Wednesday, 12 April 2023

Ranikhet Diaries, Day 05

Reminiscences from my diary

April 10, 2023
Monday 0900 PM
Tara, Kalika, Ranikhet

"मछलियाँ दीवारें नहीं तोड़तीं, घर छोड़ देती हैं ... "

बाबुषा, सुनो! तुम्हें यहाँ आना चाहिए - कुमाऊँ - और कुछ वक़्त रहना चाहिए ! नर्मदा किनारे लिखीं तुम्हारी 'बावन चिट्ठियाँ' पूरी नहीं पड़तीं मेरे लिए, बीच प्यास छोड़ जाती हैं !

तृष्णाएँ ! मृगतृष्णाएँ !

दो मंदिर  ... नितांत उलटी दिशाएँ  ... घने सुनसान जंगल  ... चिलचिलाती धूप  ... चिलचिलाती ही हवा  ... सुन्न स्मृतियाँ  ... पाँव पाँव मैं  ... सिर्फ़ मैं !

रानीखेत में होते हुए भी अभी तक मुख्य रानीखेत नहीं देखा था। लेकिन जब देखा तो लगा, अरे! यहाँ तो मैं आ चुका हूँ। 'द फोल्डेड अर्थ' रानीखेत की ही तो दुनिया है। उछल पड़ा जब पॉल साब ने फ़ोन पर बताया कि अनुराधा रॉय रानीखेत ही रहती हैं। 

कल ही सोच लिया था कि रानीखेत का बाज़ार देखते हुए झूला देवी मंदिर और फिर वहां से हैड़ाखान बाबा मंदिर जाऊंगा, और वह भी पाँव पाँव ! पहाड़ों में आपकी सूझ-बूझ पर चीड़ और देवदार छाये रहते हैं ! समय और दूरी के आयाम रजाई ताने सोते रहते हैं !

कैंटोनमेंट इलाके को और फिर एक लम्बे जंगल को पार कर - लगभग पाँच किलोमीटर - लम्बे-छोटे डग भरता पहुँच ही गया हज़ारों घंटियों वाले झूला देवी मंदिर ! न जाने कितने लोगों से रास्ता पूछा होगा मैंने!  फ़ोन में सिग्नल ही नहीं आते यहाँ, और घड़ी-दो-घड़ी आएँ भी तो गूगल मैप ठीक से नहीं चलता। ऐसे में एक 'डाइरेक्शनली चैलेंज्ड' व्यक्ति के लिए बियाबान में एक प्राचीन मंदिर खोजना बहुत हिम्मत का काम है  ... बहुत!

झूला देवी मंदिर में लिखा था कि अगरबत्ती न जलाएँ, कि अगरबती में बाँस होता है, कि बाँस के जलने का अर्थ वंश का जलना है ! मुझे याद आये अतुल भैया - उन्होंने भी कभी बहुत समय पहले ऐसा ही कुछ कहा था ! कितने तरह के मिथक, कितनी तरह की प्रथाएँ !

यहाँ से निकलकर सोचा कि अब बहुत हुआ, कोई सवारी ली जाए! हाय! पहले मेरे नखरे थे! अब सवारी के! दूर दूर तक कोई सवारी नहीं ! हैड़ाखान बाबा ने सोचा होगा कि उनके पास भी मैं पैदल ही आऊँ !

झूला देवी से रानी झील की ओर एक 'ट्रेल' जाता है ! वापसी में वही पकड़ा ! 
सुन्दर ! बेहद सुन्दर! 
खतरनाक! बेहद खतरनाक! 
जब-तब हज़ारों पेड़ों की खरबों पत्तियाँ यूँ सरसराहट करतीं कि पूरा जंगल गूँज उठता। मेरी बौराहट के कई साथी!

एक बार फिर रानीखेत से होता हुआ चल पड़ा हैड़ाखान की ओर। लगभग साढ़े तीन बज गए थे। मेरा ख़्याल था कि किसी सूफ़ी संत की समाधि होगी पर हैड़ाखान बाबा को शिव का अवतार मानते हैं यहाँ। मंदिर में शांत ठन्डे फ़र्श पर कुछ देर बैठकर ध्यान लगाया। फिर काफी देर नीचे पसरी वादी देखता रहा। बहुत ही मनोरम जगह पर स्थित है यह मन्दिर। रानीखेत के लगभग सभी 'क्लस्टर्स' साफ़ नज़र आते हैं। यहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी बहुत-बहुत सुन्दर है। उफ़्फ़ ! वैसे क्या-क्या बहुत सुन्दर नहीं है यहाँ? सब कुछ ही तो!

