Wednesday, 7 February 2018


The birthday rain


Reminiscences from my diary

Feb 7, 2018
Wednesday 07:00 PM
Murugeshpalya, Bangalore


कैसा संजोग है, या यूँ कहूँ कि कैसा सुखद संजोग है कि आज तुम्हारा जन्मदिन है और आज ही तुम्हें सपने में देखा और आज बारिश भी हो रही है।  जानते हो न ! बारिश की हर बूँद, हर छींट में मैं तुम्हारा अक्स देखता हूँ। क्यों देखता हूँ -  अगर यह पता होता तो बात ही क्या थी ! शायद तुम्हारे नाम के साहित्यिक अर्थ से जुड़े सभी तत्व मुझे अपने लगते हैं और बारिश उस सूची में पहला स्थान पाती है। 

देर रात जब तुम्हें जन्मदिन की बधाई दी, तब पता नहीं था कि तुरंत जवाब आएगा ! पर तुम्हारा जवाब आया - बहुत अच्छा लगा।  लगा, अधरों की मुस्कराहट पर लगा बाँध टूट गया ! जानते हो - मैंने सोचा था तुम्हें कोई कविता लिखकर तुम्हारे दिन की बधाई दूँ।  हालाँकि, जानता हूँ कि तुम इन बातों से, इन बेकार की बातों से - कविताओं से, कविताओं में सजते अलंकारों से, उपमाओं से, रूपकों से अभिन्न रहते हो। फिर भी कोशिश करता रहा - हल्की सर्द रात के सर्द पहर की ठिठुरन में देर तक कोशिश करता रहा।  पर वही हुआ, जो हमेशा होता आया है।  हार गया।  तब भी हारा था, आज भी हार गया। तब से अब तक हारता ही तो आया हूँ।  क्यों कभी मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं होता ? देखो, एक कविता भी नहीं लिख पाया तुम्हारे जन्मदिन पर ! लेकिन मज़े की बात तो तब हुई जब बहुत सीधी - सी, साधारण - सी बधाई देने पर तुमने मुझे शब्दों का खिलाड़ी ठहरा दिया ! तुम कह गए कि मैं शब्दों के साथ अच्छे से खेलना जनता हूँ।  ठीक है, मान लेता हूँ।  तुम कह रहे हो तो ठीक ही कह रहे होंगे।  पर, जब भी फुर्सत मिले तो एक बात बताना - क्या तुम्हें हमेशा सिर्फ़ शब्द ही दिखाई दिए ? या फिर, तुम मेरे शब्दों के ताने - बाने में इतना उलझ गए कि कुछ और देख ही नहीं पाए ? क्या कभी बीते सालों का कोई भी वाक़या, कोई किस्सा, कोई सफ़र, कोई राह, कोई बात, कोई हँसी, कोई आँसू, कोई दिन, कोई रात, कोई बारिश, कोई गली, कोई नुक्कड़, कोई किताब, कोई तुम, कोई मैं - याद नहीं आते, अचानक कौंध नहीं जाते ? अगर नहीं, तो ज़रूर तुम्हारे दिल की खाई बहुत बहुत गहरी है दोस्त जो एक पूरा युग निगल गई। 

खैर  ... तुमसे शिकायत करना मैंने काफ़ी पहले बंद कर दिया था  - बंद नहीं, तो कम - से - कम काफ़ी कम कर दिया है।  मैंने अपने अंदर तुम्हारी दो रूहों को पाल लिया है - एक वह जिसे मैं पूरी तरह से जानता था और दूसरी वह, जिसे मैं तो क्या वह खुद भी नहीं जानती। 

बात इत्तेफ़ाक़ से शुरू की थी ! दो सुन्दर संजोगों की बात ! पहला तो यह कि तुम्हारा जन्मदिन है और आज ही तुम मुझसे मिलने आये - क्या सपना था, याद नहीं है - बहुत कोशिश की, फिर भी याद नहीं आया ! बस इतना याद है कि तुम थे ! मैं था या नहीं - ये भी नहीं पता - पर तुम थे ! पर सपना तो सपना था ! तुम अचानक आए और चले गए।  पर आज अचानक यूँ बिन मौसम के, बिन सावन के बारिश होगी - इसकी उम्मीद, इसका ख़्याल दूर - दूर तक नहीं था ! तुम्हारा अचानक यूँ अपने जन्मदिन पर मुझसे मिलने आना, मेरी डायरी के पन्नों पर स्याही के साथ खेलना, मेरी बालकनी के हर पौधे के हर पत्ते पर आकर बैठना - मुझमें कितना उन्माद भर रहा है, काश मैं इस पर कोई कविता लिखकर तुमसे साझा कर पाता ! खैर  ... 

