते हैं ? मैं नहीं मानता क्योंकि मैं अपना आज आज की तरह नहीं जी पाता। ऐसा नहीं कि कोशिश नहीं करता ! प्रयास शुरू ही करता हूँ कि झपट पड़ता है स्मृतियों का झुण्ड मुझपर मानो कब से घात में हो और धकेल देता है मुझे आज से बहुत परे ! और आज ? आज बेचारा मायूस होकर बीत जाता है और मुझे ठीक से पता भी नहीं चल पाता। कभी-कभी ध्यान जाता है किसी-किसी आज पर पर तब जब वह कल बन चुका होता है। कौंधा जाती है एक नयी स्मृति जो तब बनी थी जब बाकी स्मृतियाँ मुझे भूत में ले गयीं थीं। खेल है  .. अजीब-सा खेल .. जो बस चले जा रहा है, और मैं हारे जा रहा हूँ   .. 

लगता है धुँधली सीमाओं वाले चौकोरों की एक बिसात बिछी हुई है,  या यूँ कहूँ कि फैली हुई है भूत के आयाम में। सपने कौड़ी हो जाते हैं किसी-किसी नींद ! जब-तब जो सपना बिसात के जिस वर्ग में गिर जाता है, वही स्मृति स्वप्न बन लौट आती है मानो, स्वप्न स्वप्न न हो, बस प्रतिबिम्ब हो स्मृति का !

एक नई कश्मकश दस्तक देती है मेरे ज़हन में। भोर होते-होते या फिर रात के ही किसी पहर की किसी इकाई में सपने अक्सर टूट ही जाया करते हैं। जब कोई गहरा सपना टूटता है तो शायद उतने ही टुकड़ों में बिखर जाता है जितने छिटके हों तारे किसी स्याह रात में ! 

नींद बाँझ हो जाया करती है तब !
रतजगे झाँकने लगते हैं दरीचों से !
स्मृतियाँ बन जाती हैं दत्तक !


Saturday, 26 June 2021

The white shirt

Reminiscences from my diary
June 27, 2021
Sunday, 00:30
Murugeshpalya, Bangalore


इंसोम्निया आम रातों की तरह -
पसरा हुआ है !
बाहर,  हल्की बौछार!
रेडियो पर अल्का का गाना चल रहा है  -
"तुम साथ हो या न हो, क्या फ़र्क है  .."
बेतरतीब हुई अपनी अलमारी को -
थोड़ा सँवारने की कोशिश कर रहा था -
बहुत दिन हो गए यूँ भी !

दायीं ओर का सबसे ऊपर वाला खाना -
ठीक करते - करते 
मेरे हाथ में आ गई -
एक शर्ट 
वही शर्ट 
वही सफ़ेद शर्ट 
सफ़ेद शर्ट जिस पर चारकोल जैसे रंग से -
धारियाँ पड़ी हुई हैं 
काली नहीं, काली - सी ही !

उँगलियाँ रुक गईं -
आँखें भी, मन भी, पल भी !
मुस्कान आई, चली गई -
फिर आई है, पर आधी सी !
पानी भी आया आँख में -
आधा-सा आँसू लुढ़क पड़ा है -
गाल पर !

कसकर दोनों हथेलियों में 
दबा रखा है इसे !
उतनी सफ़ेद नहीं रही अब  !
हल्के - हल्के निशान भी हैं यहाँ - वहाँ !
पूरी आस्तीन पूरी नहीं लग रही !
बटन पूरे हैं पर, एक भी नहीं टूटा !
सूँघ रहा हूँ !
दिसंबर की एक कुहासी शाम को ढूँढ रहा हूँ !
शाम, जब तूने -
सड़क पर टहल-कदमी करते हुए -
अचानक ही -
अपने बस्ते से यह सुन्दर सफ़ेद शर्ट निकाली 
और मुझे थमा दी थी !

मेरे जन्मदिन का तोहफा !

मुद्दत बाद कोई तोहफा मिला था !
आदत नहीं थी, मैं ठिठक पड़ा !
लेने से साफ़ इंकार कर दिया था !
कॉलर देखकर कहा था -
"यह तो बहुत महंगी होगी!"
कैसे ऐनक नीची कर आँखें तरेरकर -
मेरा बस्ता छीनकर उसमें रख दी थी -
यह सफ़ेद शर्ट !

मुझे कोहरा भी बारिश लगा था तब !

रेडियो पर अभी भी गाना चल रहा है -
"तुम साथ हो या न हो क्या फ़र्क है ..."


Wednesday, 23 June 2021

Surroundings

Reminiscences from my diary
June 23, 2021
Wed, 10:20 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पूरा चाँद 
अधबुने बादल 
सर्द बयार 
गर्म साँस  
गीले तार 
झूलती बूँदें 
नहाई गली 
काँपता कबूतर 
बिखरे कनेर 
सिमटा गुलमोहर 
नपता पहर 
छूटता दिन 
कौंधती स्मृतियाँ 
बिसरते चेहरे 
मूक चुभन 
मूक चुभन 

Tuesday, 15 June 2021

Grievances 

Reminiscences from my diary

June 15, 2021
Tuesday, 10:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore


कल ही की तो बात है !
साँझ की बाती करते हुए 
साईं से बुदबुदा रहा था 
शिकायत, असल में कि -
ठीक है 
जो अब नहीं है 
जिसकी वापसी अब मुमकिन नहीं 
न सही 
पर पहले, कमसकम -
एक ज़रिया तो था -
नींद का
जिसमें मैं -
गाहे - बगाहे 
रु-ब-रु हो जाया करता था -
दुनिया के सबसे अज़ीज़ चेहरे से 
और -
दो सपनों के बीच 
जितनी भी कसक रिसती थी 
सब धुल जाया करती थी !

एक आलम अब है कि -
उम्र बढ़ने के साथ 
आँख -
रात - रात भर 
मकड़ी - सी 
कुछ बुनती रहती है हवा में !
न नींद आती है
न कोई सपना !

डरने लगा हूँ 
क्योंकि -
पहले की बनिस्बत 
पलकें मूंदने पर -
चेहरा, चेहरे की बनावट 
साफ़ नज़र नहीं आती !
मशक्कत करनी पड़ती है 
टुकड़ा - टुकड़ा जोड़ -
याद - याद जोड़ -
उसे पूरा करने की, पर -
कुछ न कुछ छूट जाया करता है !
कितने ही वक़्त से यही हो रहा है !
मैं हैरान, परेशान रहने लगा हूँ !

खैर -
मैं कल ही साईं से यह सब 
साझा कर रहा था 
और -
साईं ने कल रात ही 
एक निहायती खूबसूरत 
नींद बुन डाली 
और उसमें टाँका -
आकाशगंगा का सबसे चमकीला सपना !

सुनो !
चौबीस घंटे होने को आए हैं !
मैं अभी भी -
हूक़ -
मुस्कान -
स्पर्श -
नमी -
और
तुम्हारे पूरे चेहरे की ख़ुमारी में हूँ !