वापसी में दया बरसी। एक साहब ने कुछ दूर तक लिफ्ट दी। फिर तीसरी बार रानीखेत का बाज़ार पार किया और कालिका को जाती एक जीप से लिफ्ट ली। 

कुमाऊँ आता रहा हूँ पर आज जितना पैदल पहले कभी नहीं चला था  ... मसूरी में ऋषि भैया ने भी इतना नहीं चलाया था। वैसे जब तक आप किसी शहर, कसबे, गाँव की गलियां पैदल नहीं नापते, तब तक वहाँ की हवा आपसे ख़फ़ा रहती है, वहां का पानी आपको नहीं सुहाता, वहां की मिट्टी आपको नहीं छूती ! एक कमी-सी बनी रहती है। इसलिए चलना ज़रूरी होता है कभी। कभी यूँ ही चलते-चलते घर भी मिल जाते हैं  ... पर  ... 

"मछलियाँ दीवारें नहीं तोड़तीं, घर छोड़ देती हैं ... "

Sunday, 9 April 2023

Ranikhet Diaries - Day 04

Reminiscences from my diary
April 09, 2023
Sunday 2030 IST
Tara, Kalika, Ranikhet

हिमालय की धूप मेरे शरीर का ताप है! 

सुबह साढ़े आठ बजे सौ किलोमीटर दूर बाघेश्वर के लिए निकला। काफी देर तक गाड़ी की खिड़की से बायाँ हाथ बाहर निकाल धूप के कणों को नाखूनों के पोरवों में, पोरवों से हथेली की रेखाओं में, वहाँ से धमनियों के जाल में, और जाल से सीधा दिल में सहेजता रहा! हवा में हमेशा की तरह चीड़ के घुंघरुओं की खनक थी! सफ़र लम्बा रहा पर नींद मेरे झोले में मज़े से सोती रही बिना मुझे परेशान किए! बाघनाथ के दर्शनों के बाद कुछ देर गोमती किनारे बैठना अच्छा रहा। यहाँ जलेबी काफी  मिलती हैं। 

एक साया है! हर सफ़र में साथ-साथ रहता है! यहाँ भी रहा! वापसी में बैजनाथ के बेतहाशा तपते पत्थरों पर पाँव रखा तो छाँव की खड़ाऊँ बन गया, फिर नंदी के कान में फुसफुसाई गई मन्नत और थोड़ी ही देर बाद खुद बैजनाथ के चारों ओर पसरा दस शताब्दियों का मौन! गर्भगृह में शिवलिंग के पास माँ पार्वती की एक विशाल मूर्ती है -  काले पत्थर से काटकर बनाई गई! मन करता है उनकी इस जटिल अप्रतिम मूरत को निर्निमेष निहारते रहो  ... निहारते ही रहो ! कहते हैं कि यहीं गोमती और सरयू के संगम पर शिव-पार्वती का विवाह हुआ था और वे यहीं रुके थे! न जाने कितनी कहानियाँ - किंवदंतियाँ उजास पाती हैं यहाँ !

साथ-साथ रहता है मगर साथ नहीं रहता  ... बैजनाथ से कौसानी के दौरान सोचता रहा कि काश  .. काश दाएँ - बाएँ चलती कुमाऊँ की कोई दुर्गम पगडण्डी उधार मिल जाए और मुझे सात आसमानों के पार ले जाए! मैं भी तो अक्स के रक़्स का लुत्फ़ उठाऊँ!

गरुड़ पार करते हुए एक लाउडस्पीकर से भेंट हो गई जो कह रहा था - आपके अपने 'शहर' गरुड़ में पहली बार 'अल्ट्रासाउंड' की सुविधा  ...!

कंप्यूटर चाहे कितने भी नीले और हरे के 'शेड्स' बना ले, उतने कभी नहीं बना पायेगा जितने मैंने कौसानी के आसमान में और खेतों में देखे! नीचे हरा, ऊपर नीला और क्षितिज पर फैली पूरी की पूरी 'कलर पैलेट'!

एक-दो गानों को छोड़कर कोई भी गाना पसंदीदा नहीं था पर रंजीत जी गाड़ी चलाये जा रहे थे और हर गाना गुनगुनाये जा रहे थे! हालाँकि रवि होता तो उसको भी ये सारे गाने ज़रूर पसंद आते  ... 