आओ ! तुम्हारी पसंद का कोई गाना सुनें !
आओ ! तुम्हारा जन्मदिन मनाएँ !












Thursday, 25 January 2018

Scattered across the dark



Reminiscences from my diary

Friday Jan 26, 2018
01:50 AM
Murugeshpalya, Bangalore


कोरे कोहरे में गुमा पिटारा -
- चूर - चूर हो जाएगा !
नीर आँख का रिस - रिस कर  -
- सावन - सावन हो जाएगा !
शोर में घुटता मौन एक दिन -
- चीत्कार बन जाएगा !
बिसरा अमृत यूँ अचानक -
- गरल - गरल कर जाएगा !

कितने मिहिरों ने ढापा अब तक -
- पर कब तक छिप पाएगी ?
आज याद रात में बिखरी है तो -
- दूर तिमिर तक जाएगी !


नीड़ को जाता पंछी क्या -
- कुछ देर यहाँ सुस्ताएगा ?
क्यारी - क्यारी में दबा बीज -
- क्या कोई सलिल सिंचाएगा ?
क्या पलस्तर झड़ती दीवारों पर -
- रंग नया चढ़ पाएगा ?
क्या फिर अजान की आवाज़ों में -
- अबीर फ़ाग का छाएगा ?

क्या वो अटरिया सप्तर्षि से -
- फिर कभी बतियाएगी ?
आज याद रात में बिखरी है तो -
- दूर तिमिर तक जाएगी !

हर पल, हर दिन फिर कोई क्या -
- यूँ बिन बात हँसाएगा ?
कभी शरारत, कभी ठिठोली -
- कभी गालों को फुलायेगा ?
क्या दीप जली उन रातों में -
- कोई गरम कोट फिर भाएगा ?
और दूर बिन कहे जाने पर फिर -
- दिल को तर कर जाएगा ?

क्या फिर से नौ पन्नों की चिट्ठी -
- मेरे पते पर आएगी ?
आज याद रात में बिखरी है तो -
- दूर तिमिर तक जाएगी !

क्या पौष का ढलता सूरज फिर -
- सीली मिट्टी नहलाएगा ?
क्या सकुचाता - सा बूढा वट -
- फिर और पास आ जाएगा ?
क्या हवा में घुलते शब्दों से -
- हर तिनका फिर रंग जाएगा ?
और बहमाया - सा कोई कबूतर -
- अपना पंख भुलाएगा ?

क्या फिर सुजाता किसी बुद्ध को -
- मुक्ति - मार्ग दिखाएगी ?
आज याद रात में बिखरी है तो -
- दूर तिमिर तक जाएगी !











Sunday, 31 December 2017

Will the new year be really new?



Reminiscences from my diary

Dec 31, 2017
Sunday 11:45 PM
Murugeshpalya, Bangalore


पिछली कुछ शामों से चर्चा है कि -
कल की तारीख़ -
एक नयी - नवेली भोर लाएगी  ...
एक नया रोशन दिन  ...
एक खूबसूरत - सी नयी शाम  ... !

जब से सुना है -
- एक उधेड़बुन में हूँ !
मेरी सुबह नयी कैसे होगी ?
कल क्या नींद में डूबे तुम -
- मुझे नींद से जगाने आओगे ?
कल क्या फिरआँख मलते - मलते, तुम्हारी कोई पलक -
- मेरे तकिये पर आकर ठहर जायेगी ?
क्या कल सुबह, मेरी कॉफ़ी का मग -
- तुम्हारे चाय के प्याले से गुफ़्तगू करेगा ?

नहीं न  ... !

फिर मेरी भोर नयी - नवेली कैसे हुई ?

दिन भी तो वैसा ही होगा !
मेरे जैसा !
अपने में ही डूबा - सा !
पुरानी किताबें -
पुराने अख़बार -
पुराने गाने -
पुरानी यादें !
नया तो तब होता, जब -
कभी तेज़, कभी गुनगुनी होती धूप में -
तुम और मैं -
पुरानी सड़कों को सजाते पुराने किताबघरों की -
- ख़ाक छानते फिरते !
पर अब क्या नयी सपाट राहों का मुसाफ़िर -
- पुरानी पगडंडियों को पहचान पायेगा ?

नहीं न  ... !

फिर मेरा दिन नया और रोशन कैसे हुआ ?

और जब वही पुरानी भोर होगी -
वही पुराना दिन होगा -
तो फिर नयी गोधूलि की उम्मीद कैसे करूँ ?
क्या कल शाम, मेरी आँख की कोर में -
- कोई नमी आकर नहीं ठहरेगी ?
क्या कल शाम, मेरे पाँव रोज़ की तरह -
- अपनी कॉलोनी की हरी संकरी गलियाँ नहीं नापेंगे ?
क्या कल की शाम तुम मेरे साथ -
- मेरी ही कोई कविता सुनोगे ?
क्या कल की शाम तुम मुझसे -
- अपनी आपबीती साझा करोगे ?

नहीं न  ... !

फिर मेरी शाम नयी और खूबसूरत कैसे हुई ?

लोग भी न  ... !

आखिर पहली जनवरी को भी -
- सलिल बरसता है भला  ... !





Friday, 20 October 2017


My bloody fist!


Reminiscences from my diary

Sunday Oct 1, 2017
10:30 PM
Murugeshpalya, Bangalore


 जिस एक पल तू मुझे -
- हमेशा के लिए छोड़कर गया था -
उस एक पल को -
- मैंने कसकर अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया था !
दूर तक जाती तेरी गाड़ी को -
- एकटक देखा था मैंने !
कितनी ही देर बीच सड़क पर खड़ा रहा था मैं !
एक आँख जम - सी गयी थी,
और दूसरी आँख का पानी रुका ही नहीं था !

...और फिर अचेतन देह और अचेतन रूह का बोझ उठाये मेरे कदम -
- जब वापिस लौटे -
- तो मेरे कमरे से पहले -
- तेरे कमरे के दरवाज़े पर रुक गए थे !
उस एक पल, मेरी उँगलियों ने तेरे कमरे के दरवाज़े को -
- ऐसे छुआ था, जैसे तेरे बिखरे बाल सहला रही हों !

... और फिर कमरा अंदर से बंद कर -
- कितनी ही देर अपनी बंद मुट्ठी को देखता रहा था मैं !
कितनी भारी लगी थी उस कमरे की हवा !
हवा क्या, तेरी मुश्क ही तो थी !
कैसे अपने नाखूनों से तेरे कमरे की दीवारों को -
- कुरेदता रहा था घंटों, मानो -
अपने कुछ निशान तूने मेरे लिए छोड़े हैं, और वे निशान -
- इन दीवारों में छिपे हुए हैं !
घंटों तेरे बिस्तर की मैली चादर को लपेटकर -
- आँख खुले मुर्दे सा -
- लेटा रहा था मैं !
और फिर अचानक से,  उन सिलवटों को नोचने लगा था मैं !
शायद तूने अपनी नींदें छोड़ी थीं उनमें !

तेरी बिखरी किताबों के बिखरे पन्ने -
झूठा गिलास -
एक दो पुराने कपड़े -
कुछ अधजली अगरबत्तियाँ -
कुछ बिखरी राख -
सब कुछ सीने से चिपकाए -
अपनी बंद मुट्ठी को देखता रहा था मैं !

कब वह दिन बीता  ...
कब वह बदहवास - सी शाम आई  ...
खबर ही नहीं लगी थी !

 वह दिन, वह शाम -
- मेरी मुट्ठी को लहूलुहान कर चुके हैं !
खून रिस रिसकर सूख गया है !
पस रिस रिसकर जम गयी है !
हर लकीर तड़प रही है !
कभी तो आ और -
मेरी मुट्ठी को उस लम्हे से आज़ाद करा जा !

क्या एक और एहसान नहीं करेगा मुझपर ?















Thursday, 14 September 2017

This language is not a language!


Reminiscences from my diary

September 14, 2017
Thursday 10:30 PM
Murugeshpalya, Bangalore


तू पथ - पथ की साथी है,
तू पग - पग की काठी है।
हृदय की अग्नि में जो पिघले -
तू उन शब्दों की बाती है।

हिंदी - तू सहचारिणी है  ...