Saturday, 8 April 2023

Ranikhet Diaries, Day 03
\
Reminiscences from my diary
Apr 08, 2023
Saturday 1015 pm
Tara, Kalika, Ranikhet

एक तरफ़ चीड़ और देवदार के ऊँचे-ऊँचे पेड़ और उनके नीचे जमे पत्थरों और चट्टानों के हर कोने से निकले अनगिनत तरह के जंगली फूल  .. दूसरी ओर हिमालय की वादियों की लहरें, और उनके पीछे सफ़ेद बर्फ़ से ढका, सूरज की ऊष्मा से सजा विशाल त्रिशूल! और बीच में?

बीच में संकरी सड़क पर अपनी धुन में डगमग-डगमग ढग भरता मैं ! :)

चार किलोमीटर अल्मोड़ा के रास्ते पर चलता रहा.. घाटी से अभिभूत होकर कभी भी कहीं भी रुककर एकटक देखता रहा  .. देखते-देखते फिर चलता रहा ! अल्पाइन कैफ़े से कुछ दूर पहले मैं नीची - सी एक छत पर उतरा और पाँव लटकाकर गहरे से हलके होती पहाड़ों की लड़ियों को देखता रहा  ...  ज़रूर ऐसी ही किसी जगह पर अनुराधा ने अपनी हैदराबादी माया को गड़ा होगा  .. शायद यहीं कहीं अपनी सिल्वर छड़ी से खेलते नब्भे बरस के दीवान साब दिख जायेंगे  ... शायद यहीं कहीं से कृष्णकली की खिलखिलाहट सुनाई देगी  ... शायद! वहाँ बैठा मैं याद करता रहा बारह बरस पहले ब्लैक्सबर्ग में बितायी शामें जब यूनिवर्सिटी से लौटकर मैं चुपचाप एक निर्जन सी जगह पर घास पर बैठ पांव लटका दूर 'मोव' रंग के पहाड़ों को देखता रहता  ... देखता ही रहता जब तक  पीछे से 'शानो' की पुकार न आ जाती ! 

उमंग से दो किताबें खरीदी, दो मफलर भी और एक कीवी जैम! लगभग एक घंटा वहां बिताकर वापस फिर अपनी लाठी से खेलता हुआ धीरे-धीरे पग भरता, बिना बंदरों से डरे लौट आया तारा! 

पूरी वापसी  यही सोचता रहा कि त्रिशूल, उस ओर दिखते पहाड़, और इस ओर के घने पेड़ ज़रूर एक ही रुबाई के टुकड़े हैं, जो बस एक एक दूसरे को तकते-तकते नज़्म-नज़्म हो रहे हैं ! इन नज़्मों को पिरोती हवा चिट्ठी पहुंचाने वाला कबूतर है !

सुकून की कोई और परिभाषा कोई गड़कर तो दिखाए !!


Friday, 7 April 2023

Ranikhet Diaries - Day 02

Reminiscences from my diary

April 07, 2023
Friday, 0700 pm
Tara, Kalika, Ranikhet

चीड़ के पेड़ कितने सुन्दर होते हैं। 

तरह-तरह से सुन्दर  ... तरह-तरह से हरे!

ऐसा नहीं है कि पहले कभी नहीं देखा या कभी पढ़ा नहीं इनके बारे में। यूँ भी यदि आप निर्मल के दीवाने हों तो कहीं न कहीं चीड़ से अच्छी जान पहचान हो ही जाती है। पर आज से पहले इतनी तसल्ली से चीड़ों को मैंने नहीं देखा था। पहाड़ों के संकरे रास्तों पर ट्रैफिक जाम लगने का कुछ तो फायदा हुआ। :)

कल का दिन काफी हद तक सफर में बीता। दिल्ली से हल्द्वानी की ट्रेन भले ही काफ़ी रुक-रूककर चली पर झुंझुलाहट नहीं हुई। अब चाहे इसे रानीखेत जाने का, हिमालय से फिर मिलने का रोमांच कहूँ या चाहे तो दिल्ली की भीड़ से, उमस से दूर होने की तसल्ली ! रात के लगभग आठ बजे थे जब गाड़ी मुरादाबाद स्टेशन  छोड़ रही थी। अँधेरे में जल-बुझ करती रंगीन रोशनियाँ देखते-देखते नज़र ऊपर आसमान पर पड़ी तो बस वहीं अटक गयी थी  ... कितनी ही देर तक!

चैत की पूनम का चाँद!

कितना वृत्त! कितना सफ़ेद!