तू पाथेय पीड़ा का मेरी,
मेरे तम की रश्मि तू है।
औ' गोधूलि की धूल में लिपटी -
स्वप्नगामिनी निशा भी तू है।

हिंदी - तू निशाचरणी है  ...

कटुता हरती, लघुता हरती, तू -
स्मृति अनश्वर बनाती है।
मन - मानस के द्वेष भी हरती,
विस्तृत स्नेह कर जाती है।

हिंदी - तू मृदुभाषिणी है  ...

करूँ जो मानवीकरण तेरा मैं,
तू मातंगी मीनाक्षी है।
प्रेम - राग से आलिंगनबद्ध, तू -
मन्मथ, तू कामाक्षी है।

हिंदी - तू प्रणयदायिनी है  ...

तू सुर, लय और ताल पिरोती,
संगीत अजर कर जाती है।
एकांत, हास, क्रंदन रूदन, हर -
भाव अमर कर जाती है।

हिंदी - तू स्वरागिनी है  ...

तू श्याम रंग कान्हा - सी चंचल,
नीलकंठ, गजगामिनी है।
निसर्ग मेरा, तू मेरा स्वर्ग,
यज्ञ - समीधा - सी पावनी है।

हिंदी - तू मोक्षदायिनी है  ...

निदाघ, वसंत तेरे पाहुना,
शरद - प्रहार अपनाया है।
श्रावण को आश्रय देती तू -
प्रवाह सलिल - सा पाया है।

हिंदी - तू ऋतुगामिनी है  ...


Monday, 28 August 2017

A beautiful Safarnama...



Reminiscences from my diary

March 3, 2017 Friday
03:30 pm
GS, CD, Bangalore


यूँ तो मैं एक बार पहले लिख चुका हूँ अल्मोड़ा के सफ़र के बारे में, पर लगता है मानो उन चंद शब्दों में शायद ही उतना उकेर पाया हूँ जितना चाहता था ! अभी भी उस सफ़र की असंख्य स्मृतियाँ मुझे घेरे रहती हैं और बरबस ही मेरी आँखों में चमक और अधरों पर मुस्कान ले आती हैं।  अब तक के जीवन के सबसे खूबसूरत लम्हों में शामिल हो गया है यह सफ़र।  २ दिसंबर की कंपकंपाती सर्दी , हम पाँच साथी, एक 'कोज़ी ' -सी गाड़ी, हिंदी गाने और बातें ही बातें ! कहाँ से शुरू करूँ और किन शब्दों में ढालूँ इस सफ़रनामे को ! दिल्ली से शुरुआत की, रामपुर का नाश्ता, बढ़ते - घटते - भटकते रास्ते, कितने ही पार होते छोटे - बड़े गाँव, मंज़िल बताते लोग, कभी बंजर तो कभी चहचहाती सड़कें, कभी धूल भरा गुबार तो कभी हरी छतरियाँ  ... मैदानों को पार करते - करते कब हम पहाड़ों को छू गए - पता ही नहीं चला !

हवा सर्द से और सर्द होती जा रही थी  ... रास्ते संकरे से और संकरे होते जा रहे थे   .... सफ़र खूबसूरत से और खूबसूरत होता जा रहा था  ... न हिंदी गानों की कोई कमी थी, न हम पाँचों की बातों की ! तभी पता चला, काठगोदाम में हैं हम ! अंदर तक अतीत की एक ललक भभक उठी।  कितनी ही बार ज़िक्र आया है इस जगह का ! कितनी ही बार मैंने काठगोदाम शिवानी की आँखों से देखा है।  एक अलग - सी धूप चमकती - सी दिखाई देती है इन पहाड़ों में।  एक अलग - सी सादगी बसती दिखाई देती है यहाँ के लोगों में , उनकी जीवन - शैली में।  

एक लक्ष्य सामने था हम लोगों के।  अँधेरा होने से पहले, या कम - से - कम अँधेरा घना होने से पहले अपने अल्मोड़ा के 'होम - स्टे ' पहुंचना ! नयी , अनजानी जगह थी और दिसंबर की कड़कड़ाती सर्दी ! ज़्यादा रोमांच परेशानी ला सकता है और इस बात से हम पाँचों सहमत थे ! गाड़ी की रफ़्तार सावधानी से बढ़ी। अब हम सबका ध्यान आस - पास पसरी शांत नैसर्गिकता अपनी ओर आकर्षित कर रही थी।  उथली पर तेज़ गति वाली नहरें, धूप में आराम फरमाती घास, कुछ चमकते तो कुछ धूमिल - से पहाड़, कुछ हरी तो कुछ बंजर पहाड़ियाँ, नदियों के किनारों पर बिखरे कंकण  - प्रकृति की हर एक इकाई उसकी सुंदरता की इकाई में असंख्य शून्य जड़ रही थी! रास्ते में पता चला कि कुछ दूरी पर बहुत लज़ीज़ दाल के पकौड़े मिलते हैं।  यूँ तो वैसे भी हम सभी एक गर्म चाय की प्याली के लिए तड़प रहे थे।  पकौड़ों की दुकान आई, गाड़ी नहर किनारे लगाई, कमर सीधी की और हम सब टूट पड़े पकौड़ों पर ! 

कब पैंतालीस मिनट बीत गए, पता ही नहीं चला ! सूरज ढलता जा रहा था और मंज़िल अभी भी ज़्यादा पास नहीं थी ! एक बार फिर गाड़ी ने अपनी रफ़्तार पकड़ी। ढलते सूरज की बिखरी लालिमा आँखों में संजोये और लता - जगजीत - रफ़ी के मधुर गीतों को हिमालय की सर्द हवा में घोले हम निकल पड़े अल्मोड़ा की डगर !

सच! जितनी सुन्दर मंज़िल निकली, उतनी ही या फिर यह कहूँ कि उससे भी सुन्दर था - हम पाँचों का यह सफ़रनामा !













Saturday, 19 August 2017

A night for a night



Reminiscences from my diary

Aug 19, 2017 Saturday
10:30 pm
Murugeshpalya, Bangalore


वे कहते हैं -
रात की न जात होती है, न नस्ल -
न मुल्क होता है, न शक्ल !
रात तो बस रात होती है -
सबके लिए एक - सी !
अब उन्हें कैसे समझाऊँ कि -

- तेरी और मेरी रात एक -सी कहाँ हैं !
एक रात तेरी है  ...
एक रात मेरी है  ...!

कितनी अलग है तेरी और मेरी रातें !
एक रात तड़प - सी कटती है -
एक रात खुमारी में सजती है !
और मेरी रात की सिसकियों में -
- जब तेरी रात का सुकून मिलता हैं, तो शायद -
- एक सितारा पैदा होता है -
- कहीं किसी आकाश-गंगा में !

मेरी रात का मंज़र -
- शायद मेघदूत - सा है !
बादल का टुकड़ा -
एक आवारा टुकड़ा,
जो शायद -
- मेरे सपनों की तड़प -
- तेरी रात तक पहुँचाना चाहता है !

कुछ बोल लिए फिरती है मेरी रात -
पता नहीं क्या, पर अक्सर -
किसी धुन में पिरोने की कोशिश करती है उन्हें -
- पर चाहकर भी गुनगुना नहीं पाती !
गुनगुनाएगी भी कैसे !
उन बोलों की लय तो -
तेरी रात चुराकर बैठी है, और मेरी रात -
- यह राज़ जानती है शायद !
वैसे,  क्या तेरी रात ने भी -
इस गीत को -
पूरा करने की कोशिश की है कभी ?

रोज़ सूरज ढलते ही -
मेरी रात -
जुगनू - सी -
किसी ओट से निकलती है -
और ढूँढने निकल पड़ती है -
तेरी किसी ऐसी रात को -
- जिसमें तूने -
मेरा अक्स -
- या मेरा एहसास -
- घोला हो कभी !

कहीं से -
मेरी रात को -
रातों के उस मोहल्ले का पता मिल गया है -
जहाँ तेरी रात-
कभी छत से, कभी खिड़की से -
चाँद से गुफ़्तगू करती थी !
बस  ... तभी से -
मेरी रात -
उसी चाँद की रोशनी में -
उस मोहल्ले का -
हर दरवाज़ा, हर रोज़ खटखटाती है !

और यह तो तय है -
जब भी कभी -
मेरी रात -
मेरी ही खुशबू से भरी -
तेरी किसी रात से टकराएगी  ...
तो फिर -
न वो तेरी रात होगी  ...
न वो मेरी रात होगी  ...
वो बस एक रात होगी !
एक कायनाती रात ... !