चलती ट्रेन की खुली खिड़की से आती ठंडी हवा की सिरहन को समेटता मैं टकटकी लगाए साथ चलते चाँद को अपनी आँख के पानी में सहेजता रहा ! सुनो गुलज़ार! चाँद पर तुम्हारा ही कॉपीराइट नहीं है ! न मान पाओ तो 'अपने' चाँद से उसका पता माँग लेना ! :)

कल चाँदनी, आज चीड़! कोई चाहकर भी कैसे न याद करे निर्मल को, निर्मल की 'चीड़ों पर चाँदनी' को! निर्मल के साथ आज हालाँकि कुछ बातें अनुराधा की भी कौंधती रहीं कि रानीखेत-अल्मोड़ा के पहाड़ों को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे ये वादियाँ धरती की लहरें हों जो कभी किसी काल में उठीं और बस उठीं ही रह गयीं ! इन्हीं लहरों को कल रात के चाँद की बगल में बिठाते-बिठाते कब ढाई घंटे से पाँच घंटों में बदला हल्द्वानी - रानीखेत का सफ़र इत्मीनान से बीत गया, ख़ास पता नहीं चला। 

तारा एक बहुत खूबसूरत कॉटेज है ! बहुत ज़्यादा खूबसूरत ! पॉल कपल ने बहुत शालीनता से इसको बनाया - संजोया है। सत्तर वर्ष के कल्याण पॉल और अनीता पॉल से बात करना अपने आप में सुकून है ! यह बात अलग है कि मिसेस पॉल की चाय मेरे मन को ज़रा भी तरावट नहीं दे पाई ! कल ये लोग अचानक से किसी काम से दिल्ली जा रहे हैं। इनसे दोबारा मिलना नहीं होगा ! क्योंकि तारा में ठहरने का एक कारण पॉल्स के साथ रहना भी था, इनका जाना निराशाजनक है !

ख़ैर  ... 

एकांत की नियति से कोई तारा भला क्यों उलझे  ... 


Friday, 17 March 2023

Your nails, ten!

Reminiscences from my diary
March 17, 2023
Friday 2245 hrs
Murugeshpalya, Bangalore


एक नाख़ून
गौरैया का उजड़ा - उखड़ा नीड़ 
एक नाख़ून 
गंगा की चुप - चुप बंजर पीड़ 
एक नाख़ून 
ऊबड़ - खाबड़ कैलाश 
एक नाख़ून 
कुछ - कुछ फूल पलाश 
एक नाख़ून 
चाँदनी नहाये चीड़ों का सिल्हूट 
एक नाख़ून 
अंग्रेज़ी मेम का चमकीला सूट - बूट 
एक नाख़ून 
अपनी ही उँगली का सिल्वर छल्ला 
एक नाख़ून 
शम्स - ए - तबरेज़ी झल्ला 
एक नाख़ून 
कोन्या की गलियों की भटकन 

आख़िरी नाख़ून 
साँस - साँस साँस - साँस अटकन 


Sunday, 5 March 2023


The Moon & You Rantings

Reminiscences from my diary

March 05, 2023
Sunday 1130 pm
Murugeshpalya, Bangalore


तुम -
चाँद को देखते हो 
चाँद -
मुझे देखता है 

मैं -
तुम्हें -
क्यों नहीं देख पाता ?


***


रास्ते भर 
बारीक लकीर चाँद की
मुझे 
एकटक तकती रही 

सुनो -
तुम चाँद तो नहीं !
तुम चाँद क्यों नहीं ?


***


तुमने 
दिन का -
चाँद 
देखा है कभी?

कभी - कभी रात का -
चाँद
कम खूबसूरत होता है !


***


सुनो, तुम-
मुट्ठी क्यों नहीं 
खोल देते ?

मेरे आसमान का चाँद 
तुम्हारी रात की -
बेतरतीबी में 
उलझा पड़ा है !


***


मेरी ओक में 
चाँद उड़ेलकर 
तुम 
बहुत दूर निकल गए 

मैं 
उस चाँद का 
ग्रहण हूँ !


***



Thursday, 2 February 2023

Ocean's black and the fireflies

Reminiscences from my diary

Feb 02, 2023
Thursday, 2030
Varkala Cliff

साँझ की बाती बुझ चुकी थी
मैं
अपने साथ
अपने सामने पसरे समंदर का
अँधेरा
घूँट - घूँट पी रहा था

पहरों को बीतना था ही
वे बीत रहे थे

आसमान का धुँधलका
पानी - पानी था
सलिल में
बादलों का ज्वार

और फिर
अचानक से
बिल्कुल अचानक से
न जाने किस लोक
किस दिशा से

जुगनुओं की बारात आ धमकी


उधर क्षितिज जगमगाया
इधर मैं फ़फ़ककर रो पड़ा